जवाबदेही लेकर ही जिंदा हो सकेगी कांग्रेस

Last Updated 01 Feb 2015 02:44:16 AM IST

अगर कांग्रेस हाईकमान लगातार चुनावी पराजयों, उससे पार्टी में मची भगदड़ों या असंतोष के कारणों पर आत्ममंथन कर वास्तव में कोई सबक लेना चाहता है तो जयंती नटराजन का इस्तीफा उसे एक सही सूत्र दे सकता है.


जवाबदेही लेकर ही जिंदा हो सकेगी कांग्रेस

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी व उपाध्यक्ष राहुल गांधी को बिना समय गंवाये जयंती के उठाये मुद्दों पर खुलेमन से गौर करना चाहिए. इसलिए कि जयंती कोई जीके वासन नहीं हैं, वह चार पीढ़ियों से नेहरू-गांधी परिवार और पार्टी के प्रति निष्ठावान रहे खानदान से ताल्लुक रखती हैं.

अब वही कह रही हैं कि कांग्रेस में शीर्ष स्तर पर बिना जवाबदेही के पद लिया जाना, कथनी-करनी के दोहरे मानदंड, गत्यात्मक नेतृत्त्व का अभाव, पार्टी में संवादहीनता की स्थिति और पीढ़ीगत बदलावों के प्रति सकारात्मक रवैया न अपनाया जाना ही उसकी बुरी गत के जिम्मेदार हैं. ये सभी तथ्य गंभीर हैं. इसलिए कांग्रेस हाईकमान ने अगर जयंती नटराजन के इस्तीफे को चुनावी मौसम में विपक्ष के इशारे पर तैयार की गई पटकथा भर माना तो वह फिर से बहुमत पाने या दमदार किरदार में बहुत देर से लौटेगी जिसकी एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में असरकारी विपक्ष के रूप में उससे अपेक्षा है.
जाहिर है कि कांग्रेस के सर्वोच्च नेतृत्त्व को जनता का विश्वास पाने के लिए इंतजार के अलावा कड़ा इम्तिहान देना होगा, उसे अपनी राजनीतिक शैली बदलनी होगी. ड्राइंगरूम की राजनीति से निकलकर जन सवालों को लेकर सड़क पर उतरना होगा.

राहुल गांधी को फुलटाइम राजनीति करनी चाहिए. देश के अहम् सवालों पर उनकी अपनी राय होनी चाहिए. ये कोशिशें ही कांग्रेस में जान डाल सकती हैं. कांग्रेस देश का मन पढ़ने और राजनीतिक परिस्थितियों के अनुरूप रणनीति बनाने में फिलहाल असफल रही है. दूसरे, नेतृत्त्व की अनिश्चय की स्थिति और आपसी गुटबंदी उसके लिए कोढ़ में खाज बन गई है. ऐसे में पार्टी में भगदड़ मच गई है. ऐसा इसलिए क्योंकि पार्टी की जिताऊ ताकत खत्म हो चली है और वर्तमान नेतृत्त्व से उसे बड़े करिश्में की उम्मीद नहीं दिख रही है. इसी निराशा ने चुनाव वाले राज्यों में बड़े-बड़े दिग्गजों को पाला बदलने के लिए मजबूर कर दिया है.

उन्हें लगने लगा है कि वहां (कांग्रेस) उनका भविष्य नहीं है. अभी दिल्ली विधानसभा चुनाव में पूर्व केन्द्रीय मंत्री कृष्णा तीरथ का भाजपा में जाना कुछ ऐसा ही है. तिस पर भी आलम यह है कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी राज्यों में पार्टी की बड़ी हार की तोहमत से बचने के लिए कम रैलियां कर रहे हैं. दिल्ली में दोनों की बमुश्किल दो-दो रैलियां हो रही हैं. यह उनके डर को समझने के लिए काफी है. ऐसे में पार्टी में भगदड़ होना स्वाभाविक है. एक कहावत है कि ‘ठहरा पानी सड़ने लगता है’. यदि कांग्रेस यथास्थितिवाद के झंझावात से जल्द निकलने की कोशिश करती नहीं दिखेगी तो इस पुरानी पार्टी के राजनीतिक तौर पर अप्रसांगिक होने से रोका नहीं जा सकेगा.

