भारत से दोस्ती अमेरिका की जरूरत

Last Updated 26 Jan 2015 04:21:02 AM IST

सितम्बर 2013 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने स्टेट ऑफ द यूनियन संबोधन में कहा था- 'जी हां, दुनिया बदल रही है. नहीं, हम हर घटना को नियंत्रित नहीं कर सकते.


अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का स्वागत करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी.

लेकिन अमेरिका वैश्विक मामलों में एक अपरिहार्य राष्ट्र बना रहेगा और जब तक मैं राष्ट्रपति हूं, मैं इसे इसी रास्ते पर बनाए रखना चाहता हूं. कोई व्यक्ति जो आपसे इसके विपरीत बातें करता है, जो व्यक्ति आपसे यह कहता है कि अमेरिका गिरावट की ओर है या हमारा प्रभाव घटा है, उस व्यक्ति को यह नहीं पता है कि वह क्या कह रहा है. यह वह बात नहीं है जो हमें दुनिया के नेताओं से सुनने को मिलती है, वे सभी हमारे साथ काम करने को उत्सुक हैं. यह वह बात नहीं है जिसे टोक्यो से बर्लिन तक, केपटाउन से रियो तक के लोग महसूस करते हैं, जहां अमेरिकी विचार ऊंचाई पर हैं.\' इस संबोधन में मूलत: तीन बातें निहित हैं जिसमें से दो बातें बेहद महत्वपूर्ण हैं. पहली यह कि बदल रही दुनिया में अमेरिका प्रत्येक घटना को नियंत्रित करने की क्षमता अकेले नहीं रखता बल्कि उसे अच्छे साथियों की जरूरत होगी, और दूसरी यह कि ओबामा प्रत्येक स्थिति में अमेरिकी प्रभाव कम न होने देने के लिए प्रतिबद्ध हैं. इससे यह संदेश भी मिलता है कि अमेरिका को ऐसी चुनौतियां मिल रही हैं जो उसके प्रभाव को कम कर सकती हैं. संभवत: यही कार्य-कारण संबंध अमेरिका के लिए भारत को अपरिहार्य बना रहे हैं. लेकिन सवाल यह यह उठता है कि क्या भारतीय राजनय भी इस स्थिति से वाकिफ है? 

दरअसल, पिछले डेढ़ दशक से अमेरिका जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है, वे समाप्त होने की बजाए और विकृत व जटिल रूप धारण कर गई हैं. अमेरिका दो दशक पूर्व (सोवियत संघ के पतन के पश्चात) यह मानने लगा था कि वह अकेले ही इन चुनौतियों से निपटने में समर्थ है, लेकिन 9/11 के बाद उसे यह एहसास हो गया कि \'वार इनड्यूरिंग फ्रीडम\' उसके अकेले के वश में नहीं है. इसलिए उसने अपने पुराने कुनबे को नाटो के झंडे के नीचे एकत्रित कर युद्ध लड़ा लेकिन फिर भी वह इसमें पूरी तरह से सफल नहीं हो पाया. साथ ही इसके समाप्त होने से पहले ही वह आर्थिक मंदी की चपेट में आ गया जिसका विस्तार बाद में यूरोप तक हुआ. इसका प्रभाव उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) पर भी पड़ा और उसके बिखरने की संभावनाएं बनने लगीं. कारण यह कि नाटो के सदस्य देशों की आर्थिक स्थिति में आई गिरावट के कारण रक्षा पर व्यय की उनकी क्षमता घट गई. कनाडा और अमेरिका को छोड़कर अधिकांश नाटो सदस्यों ने अपने रक्षा बजट को कम करने की योजना बना डाली. ऐसे में अमेरिका के सामने नए दोस्त तलाशने की चुनौती आ गई. स्वाभाविक तौर दुनिया की तीसरी अथवा चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था, दुनिया का सबसे बड़ा जनसांख्यिकी लाभांश वाला देश, दुनिया का सबसे बड़ा बाजार व मध्यम वर्ग धारक और दुनिया के सबसे बड़े हथियार खरीददार भारत से अच्छा मित्र और कोई नहीं मिल सकता.

