हमारे गणतंत्र की अधूरी तस्वीर

Last Updated 26 Jan 2015 04:01:04 AM IST

छब्बीस जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ. संविधान की भावना के अनुरूप आज भारत एक प्रभुतासंपन्न गणतंत्रात्मक धर्मनिरपेक्ष समाजवादी राज्य है.


गणतंत्र की परेड़ (फाइल फोटो)

देश में संविधान का शासन है. संसद सर्वोच्च है. देश स्वतंत्र होने के बाद पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि हमें अपने राष्ट्रीय लक्ष्य के बारे में गलतफहमी नहीं रखनी चाहिए. हमारा उद्देश्य एक शक्तिशाली, स्वतंत्र और जनतंत्री भारत है. इसमें प्रत्येक नागरिक को समान स्थान, विकास और सेवा के लिए समान अवसर मिलेगा. भारत में अलग रहने की नीति, छुआछुत, हठधर्मिता और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का स्थान नहीं होगा. लेकिन सवाल यह है कि क्या आजादी के साढ़े छह दशक बाद हम इन लक्ष्यों को हासिल कर पाएं हैं? क्या समाज में व्याप्त छुआछुत और शोषण को मिटाया जा सका है? क्या हाशिए पर खड़े लोगों को वाजिब अधिकार मिला है? क्या गैर-बराबरी खत्म हुई है? क्या महिलाओं के प्रति समाज के नजरिए में सार्थक बदलाव आया है? क्या भारत शक्तिशाली और जनतंत्री राष्ट्र के रूप में स्थापित हुआ है? क्या देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा मजबूत हुई है? ऐसे ढेरों सवाल हैं जो आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी खड़े हैं.

इसमें दो राय नहीं कि आजादी मिलने के उपरांत इन बीते दशकों में भारत ने भरपूर उन्नति की है. मसलन कृषि उत्पादकता बढ़ी है. उद्योग-धंधों का विस्तार हुआ है. संचार के क्षेत्र में क्रांति आई है. सामाजिक सेवाओं का दायरा बढ़ा है. लेकिन क्या इन उपलब्धियों से संतुष्ट हुआ जा सकता है? क्या यह सच नहीं है कि जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, नक्सलवाद, अलगाववाद, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी जैसी समस्याएं पहले से सघन हुई हैं. इससे कैसे मुंह मोड़ा जा सकता है कि देश की एक बड़ी आबादी आज भी जीने के मूलभूत अधिकारों से वंचित है. उनके लिए दो जून की रोटी, पीने का स्वच्छ पानी, तन ढंकने को कपड़ा और सिर छिपाने को मकान नहीं है. जबकि प्रत्येक पंचवर्षीय योजनाओं में इन बुनियादी सुविधाओं को उपलब्ध कराने का वादा किया जाता रहा है.

तमाम आर्थिक सुधारों और लोकोपयोगी योजनाओं के बाद भी गरीबी में कुछ खास कमी नहीं आई है. विश्व के कुल 42 फीसद गरीबों में सर्वाधिक संख्या भारतीयों की है. देश की 70 फीसद आबादी 20 रुपए रोजाना पर गुजर कर रही है. भूखमरी, कुपोषण और उचित इलाज के अभाव में हर साल ढाई करोड़ बच्चे जन्म के कुछ माह के अंदर ही दम तोड़ देते हैं. पांच साल की उम्र के बच्चों में 43 फीसद अंडरवेट हैं. उचित इलाज के अभाव में 20 वर्ष से कम उम्र की 50 फीसद महिलाएं प्रसव के दौरान मौत के मुंह में चली जाती हैं. विश्व की 40 फीसद कुपोषित आबादी भारत में है. आखिर इस आर्थिक असमानता, गैर-बराबरी और बदतर स्वास्थ्य प्रणाली पर देश कैसे इतरा सकता है?

