बाजार की संस्कृति और गांधीवाद

Last Updated 30 Jan 2015 03:29:01 AM IST

ऐतिहासिक निंरतरता के बीच कई बार युगों के संदर्भ में ऐसा भी होता है जब हम किसी महापुरुष की हत्या करने के बाद सदियों पश्चाताप की आग में जलते रहते हैं.


बाजार की संस्कृति और गांधीवाद

ईसा को क्रास में चढ़ाने के बाद उन्हें पूजा गया, गैलीलियों की मृत्यु के सदियों बाद चर्च ने मांफी मांगी. उदाहरण बहुत से मिल जाएंगे. गांधी के साथ भी वही किया गया. गांधी के समकालीन उनके सहयोगी व शिष्यों ने ही उन्हें पिछड़ी हुई मानसिकता का व्यक्ति घोषित कर दिया था. गांधी देश के विभाजन के विरुद्ध थे. वे यूरोप की भांति बड़े पैमाने पर भारत में औद्योगीकरण नहीं चाहते थे. अपने को हिन्दू कहने के बाद भी वह हिन्दू-मुस्लिम एकता एवं जातिविहीन समाज की स्थापना करना चाहते थे.

वह समाजवाद- जिसका उन दिनों फैशन चल रहा था, के पक्षधर नहीं थे, किन्तु समृद्धता को नीचे से ऊपर की ओर ले जाना चाहते थे. हां, इन सारी स्थापनाओं के क्रियान्वयन के दौरान वे पूरी ईमानदारी व सचाई अर्थात सत्य व अहिंसा पर जोर देते थे. उनका ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त किंचित आदर्शवादी तो था किन्तु असंभव नहीं कहा जा सकता, जिसके अनुसार अमीरों को गरीबों का एक ईमानदार बैंक बन जाना चाहिए. उपरोक्त सभी मुद्दों पर गांधी अपने जीवनकाल में असफल रहे क्योंकि उनके सहयोगी नेहरू, पटेल आदि उनके व्यापक जनप्रभाव के कारण उनका विरोध तो नहीं करते थे परन्तु उन्हें एक अव्यावहारिक स्वप्नदर्शी व्यक्ति मानते थे.

हालांकि गांधी ने इस देश को जानने के लिए सबसे अधिक पदयात्रायें की थीं, गांव-गांव घूमे थे. जन-जन से मिले थे और सम्पूर्ण देश की नस (चाहत) को अच्छी तरह जानते थे. किन्तु गांधी आजादी पाने तक जिस हठधर्मी के साथ अपने सहयोगियों से अपनी बातें मनवाते रहे, वैसा वे बाद में नहीं कर पाये. उनकी इच्छा के विपरीत पाकिस्तान बना, देश विभाजित हुआ, जिसका खमियाजा हम आज भी भुगत रहे हैं और आने वाली सदियों में भी भुगतते रहेंगे.

गांधी के बरक्स नेहरू बड़े उद्योगों के पक्षधर थे. उन्होंने इसी के लिये प्रयास भी किया. वे शासन में बैठने के कुछ वषोर्ं तक समाजवादी रहे, साम्यवादी रूस से प्रभावित रहे परन्तु बाद में पश्चिम का अनुकरण करने लगे. इस मुद्दे पर देश के वामपंथी भी नेहरू के साथ थे. गांधी को वे एक अवैज्ञानिक, रूढ़िवादी व्यक्ति मानते थे. देश के विशाल औद्योगीकरण के कारण लघु उद्योग धंधे धीरे-धीरे समाप्त हो गये. आर्थिक उदारीकरण के द्वारा आई हुई बड़ी पूंजी छोटी पूंजी को खा गई.

सैकड़ों लोगों का काम सिर्फ एक मशीन से लिया जाने लगा. हजारों-लाखों लोग छटनी कर दिये गये, बेरोजगार हो गये. गांव में भी पूंजी की प्रधानता के कारण बड़े-छोटे का विभाजन स्पष्ट दिखाई देने लगा. छोटा जोतदार तथा भूमिहीन किसान भूखों मरने लगा किन्तु जमीनों का न्यायपूर्ण बंटवारा नहीं हो सका. आज गांव का भूमिहीन किसान और शहरों का दिहाड़ी मजदूर दोनों ही आत्महत्या करने को विवश हैं. काष, देश में छोटे-छोटे उद्योग फलफूल रहे होते तो इस समृद्व देश में एक वर्ग के लिए अकाल की स्थिति न बन पाई होती.