वैसे कांग्रेस की इस दुर्गति के लिए युवा और मिडिल क्लास की नाराजगी अहम् कारक है. घोटालों में फंसी मनमोहन सरकार अपने दूसरे कार्यकाल के उत्तरार्ध में अपने घोटालों की तपिश को ढकने में लगी रहीं. कई बार ऐसा हुआ जब भी यूपीए (दो) का कोई मंत्री भ्रष्टाचार में फंसा तो उसे पदोन्नति मिल गई. इससे जनता नाराज ही नहीं हुई बल्कि कांग्रेस से घृणा करने लगी. किन्तु सत्ता के अहंकार में पार्टी वह सच समझ ही नहीं सकी. इस दौर में रोजगार बढ़े ही नहीं बल्कि कम्पनियों ने अपने मुनाफे को बनाये रखने के लिए खूब छंटनी की. दूसरे, महंगाई ने मध्य वर्ग का जीना दुार कर दिया. आमजन को उसकी राजनीतिक शैली से लगने लगा कि वह सत्ता में बैठकर केवल लूट-खसोट कर रही है और यह उसकी कीमत पर हो रहा है. कांग्रेस यह भूल गई कि 21वीं सदी में युवा मतदाताओं की नई ताकत उभरी है. इस देश में लगभग दस करोड़ युवा 18 से 28 वर्ष के बीच हैं. भारत दुनिया में युवा शक्तिवाला पहला देश है जिसे आश्वासनों में नहीं, हकीकत में विश्वास है.

वह जो सपना देखता है उसे जमीं पर उतारना चाहता है. इसमें क्या मुश्किलें आती हैं, उनसे उसे कोई मतलब नहीं है. वह अपने सपनों को लेकर धैर्य रखने को तैयार नहीं है. उनका यह मानस कांग्रेस पढ़ नहीं पा रही है. जिस राहुल गांधी पर उन्हें जोड़ने की जिम्मेदारी थी, वह पूरी तरह विफल रहे. आज सोशल मीडिया पर उन्हें विभिन्न उपनामों से नवाजा और तंज कसा जा रहा है. विडम्बना यह है कि उनके रहते पार्टी कोई युवा चेहरा आगे बढ़ा ही नहीं सकती.

भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार बड़ा ही मारक मुद्दा रहा है. चाहे राजीव गांधी की सरकार रही हो, चाहे नरसिंह राव की. भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण ही पार्टी को पहले भी सत्ता गंवानी पड़ी है. इतिहास से सबक न सीखकर कांग्रेस ने वही गलती दुहराई है. मनमोहन सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों से जनता इतनी तंग आ चुकी थी कि उसे हाशिये पर ला दिया है. इस बार राजनीतिक हालात पहले जैसे नहीं है. केन्द्र में बहुमत की प्रभावी सरकार है. इसलिए कांग्रेस को लम्बा इंतजार करना होगा. जन सवालों पर आन्दोलन करना होगा और ऐसा जागरूक विपक्ष का आचरण करना होगा ताकि जनता उसकी पिछली गलतियों को भुला सके. क्या कांग्रेस में यह माद्दा बचा है. उसके युवराज के नेतृत्त्व में ऐसा संभव है?  फिलहाल यह लाख टके का सवाल है.

कांग्रेस की दुर्गति के लिए पार्टी में मां-बेटे (सोनिया-राहुल) के अलग-अलग सत्ता केन्द्र होना भी है. इसीलिए राहुल समर्थक धड़ा उन्हें पार्टी की कमान सौंपने की वकालत कर रहा है. ऐसे में पार्टी में भ्रम की स्थिति बनी हुई है. पार्टी पर पुराने नेताओं का इस कदर कब्जा है कि नये चेहरों के लिए कोई अवसर ही नहीं है. ऐसे में पार्टी में बदलाव के लिए एआईसीसी तथा राज्यों की कमेटियों में जमे पुराने नेताओं को भाजपा की तरह ही मार्गदर्शक मंडल बनाकर समायोजित करना चाहिए ताकि बदलाव की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जा सके.

बगैर बदले फिलहाल कांग्रेस का कोई भला होने वाला नहीं है. ऐसे में कांग्रेस में जान फूंकने के लिए नई सोच और आक्रामक नेतृत्त्व की जरूरत है ओैर उसके पास करिश्माई चेहरा नहीं है. उसका पूरा फोकस यूथ, मध्यवर्ग और किसानों पर होना चाहिए. इसलिए भी कि 2009 के चुनाव में मध्य वर्ग उसके साथ था जो 2014 में उससे छिटक गया है. युवा उससे पहले से ही नाराज था. इतना ही नहीं, उसकी तुष्टीकरण-नीति से भी बहुसंख्यक खफा है.

इस मामले में मनमोहन सरकार की कार्य शैली से आगे जन में यह संदेश गया कि कांग्रेस का फोकस एक वर्ग विशेष के प्रति है. वह उस वोट बैंक को हथियाने के लिए ऐसा कर रही है. चुनावी हार के बाद कांग्रेस अपनी इस नीति की विफलता को दबी जुबान स्वीकार कर रही है. ऐसे में उसे बिखरे मतों को समेटने के लिए नये सिरे से काम करना होगा क्योंकि उसके वोट प्रतिशत में लगातार गिरावट आ रही है.
 ranvijay_singh1960@yahoo.com

रणविजय सिंह
समूह संपादक राष्ट्रीय सहारा हिंदी दैनिक


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