शिक्षा के क्षेत्र में कुछ कम भयावहता नहीं है. शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद भी प्राथमिक शिक्षा की बदहाली बनी हुई है. निजी स्कूल गरीब बच्चों को शिक्षा देने को तैयार नहीं हैं. विश्वविद्यालयों और कालेजों में जरूरी संसाधनों और अध्यापकों की भारी कमी है. दुनिया के शीर्ष 100 विश्वविद्यालयों की सूची में भारत का एक भी विश्वविद्यालय शामिल नहीं हैं. यह रेखांकित करता है कि प्रजातंत्र की दुहाई देने वाले राजनीतिक दल, सत्तासीन सरकारें और प्रशासनिक व्यवस्था संभाल रही नौकरशाही की ओर से समुचित जिम्मेदारियों का निर्वहन नहीं हुआ है. इसकी प्रमुख कारण अनैतिकता और भ्रष्टाचार है. स्वतंत्र भारत के प्रारंभिक चरण में अनैतिकता एवं भ्रष्टाचार के मामले अपवाद स्वरूप ही मिला करते थे. जिन मंत्रियों के ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लगते थे, वे तत्काल इस्तीफा दे देते थे. लेकिन आज नेता अपराधी घोषित होने के बाद भी सत्ता सुख भोगने से वंचित नहीं रहना चाहते. नतीजा सामने है. भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल रहा है. यह तथ्य भी उजागर हुआ है कि भ्रष्टाचारी नेताओं और नौकरशाहों का लाखों-करोड़ रुपए का काला धन विदेशी बैंकों में जमा है. एक अरसे से नागरिक समाज भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए लोकपाल की मांग कर रहा है. लेकिन अब तक लोकपाल वजूद में नहीं आ पाया है.

पारदर्शिता के प्रति हमारे राजनीतिक दलों के आग्रह का यथार्थ यह है कि उन्हें खुद सूचना अधिकार कानून के दायरे में आना भी पसंद नहीं है. यह भी पसंद नहीं है कि दागी और अपराधी किस्म के लोगों को चुनाव लड़ने से रोका जाए. इसी का कुपरिणाम है कि आज संसद में जनता के सच्चे नुमाइंदों की जगह तमाम ऐसे लोग जा पहुंचे हैं जिन पर भ्रष्टाचार और अपराध के संगीन आरोप हैं. क्या ऐसे लोगों के हाथों में देश सुरक्षित रह सकता है? ऐसे लोग सकारात्मक बदलाव के संवाहक कैसे बन सकते हैं? विडंबना है कि जिस राजनीति को सेवा धर्म समझा जाता है, वह आज व्यवसाय बन चुकी है. लिहाजा राजनीतिक दलों में सत्ता पर काबिज होने की होड़ मची है. वे सत्ता के लिए देश-समाज को खंडित कर रहे हैं.

आजादी के संघर्ष के दौरान में शायद ही कभी किसी नेता की जुबान से बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक शब्द सुनने का मिला हो. लेकिन इन 67 सालों में नेताओं ने अपने धत्कर्म से देश को लहूलुहान कर दिया है. वोटयुक्ति के लिए देश को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक में विभाजित कर दिया गया है. मजहब के नाम पर आरक्षण की वकालत की जा रही है. दुर्भाग्य यह कि जिस युवा पीढ़ी के कंधे पर देश की जिम्मेदारी है, उन्हें राजनेताओं द्वारा प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, लेकिन वे उन्हें आरक्षण के सवाल पर उलझाए रखते हैं. सच तो यह है कि इन साढ़े छह दशकों में संकीर्ण और स्वार्थी राजनीति ने अपने लाभ की पूर्ति के लिए देश को बर्बाद करने में कोई कसर छोड़ी नहीं है.

इसी का नतीजा है कि आज देश नक्सलवाद, अलगाववाद, आतंकवाद और क्षेत्रीयता जैसी गंभीर समस्याओं से जूझ रहा है. आज की तारीख में नक्सलवाद से डेढ़ दर्जन से अधिक राज्य पीड़ित हैं. नक्सली हमलों में हजारों लोग मारे जा चुके हैं. लेकिन अभी तक उन पर काबू पाने का कोई ठोस तंत्र विकसित नहीं किया जा सका है. आतंकवाद से निपटने की प्रतिबद्धता भी चकनाचूर हुई है. जम्मू-कश्मीर से लेकर सुदुर पूर्वोत्तर तक आतंकवाद और अलगाववाद की आग में झुलस रहा है. आतंकी और अलगाववादी शक्तियां लगातार देश को तोड़ने की कोशिश कर रही हैं. लेकिन विडंबना है कि देश के हुक्मरान अभी तक इस तरफ उदासीन ही रहे हैं. नतीजा यह है कि देश की सीमाएं सुरक्षित नहीं रह गई हैं. चीन लगातार भारतीय भूमि को अतिक्रमित करने की फिराक में रहता है. पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद देश को लहूलुहान कर रहा है. छोटे पड़ोसी मुल्क मसलन नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका और मालदीव भी आंखें तरेरते रहे हैं.

पिछले आम चुनाव में पहली बार कोई गैरकांग्रेसी सरकार पूर्ण बहुमत से आई है. उसके बाद से समस्याओं और चुनौतियों को लेकर सरकारी नजरिया बदलता दिख रहा है. देखना है कि बदलाव के नाम पर आई यह सरकार हालात को कितना बदल पाती है.

 

अरविंद जयतिलक
लेखक


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