आज हम बुद्धिजीवियों को गांधी जी बड़ी शिद्दत से याद आ रहे हैं. हमारे युग को यह महसूस हो रहा है कि हमसे कहीं चूक अवश्य हो गई है. काश गांधी होते या उनकी नीतियों पर देश चल रहा होता तो आत्महत्याएं न होतीं. सामूहिक सांप्रदायिक नरसंहार न होते. गांधी किसी काम के क्रियान्वन की ईमानदारी पर बहुत अधिक जोर देते थे और उनके सहयोगी उनके आदर्शवादी अवदान की हंसी उड़ाते थे. व्यवस्था कोई भी हो, सामाजिक नियम कितने भी प्रगतिशील क्यों न हो, यदि व्यवहार में ईमानदारी नहीं बरती जाती है तो उसका परिणाम कभी सही नहीं होता. गांधी कहते थे कि जिस पौधे को आप हिंसा, घृणा, द्वेष या साम्प्रदायिकता के जल से सींचेंगे उसमें समता, ममता या स्नेह के फल-फूल कैसे खिल पाएंगे?

आज भारतीय समाज की स्थिति क्या है? भ्रष्टाचार एक लाइलाज मर्ज बन चुका है. हर जनहितकारी योजना भ्रष्टाचार के कारण असफल हो जाती है. लोकतंत्र, न्यायतंत्र, शासनतंत्र पूरी तरह भ्रष्टतंत्र बन चुके हैं. शासन पर काबिज लोग कुछ दिनों में ही अरबपति बन जाते हैं.

भ्रष्टाचार या घोटालों की खबरों से वर्ष भर अखबार रंगे रहते हैं. इसके लिए जो जांच आयोग बनाया जाता है वह स्वयं भ्रष्टाचार में डूब जाता है. प्रश्न उठता है तब क्या किया जाये? ज्ञात हो कि विश्व की प्रथम समाजवादी रूसी व्यवस्था अपने आन्तरिक भ्रष्टाचार के कारण ढह चुकी है. इससे यह प्रमाणित होता है कि व्यवस्था कोई भी हो, यदि उसे व्यवहार में उतारने वाला तंत्र भ्रष्ट है तो वह व्यवस्था कभी बहुजन हिताय व्यवस्था नहीं बन सकती.

आज हमें लगता है क्यों गांधी साधन व साध्य दोनों की पवित्रता पर जोर देते थे. वे आदर्शवादी होते हुए भी व्यावहारिक थे. कभी अपने आश्रम में उन्होंने एक कुष्ठ पीड़ित बछड़े को जिसे बचाया नहीं जा सकता था, मुक्ति के लिए गोली से मरवा दिया था. गांधी की अहिंसा जीव हत्या के पाप के डर की प्रतिक्रिया न होकर सम्पूर्ण मानवीय क्रिया-कलापों में मानवता की पक्षधर थी. मनुष्यता-द्रोही प्रतिरोध की सम्पूर्ण संस्कृति थी.

सत्य उनके दार्शनिक बिन्दुओं में ईश्वर हो सकता है किन्तु व्यवहार में एक ईमानदारना ढंग था. आज गांधी को वे भी याद कर रहे हैं जो कल तक उन्हें गलत समझते थे. मजे की बात यह है कि जो गांधी को आज भी नहीं मानते वे गांधी को महामानव या महात्मा कहते हैं. किसी व्यक्ति के विचारों को हाशिये पर डालने का एकमात्र तरीका यही है कि उसे पूजायोग्य घोषित कर मंदिर या कमरे में बंद कर दिया जाये. आज यही हो रहा है.

गांधी स्वयं को हिन्दू कहते थे और धार्मिक व्यक्ति घोषित करते थे, किन्तु उनका हिंदुत्व व धार्मिकता सम्पूर्ण मानवता के पक्ष में थी. यही कारण है कि एक कट्टर धार्मिक ने उन्हें गोली मार दी. यह भी कहा जा सकता है कि कथित आजादी के बाद इस राष्ट्र ने अपने राष्ट्रपिता की उपेक्षा की. अपने स्वाथोर्ं में बटे या वगोर्ं में विभाजित भारतीय समाज ने उन्हें समझते हुए भी ठीक से नहीं समझा.

तभी उनकी मृत्यु के अवसर पर उनके चंद समर्थकों ने कहा था गांधी ठीक समय पर मर गये और अपनी अस्मिता बचा गये क्योंकि भविष्य के रंग-ढंग में उनकी और भी उपेक्षा हो सकती थी. आज देश का आम-आदमी या आम-आदमी का पक्षधर बुद्विजीवी- अपनी गलती स्वीकारते हुए, अपने रहनुमा को याद कर रहा है और इस कथित विश्व ग्राम-व्यवस्था के दौर में भारतीय ग्रामों का समूल विकास चाहने वाले गांधीवादी विचारों की प्रांसंगिकता का अनुभव कर रहा है.

डॉ प्रभा दीक्षित
लेखक


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