वैचारिक स्पष्टता से मजबूत होगा समाजवाद

Last Updated 01 Apr 2015 02:11:34 AM IST

मौजूदा दौर में विविध कारणों से दुनिया भर में समाजवाद की सोच क्षतिग्रस्त हुई है.


वैचारिक स्पष्टता से मजबूत होगा समाजवाद

एक ओर समाजवाद से जुड़ी ताकतें कमजोर हुई हैं तो दूसरी ओर समाजवाद की सोच से जुड़ी स्पष्टता और उसे बदलते समय के साथ ढालने के संकल्प में कमी आई है. समता और न्याय के उद्देश्यों को अन्य विचारधाराओं के लोग भी अपने स्तर पर मान्यता देते हैं पर समाजवाद की विशिष्ट पहचान आर्थिक और सामाजिक समता व न्याय को उच्चतम प्राथमिकता देने व नीतियों का आधार बनाने में है.

यह अलग सवाल है कि विश्व स्तर पर समाजवाद का दावा करने वाले कई संगठन आज इस मूल पहचान पर ही खरे नहीं उतर पा रहे हैं. निष्ठा व अध्ययनशीलता के अभाव में या तो सही कार्यक्रम बन नहीं पाता है या उसे ठीक से निभाया नहीं जाता है. ऐसे कार्यक्रम को निभाने के लिए जो गहरी प्रतिबद्धता चाहिए, कई कठिनाईयों को सहने का साहस चाहिए- वह प्राय: मौजूद नहीं है और ऐसे कार्य कर लिए जाते हैं जो सिद्धांतों के प्रतिकूल सिद्ध होते हैं. इन सब कारणों से समाजवाद की वैचारिक स्पष्टता को बनाए रखना व उसके आधार पर विस्तृत स्थानीय कार्यक्रम तय करने की चुनौती पीछे छूटती गई है. पर आज भी बहुत देरी नहीं हुई है. प्रयास किए जाएं तो यह प्रयास हितकारी ही सिद्ध होंगे.

इसके लिए जरूरी है कि विश्व की बदलती स्थितियों और समस्याओं को समाजवाद की मूल सोच में समुचित स्थान दिया जाए. इनमें सबसे महवपूर्ण मुद्दा पर्यावरण का है. पर्यावरण के महत्व को स्वीकार तो सब करते हैं पर समस्या यह है कि पर्यावरण संरक्षण के तौर-तरीकों के बारे में बहुत मतभेद हैं. वन व वन्य जीवों की रक्षा के लिए कुछ लोग ऐसे सुझाव देते हैं जिससे गांववासियों, विशेषकर आदिवासियों का विस्थापन होगा या उनकी आजीविका संकट में पड़ेगी जबकि कुछ लोग वन व वन्य जीवों की रक्षा के लिए ऐसे सुझाव देते हैं जिनसे गांववासियों की आजीविका या आधार पहले से और मजबूत होगा. जरूरी बात है कि समाजवाद की सोच में दूसरी तरह के उपाय अपनाए जाएंगे क्योंकि वह समता और न्याय के उद्देश्यों के अनुकूल होते हैं. इस समय विश्व स्तर पर पर्यावरण का सबसे महवपूर्ण मुद्दा जलवायु बदलाव का है. इसमें संदेह नहीं कि ग्रीन हाउस गैसों- विशेषकर कार्बन डाइआक्साइड का उत्सर्जन तेजी से बढ़ता जा रहा है और यह ऐसे ही जारी रहा तो धरती पर जीवन का अस्तित्व संकट में पड़ जाएगा. प्राकृतिक आपदाएं विनाशक हो जाएंगी. ऐसी स्थिति में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी किये जाने की बात स्वीकार तो सब रहे हैं पर सवाल है कि वैश्विक स्तर इस पर अंकुश लगाने के कैसे तौर-तरीके अपनाए जाएं कि सारे देश समान भागीदारी या दायित्व निभाते नजर आएं.

कुछ तौर-तरीके विश्व स्तर पर न्याय व समता के लक्ष्यों के अनुकूल होंगे तो कुछ प्रतिकूल. जाहिर है, समाजवाद की सोच में पहली तरह के तौर-तरीकों को ही मान्यता मिलेगी पर इन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत करवाना बहुत कठिन कार्य है क्योंकि धनी व विकसित देश अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए इस गंभीर समस्या के समाधान के न्यायोचित आधार को स्वीकार नहीं कर रहे हैं. पर्यावरण के मुद्दे पर, पेटेंट के मुद्दों पर, जीएम फसलों के मुद्दे पर- कुल मिलाकर कहें तो न्याय व समता आधारित विश्वव्यवस्था के सबसे व्यापक मुद्दे पर ही धनी व विकसित देशों से, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय व व्यापार संस्थानों से टकराव तो होना ही है. इस तरह के पेचीदा मुद्दों को किस तरह सुलझाना है, यह समाजवादी संगठनों के लिए ऐसी चुनौती है जिसकी तैयारी उन्हें सावधानी से करनी चाहिए. इन मुद्दों के कानूनी पक्ष की विस्तृत जानकारी भी इसके लिए जरूरी है.

