जनमत संग्रह की सार्थकता पर सवाल

Last Updated 29 Jan 2015 03:40:46 AM IST

दिल्ली में सात फरवरी को मतदान होने वाला है, और इस बीच खबरिया चैनलों के बीच जनमत संग्रह की होड़ मची है.


जनमत संग्रह की सार्थकता पर सवाल

बीते सालों से चुनाव आयोग जनमत संग्रह पर अंकुश लगाने के लिए प्रयासरत है, लेकिन उसे अब तक अनुकूल सफलता नहीं मिल पाई है. गलाकाट प्रतिस्पर्धा के इस युग में सभी खबरिया चैनल अपना टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग पॉइंट) बढ़ाना चाहते हैं क्योंकि इसी के आधार पर उन्हें विज्ञापन मिलते हैं जो उनके मुनाफे का आधार होते हैं. जाहिर है, कोई भी चैनल जनमत संग्रह कराने की होड़ में पीछे नहीं रहना चाहता है और इसीलिए, चुनाव आयोग की तमाम कोशिशों के बाद भी चैनलों के रुख में बदलाव नहीं आ रहा है.

देश में अपनी बात को रखने या साबित करने के लिये लोग अक्सर खबरों का सहारा लेते हैं. खबरों के आधार पर सत्ता तक बदल जाती है. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आने के बाद से तो मीडिया के प्रभाव एवं दायरे में अभूतपूर्व इजाफा हुआ है. पुलिस या सीबीआई भी खबरों को अपने अनुसंधान का जरिया बनाती है. इतना ही नहीं, न्यायालयों के द्वारा भी खबरों को आधार बनाकर फैसला देने के मामले देखे गये हैं.  ऐसे में चुनाव के हिसाब से भ्रामक खबरों से मतदाता का प्रभावित होना लाजिमी है. पेड न्यूज, झूठा प्रचार-प्रसार और सच्चाई से परे आकलन के प्रसारण-प्रकाशन से गलत उम्मीदवार व पार्टी के सत्ता में आने की आशंका बढ़ जाती है. इन कारणों से पार्टी विशेष की लहर चलती है या एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर काम करता है और इस तरह की लहर या एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर की आंधी में विचार या तर्क के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता है.

अपने देश में वास्तविक साक्षरों की संख्या बहुत कम है. यहां बड़े स्तर पर जाति व धर्म के आधार पर चुनाव प्रभावित होता है. इस एक आधार पर अमूमन, उम्मीदवार की ईमानदारी या उसके द्वारा किये गये विकास से जुड़े काम को तरजीह नहीं दी जाती है, जिसका फायदा बाहुबली या छद्म विकास का दावा करने वाले पार्टियां उठा ले जाती हैं.

वैसे, जनमत संग्रह को लेकर पार्टयिों में परस्पर विरोधाभासी विचारधारा भी देखी जा सकती है. जिस पार्टी को जनमत संग्रह में विजयी बताया जाता है, वह तो जनमत संग्रह के पक्ष में रहती है, जबकि पराजित बताई जाने वाली पार्टी उसका पुरजोर विरोध करती है. भले ही राजनीतिज्ञ दलों के विचारों में इसे लेकर विरोधाभास हो, लेकिन चुनाव पूर्व के सर्वेक्षण से मतदाता प्रभावित होते हैं, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है.   

समग्रता में देखें तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आगाज के बाद से जनमत संग्रह का चलन ज्यादा ही बढ़ा है, जिसका कारण टीआरपी और मीडिया घरानों का राजनीतिक दलों से निकटता होना माना जाता है. वर्तमान में कॉरपोरेटस या नेतागण सभी मीडिया की ताकत के आगे नतमस्तक हैं. दक्षिण भारत के अधिकांश अखबारों व खबरिया चैनलों के मालिक नेता हैं तो उत्तर भारत में कार्पोरेट्स. जाहिर है, अगर मीडिया घराने का मालिक नेता है तो वह निश्चित रूप से जनमत संग्रह में अपनी पार्टी का समर्थन करेगा. इसी तरह यदि जनमत संग्रह कराने वाले मीडिया घराने का मालिक कारोबारी है तो वह पार्टी विशेष का समर्थन करेगा.    