अमेरिका के समक्ष आज भी सबसे अहम चुनौती तो आतंकवाद ही है. रॉयल यूनाइटेड सर्विसेज इंस्टीट्यूट, इंटरपोल और संयुक्त राष्ट्र की अध्ययन रिपोर्टों सहित तमाम अंतरराष्ट्रीय खुफिया एजेंसियों और संस्थाओं द्वारा जुटाए गए आंकड़े बताते हैं कि \'ग्लोबल जिहाद\' अब एक बड़ी ताकत बन चुका है जिसका नेतृत्व इस समय आईएस कर रहा है. आईएस के साथ अलकायदा इन इस्लामिक मगरिब (एक्यूआईएम), बोको हराम, अल-शबाब, हिजबुल्ला, अलकायदा, हक्कानी, अफगान तालिबान और तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान सहित दुनिया भर के 80 देशों के जिहादी संगठन किसी न किसी रूप से जुड़ चुके हैं. पूरी आशंका है कि इस्लामी जिहाद आने वाले समय में और खतरनाक होगा. हो सकता है कि यह अपनी विचारधारा की प्रकृति के कारण सर्व-इस्लाम से स्वयं को जोड़ ले जाए और भाड़े के आतंकियों के जरिए अपने उद्देश्य को पूरा करे यानी अमेरिका के खिलाफ वैश्विक युद्ध लड़े. इस स्थिति में भारत ही अमेरिका का स्वाभाविक रणनीति सहयोगी बन सकता है, पाकिस्तान या कोई अन्य एशियाई देश नहीं. चूंकि आतंकवाद भारत के लिए भी एक बड़ी चुनौती है, इसलिए परस्पर हितों के पोषण का पक्ष भी यहां मौजूद होगा.

जिहादी ताकतों की तरफ से मिल रही चुनौती के अतिरिक्त अमेरिका को तीन क्षेत्रों से रणनीतिक चुनौतियां मिल रही हैं जिनके चलते अमेरिका के वैश्विक वर्चस्व और उसकी अपरिहार्यता पर प्रश्नचिह्न लग सकता है. ये क्षेत्र हैं- एशिया-प्रशांत, मध्य-पूर्व और फारस की खाड़ी तथा यूरेशिया. एशिया-प्रशांत क्षेत्र अमेरिका के लिए कितना महत्वपूर्ण है, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि अमेरिका वर्ष 2020 तक एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अपने 60 प्रतिशत युद्धपोत तैनात करने की तैयारी कर चुका है. लेकिन इस रक्षात्मक तैयारी के बावजूद अमेरिका चीनी गतिविधियों को रोकने में समर्थ नहीं हो पाएगा. यही कारण है कि ओबामा के पिछले कार्यकाल में विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन और उनकी एशिया टीम ने जापान, दक्षिण कोरिया और आस्ट्रेलिया के साथ अमेरिकी गठबंधन में भारत को शामिल करने का सुझाव दिया था. कारण यह है कि भारत के इसमें शामिल होने पर अमेरिका चीनी ताकत को तीन तरफ से काउंटर करने में सफल हो सकता है.

जहां तक मध्य-एशिया या फारस की खाड़ी में अमेरिकी रणनीति का मसला है तो वहां अमेरिका कम से कम ईरान और सीरिया के मुद्दे पर सफल नहीं हो पाया. इसकी वजह रहे चीन और रूस. अमेरिका जानता है कि एक तो भारत के ईरान के साथ परंपरागत रिश्ते हैं और दूसरी तरफ वह चीन और रूस के साथ मिलकर ब्रिक्स में एक बेहद निर्णायक भूमिका में है जो आने वाले समय में चीन और रूस को वृहत्तर आधार दे सकता है. वह यह भी जानता है कि रूस के साथ भारत के शीतयुद्ध काल से ही रणनीतिक रिश्ते हैं जिनकी जड़ें बहुत गहरी हैं. इस स्थिति में अमेरिका यदि भारत की आर्थिक व सामरिक जरूरतें पूरी कर देता है तो संभव है कि \'रिक ट्रैंगल\' (रूस-भारत-चीन त्रिकोण) निर्मित करने वाले बल (फोर्सेज) कुछ कमजोर पड़ जाएं.

एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि अमेरिका के यूरोपीय साथी चीन के सामने तो कभी-कभी आत्मसमर्पण की मुद्रा में दिखते हैं. ऐसे में अमेरिका को एक ऐसा साथी चाहिए जो चीन के सामने समर्पण की मुद्रा का प्रदर्शन न करे बल्कि उसका प्रतिद्वंद्वी बन सके. इस मानदंड पर केवल भारत ही खरा उतर पा रहा है. अगर यूक्रेन को लेकर रूस के साथ अमेरिका और पश्चिमी देशों का टकराव बढ़ता है तो शीतयुद्ध जैसी स्थिति एक बार फिर बनेगी. उस स्थिति में अमेरिका के पास दक्षिण एशिया में कोई भी विस्त ताकतवर साथी नहीं होगा. यहां पर भी उसके लिए भारत ही एकमात्र विकल्प नजर आता है.
कुल मिलाकर अमेरिका को भारत की जरूरत है. इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि भारत को अमेरिका की जरूरत नहीं है. ओबामा के टोक्यो-बर्लिन-केपटाउन-रियो चतुर्भुज में भारत ही \'स्ट्रैटेजिक न्यूक्लियस\' साबित हो सकता है.
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)

 

रहीस सिंह
लेखक


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