यह तो पहले भी कहा जाता था कि धरती के सीमित संसाधनों को देखते हुए उनका समतावादी वितरण उचित है पर अब जलवायु बदलाव के दौर में यह भी बड़ा प्रश्न है कि कार्बन स्पेस भी सीमित है. दूसरे शब्दों में, चूंकि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को सीमित दायरे में रोकना जरूरी है अत: औद्योगिक उत्पादन पर भी कुछ अंकुश लगाना होगा कि इसे कितना बढ़ाया जा सकता है. इस तरह का अंकुश लगेगा तो जरूरी है कि पहली प्राथमिकता जनसाधारण की जरूरतों को पूरा करने को देनी होगी व धनी वर्ग की विलासिताओं पर रोक लगानी होगी पर इसके लिए पहल कौन करेगा. क्योंकि धनी देश अपनी जरूरतें सीमित करने की दिशा में सोचते नहीं दिखते. दुनिया में इस तरह की जो स्थितियां उत्पन्न हो रही हैं, उनमें समता व समाजवाद आधारित मुद्दों को सही ढंग से उठाने के लिए समाजवादी ताकतों का मजबूत होना जरूरी है. नई परिस्थितियों में समाजवाद का वैचारिक आधार स्पष्ट करने के निमित्त वैश्विक स्तर पर प्रयास जरूरी हैं.

इसी के साथ विश्व शान्ति के मुद्दे को भी नए संदभरे में समाजवाद में शामिल करना जरूरी है. विश्व में हथियार उद्योग बड़े मुनाफे का उद्योग बन गया है. धनी देशों में केंद्रित कंपनियां विकासशील देशों को बहुत महंगे हथियार बेच रही हैं. एक बड़ा विनाशक हथियार इतनी कीमत का भी हो सकता है कि उससे ठीक-ठाक सुविधा वाले कई अस्पताल खुल जाएं. इसके बावजूद जरूरी खर्च छोड़ ऐसे विनाशक हथियार गरीब व विकासशील देश खरीदते रहें, ऐसी स्थितियां उत्पन्न की जाती रही हैं. अनेक देशों में लोगों की जरूरतें पूरा करने में बड़ी बाधा यह है कि सेना व हथियारों पर अधिक खर्च करना मजबूरी बन गई है. दूसरी ओर अधिक विनाशक हथियारों का जहां वास्तव में उपयोग होता है (जैसे इराक में हाल में बड़े पैमाने पर देखा गया) वहां असहनीय बर्बादी होती है. महाविनाशक हथियारों- विशेषकर परमाणु हथियारों के इतने बड़े भंडार एकत्र हो गए हैं जो क्षणांश में पूरी दुनिया नष्ट कर सकते हैं. इस स्थिति में मानव सभ्यता की रक्षा के लिए विश्व शांति व निरस्त्रीकरण के मुद्दों को नए संदभरे में उठाना बहुत जरूरी है. स्थानीय संदर्भ में इस सोच की अभिव्यक्ति यह है कि सभी विवाद शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाने के प्रयास हों विशेषकर विभिन्न धर्मो के बीच सद्भावना के मजबूती से प्रयास किए जाएं. सभी तरह की हिंसा और अपराध कम करने के लिए भी सामुदायिक प्रयास मजबूत करने होंगे.

इस तरह न्याय व समता के मूल सरोकारों के साथ विश्व और स्थानीय स्तर पर शान्ति तथा पर्यावरण संरक्षण के सरोकारों को इस तरह से जोड़ना जरूरी है कि समग्र सोच बने. इसे नागरिकों के बीच इस रूप में ले जाना चाहिए ताकि कार्यक्रम के जटिल पक्ष भी आसानी से समझ आ सकें.

कार्यक्रम को कुछेक व्यक्तियों से जुड़ी सोच की संकीर्णता में नहीं बांधना चाहिए. सभी समाजवादी विद्वानों के विचारों के अध्ययन व अनुभवों से सीखना चाहिए. बहरहाल, न्याय व समता के प्रयास विश्व इतिहास में सभी देशों और समाजों में होते रहे हैं. यदि समाजवाद के वैचारिक आधार को स्पष्ट किया गया तो आने वाले समय में इसके व्यापक प्रचार-प्रसार के लिए अनुकूल स्थितियां उपलब्ध होने की पूरी संभावना है. बस जरूरत है ईमानदारी से प्रयास करने की.

भारत डोगरा
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