अमीरों की सब्सिडी बंद कीजिए

Last Updated 02 Feb 2015 04:31:45 AM IST

सब्सिडी देश पर बहुत बड़ा बोझ है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता. इससे अगर मुक्ति मिल जाय तो यह सारा धन देश के विकास कार्यों में लगाया जा सकता है.


अमीरों की सब्सिडी बंद कीजिए

खाद्यान्न, रसोई गैस, उर्वरक, मनरेगा तथा कुछ अन्य कल्याणकारी योजनाओं में ही तकरीबन छह लाख करोड़ रुपयों की सब्सिडी प्रतिवर्ष देनी पड़ रही है. किसी भी विकासशील देश के लिए यह रकम बहुत भारी है लेकिन अपने देश का जो सामाजिक-आर्थिक ढ़ांचा है, उसके परिप्रेक्ष्य में अगर देखा जाय तो सब्सिडी की यह व्यवस्था भारी नहीं, अत्यावश्यक है. यह खर्च वैसे ही है, जैसे किसी परिवार में बच्चों और वृद्धों पर खर्च किया जाता है. इन्हें बेसहारा तो नहीं छोड़ा जा सकता.

सरकार नाम की संस्था लाभ कमाने का उपक्रम नहीं बल्कि व्यवस्था नियामक होती है. यहां प्रश्न लाभ-हानि का नहीं, व्यवस्था की उपादेयता का है. वह व्यवस्था, जो सर्वहितकारी और समभाव वाली हो. केंद्र में आरूढ़ भाजपा की सरकार ने सत्ता संभालते ही यह स्पष्ट कर दिया था कि उसे सब्सिडी की अब तक चली आ रही व्यवस्था पसन्द नहीं है और उसने इसकी समीक्षा और नये प्रारूप की कवायद भी तभी से शुरू कर दी है और इस क्रम में सरकार द्वारा गठित शांता कुमार समिति ने  इस मद में 40 प्रतिशत की भारी-भरकम कटौती करने की सिफारिश की है.

सब्सिडी यानी अनुदान मूलत: दो कारणों से दिया जाता है. एक तो किसी आवयक वस्तु के प्रचार-प्रसार के लिए और दूसरे, ऐसी वस्तुओं की उपलब्धता आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को कराने के लिए. देश में सबसे ज्यादा अनुदान खाद्यान्न पर दिया जा रहा है. यह एक लाख पंद्रह हजार करोड़ रुपयों के करीब है. यह सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत 75 प्रतिशत ग्रामीण और 50 प्रतिशत शहरी आबादी को सस्ते खाद्यान्न उपलब्ध कराने में खर्च होता है. खाद्य और उपभोक्ता मामलों के पूर्व मंत्री शांता कुमार की अगुआई वाली समिति ने इस मद में 40 प्रतिशत की भारी-भरकम कटौती करने की सिफारिश की है.

सरकार ने इस मद में कटौती का मन बना लिया है. ऐसा हुआ तो यह कटौती कई नई समस्याएं खड़ी करेगी. खाद्य अनुदान की ध्वजवाहक योजना पीडीएस अपनी शुरुआत से भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी हुई है. फर्जी राशन कार्ड, लाभार्थियों की श्रेणी का गलत निर्धारण, घटिया और कम मात्रा में खाद्यान्नों की बिक्री जैसे कई गम्भीर आरोप इस व्यवस्था पर लगे हैं. सर्वोच्च न्यायालय ने भी कई बार तल्ख टिप्प्पणी की है. हालांकि शांता समिति ने एक बढ़िया सुझाव दिया है कि पीडीएस को हर हाल में कम्प्यूटरीकृत कर दिया जाय. समिति ने संप्रग सरकार की खाद्यान्न व अन्य वस्तुओं के अनुदान को लाभार्थी के बैंक खाते में डालने की व्यवस्था को लागू करने का प्रस्ताव किया है.

यहां यह विचार करने की जरूरत है कि सब्सिडी देने में बुराई है या सब्सिडी दिए जाने की व्यवस्था में. शांता समिति कहती है कि यदि लाभार्थी के बैंक खाते में सीधे अनुदान देने की व्यवस्था हो जाय तो सिर्फ इसी से प्रतिवर्ष 30,000 करोड़ रुपयों की बचत हो सकती है. सच्चाई यह है कि यदि पीडीएस को समूचे तौर पर कम्प्यूटरीकृत व फर्जी लाभार्थियों को निकाल कर घटतौली को समाप्त कर दिया जाय तो सिर्फ इसी कार्य से इस पर आने वाला सरकारी खर्च आधा हो सकता है. पीडीएस अपनी पांच लाख राशन की दुकानों के साथ विश्व की सबसे बड़ी सरकारी वितरण प्रणाली है. वर्ष 1940 के भयावह बंगाल भुखमरी के दौरान सबसे पहले राशन की व्यवस्था की गई थी. बाद में 1960 के दशक में बाकायदा इसे सरकारी योजना बनाया गया और तब से यह प्रणाली कार्य कर रही है. अफसोस है कि इसे एक तरह से रामभरोसे छोड़ दिया गया और इसमें सुधार और परिमार्जन के कार्य किए ही नहीं गए.