दूसरे परिप्रेक्ष्य में देखें तो जनमत संग्रह के परिणाम के सही होने की संभावना न्यून ही होती है, क्योंकि जनमत संग्रह सैंपल बेसिस पर कराया जाता है. जनमत संग्रह में आमतौर पर दो-चार शहरों के कुछ लोगों का मत लिया जाता है, लेकिन उसका प्रचार-प्रसार देश की जनता के रुझान के रूप में किया जाता है, जिसे सही नहीं माना जा सकता है. कहा जाता है कि अमुक पार्टी के चुनाव में जीतने की संभावना अधिक है. इस तरह की खामियों की वजह से जनमत संग्रह के परिणाम गलत होने के मामले देखे गये हैं.

गौरतलब है कि मई, 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी को इतना जबर्दस्त बहुमत मिलने का आकलन किसी भी खबरिया चैनल ने नहीं किया था और हाल ही में संपन्न विधानसभा चुनावों में कराये गये जनमत संग्रह का भी यही हाल था. यह भी देखा गया है कि हर चैनल का आकलन अलग-अलग होता है. मजेदार बात यह है कि जनमत संग्रह में व्याप्त इस तरह के विरोधाभास का खुलासा करने में न तो किसी चैनल की कोई दिलचस्पी होती है और न ही वह इस मुद्दे पर बहस करना चाहता है.  

भारत एक विकासशील देश है. यहां विकास के सभी मानक आज भी अधूरे हैं. गरीबी के कारण शिक्षा की स्थिति बुरी है. संसाधनविहीन साक्षर आबादी अपना भला-बुरा नहीं सोच पा रही है. वह सिर्फ  कहने भर के लिए साक्षर है. जनप्रतिनिधि चुनने के तार्किक मानक ऐसे लोगों के पास नहीं हैं. अक्सर सुनने-देखने में आता है कि मतदाता छोटे-मोटी चीजों या महज सौ पचास रुपये के लालच में अपना मत बेच देते हैं. क्योंकि उन्हें उम्मीदवार की योग्यता की परख नहीं होती है इसलिए जो तत्कालिक मदद कर देते हैं, वह ईमानदारी से उन्हें ही अपना मत दे देते हैं. डर की वजह से भी अक्सर वह ऐसा करते हैं और गलत या झूठे प्रचार-प्रसार के मायाजाल में फंस जाते हैं.

इन सबसे इतर, आबादी का एक बड़ा तबका आज भी मतदान करने से परहेज करता है. इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो बिना तर्क की कसौटी पर कसे मतदान करने वाले लोगों की संख्या भारत में बहुत अधिक है, जो बताता है कि हमारे देश की जनता अपरिपक्व एवं राजनीतिक आडम्बरों से अनजान है. इन कमियों के कारण जनप्रतिनिधि का चुनाव गुणवत्ता के आधार पर नहीं हो पाता है. जाति एवं धर्म अक्सर जनता के निर्णय को प्रभावित करता है. 

कुल मिलाकर भले ही जनमत संग्रह (सेफोलॉजी) को विज्ञान का दर्जा दिया गया है और इसके विशेषज्ञ को सेफोलॉजिस्ट माना जाता है, लेकिन भारत के सन्दर्भ में इस विज्ञान की कोई उपयोगिता नहीं है. कारण, भारत विशाल जनसंख्या वाला विविध संस्कृतियों, धर्मो और भाषाओं का देश है और यहां इस तरह का जनमत संग्रह कराना  व्यावहारिक नहीं दिखता है. इस आलोक में जनमत संग्रह के पैमानों को भी भरोसेमंद नहीं माना जा सकता है. इस तरह के विज्ञान की उपयोगिता विकसित देशों में तो हो सकती है, लेकिन भारत में ऐसे जनमत संग्रह के परिणाम सही होने की उम्मीद करना बेमानी है. लब्बोलुबाव यही है कि चुनाव पूर्व जनमत संग्रह कराने से मतदाताओं का प्रभावित होना लाजिमी है, जो निश्चित रूप से सच्चे लोकतंत्र के लिये घातक है, क्योंकि लोकतंत्र में गुप्त मतदान का प्रावधान है. अत: मीडिया को इस तरह के जनमत संग्रह से परहेज करना चाहिए.

सतीश सिंह
लेखक


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