अभी हाल में केंद्र सरकार ने एक बढ़िया काम शुरू किया है-रसोई गैस की सब्सिडी को लाभार्थी के बैंक खाते में सीधे देने का. नि:सन्देह इससे फर्जी कनेक्शनों की पहचान हो सकेगी जो बहुत बड़ी तादाद में हैं. यही काम राशन कार्डों के कम्प्यूटरीकरण से भी किया जा सकता है. लेकिन रसोई गैस और राशन में एक बुनियादी अंतर है. राशन की दुकानें बंद करके बैंक खाते में नकद सब्सिडी देने से कई प्रकार की समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं. अभी देखने में यह आता है कि अधिकांशत: परिवार की महिला ही राशन लेने जाती है और वह जरूरत के कई अनाज खरीद कर उसका बेहतर प्रबंधन करती है. बैंक खाते में नकद धनराशि जाने पर वह पैसा परिवार के मुखिया के हाथ में आ जाएगा और वह उसका अन्य कार्यों में उपयोग या दुरुपयोग कर सकता है.

दूसरी दिक्कत यह भी आ सकती है कि बैंक में पैसा आने पर लाभार्थी अच्छी किस्म के लेकिन कम और एक दो तरह के ही अनाज खरीदे. इससे परिवार की पोषण सम्बन्धी समस्याएं हो सकती हैं. इस योजना की धनराशि में कटौती करके हो सकता है कि सरकार कुछ हजार करोड़ रुपये बचा ले लेकिन इससे गरीबों के पेट पर लात ही लगेगी. एक हास्यास्पद स्थिति यह है कि सरकार अमीर लोगों से रसोई गैस पर दिए जा रहे अनुदान को स्वेच्छा से छोड़ने की अपील कर रही है. उसी अनुदानित गैस को देश का अमीर तबका भी ले रहा है और अति निर्धन भी. सरकार ने उर्वरकों पर दिया जा रहा अनुदान भी कम कर दिया है आगे और भी कम करने पर विचार कर रही है. इस अनुदानित उर्वरक को भी देश के अमीर लोग अपने-अपने उद्योग-धंधों और चाय-फल के बागानों तक में इस्तेमाल करते हैं. उर्वरक अनुदान का भी आधे से अधिक धन गलत लोगों को जा रहा है.

यही हाल डीजल और पेट्रोल का भी है. सवाल यह है कि सरकार केरासिन ऑयल की तरह रसोई गैस, डीजल और पेट्रोल की भी राशनिंग क्यों नहीं कर सकती? सरकार अगर किसानों और परिवहन व्यवसायियों को सस्ती दर पर डीजल देना ही चाहती है तो उनके लिए अलग से व्यवस्था क्यों नहीं की जा सकती? सरकार बता रही है कि पेट्रोलियम मंत्री की अपील पर देश में एक बड़े उद्यमी ने स्वेच्छा से गैस सब्सिडी छोड़ दी है. देश के एक बड़े हिंदी अखबार समूह के मालिक ने भी गैस सब्सिडी छोड़ दी है और मध्य प्रदेश में 25 लोगों ने यही काम किया है.

विडम्बना देखिए कि देश का जो उद्यमी खुद गैस उत्पादन करने में लगा हुआ, वह भी गैस पर 340 रुपये प्रति सिलेंडर की सब्सिडी लेता है. यह कानून है और इसे बदलने के बजाय सरकार अपील जारी करके ऐसे लोगों के हृदय परिवर्तन की राह देख रही है. देश के तथाकथित उद्यमियों का पिछले साल 5,00,000 करोड़ रुपये का कर्ज माफ कर दिया गया. सरकार यह पैसा अगर इनसे वसूल ले तो देश में चार साल तक इसी धन से अनुदानित योजनाएं चलायी जा सकती हैं. इसलिए गरीबों के लिए चलाई जा रहीं योजनाओं को बंद करने की नहीं बल्कि अमीरों द्वारा उनके दुरुपयोग को रोकने की जरूरत है. इस दिशा में कदम उठाये जाएं तो सकारात्मक परिणाम निकलेंगे.

 

सुनील अमर


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