हार से बेजार ’हाथ‘ को चाहिए गठबंधन का साथ

Last Updated 28 Dec 2014 04:47:18 AM IST

देश पर सबसे लंबे समय तक राज करने वाली कांग्रेस की चुनावी हार का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है.


हार से बेजार ’हाथ‘ को चाहिए गठबंधन का साथ

झारखंड, जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव में भी उसकी जो हार हुई है, वह अकल्पनीय है. झारखंड में वह दहाई का अंक भी नहीं छू सकी है, तो जम्मू-कश्मीर में वह चौथे स्थान पर पहुंच गई है. इन दोनों राज्यों में उसकी गठबंधन की सरकार थी. अब ये राज्य भी उसके हाथ से खिसक गए हैं. गठबंधन की राजनीति से अलग होना उसे काफी भारी पड़ा है. महाराष्ट्र जैसी ही गलतियां उसने इन राज्यों में भी गठबंधन की राजनीति से अलग होकर की हैं. किंतु पार्टी नेतृत्व इन चुनाव परिणामों से कुछ सीखने को तैयार नहीं है. फलत: ‘एकला चलो’ की चुनावी रणनीति ने उसे इन दोनों राज्यों में चौथे नंबर की पार्टी बना दिया है.
कांग्रेस आज जिस मुकाम पर खड़ी है, उसकी उसे भी कभी कल्पना नहीं रही होगी. लगभग चौदह महीनों में वह बारह चुनाव हार चुकी है.

आजादी के बाद पहली बार वह देश के दस प्रतिशत हिस्से में ही सिमट कर रह गई है. अब नौ राज्यों में ही उसकी सरकार है, जिनमें कर्नाटक ही एक बड़ा राज्य है. शेष सभी छोटे राज्य हैं. इनमें पांच पूर्वोत्तर के राज्य शामिल हैं. कर्नाटक, केरल, उत्तराखंड और हिमाचल में उसकी अंतर्कलह, कुशासन तथा भ्रष्टाचार की कहानियां उसकी सत्ता से बेदखली का अध्याय लिख रही हैं. उल्लेखनीय है कि साल भर पहले तक कांग्रेस शासित राज्यों के कब्जे में देश की पचास प्रतिशत जीडीपी थी, जो अब सिमट कर केवल चौदह प्रतिशत के करीब ही रह गई है और देश की कुल दस प्रतिशत आबादी तक ही उसकी सत्ता का साम्राज्य सिमट कर रह गया है, जो भाजपा के ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के नारे को तेजी से चरितार्थ करने की ओर बढ़ रहा है.

किंतु पार्टी नेतृत्व चुनावी हार के कारणों की जमीनी हकीकत समझने और उसके अनुरूप रणनीति बनाने में नाकाम रहा है. फलत: भाजपा अब कांग्रेस से बड़ी पार्टी बन गई है और अब दस राज्यों में उसकी अपनी सरकार है. इस तरह भाजपा शासित इन राज्यों के कब्जे में देश की 46 प्रतिशत जीडीपी है तथा इन राज्यों की कुल आबादी लगभग 39 प्रतिशत के करीब है. ऐसे में कांग्रेस को हार के बाद बैठकों की रस्मी राजनीति से ऊपर उठकर सियासत की जमीनी हकीकत को समझना चाहिए. किंतु वह अब भी अपने पुरातन इतिहास के अहंकार में डूबी हुई है. फलत: लगातार हार से उसके कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटता जा रहा है.

कांग्रेस आज जहां खड़ी है, उसे समझना चाहिए कि उसकी यह दुर्गति क्यों हुई है? इन दोनों राज्यों (जम्मू-कश्मीर और झारखंड) में गठबंधन से अलग होना उसके इस पराभव का सबसे बड़ा कारण रहा है. यह सच है कि जनता में उसके खिलाफ माहौल था, फिर भी यदि वह झामुमो के साथ गठबंधन नहीं तोड़ती तो इस दुर्गति को नहीं पहुंचती. कांग्रेस ने अपने अहम और नेताओं की स्वार्थपरक राजनीति के कारण गठबंधन तोड़ा, जबकि राज्य के प्रभारी लगातार गठबंधन की वकालत कर रहे थे. इसी रणनीतिक चूक के कारण झारखंड में भाजपा को यादगार सफलता मिली है. यदि चुनाव में मिले कांग्रेस और उसके सहयोगी राजद व जदयू के मतों के साथ झामुमो के मतों को जोड़ दिया जाए तो वह 35  प्रतिशत बैठता है, जबकि भाजपा तथा उसकी सहयोगी आजसू का भी कुल वोट प्रतिशत भी इसके आसपास ही है. यदि कांग्रेस झामुमो से चुनावी गठबंधन नहीं तोड़ती तो उसके विधायकों की संख्या बाबूलाल मरांडी के झाविमो से भी कम नहीं होती. फिर भाजपा को यह सफलता भी नहीं मिलती. इसी तरह जम्मू-कश्मीर में वह नेशनल कांफ्रेंस के साथ छह साल तक सरकार में रही.

किंतु चुनाव में वह उसके साथ गठबंधन बनाने में नाकाम रही. कांग्रेस यहां भी अपने असल राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी की पहचान करने में चूक गई. उसे लगा कि नेकां के खिलाफ एंटी इंकंबेंसी है और नेकां, पीडीपी और भाजपा के बीच त्रिकोणात्मक संघर्ष में सत्ता की चाभी उसके पास ही होगी. किंतु यहां भी हुआ इसके उलट. नेकां उससे बड़ी पार्टी बन गई है और किंगमेकर की भूमिका में आ गई है और कांग्रेस वहां भी कुछ खास नहीं कर सकी. यदि राहुल गांधी, उमर अब्दुला से अपने व्यक्तिगत संबंध को राजनीतिक संबंध में तब्दील करने में सफल होते तो भाजपा को यह सफलता नहीं मिलती. नतीजों पर गौर करें तो नेकां को 15 और कांग्रेस को 12 सीटें मिली हैं, जबकि दोनों पार्टियां 51 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही हैं.

यदि चुनाव पूर्व गठबंधन होता तो दोनों मिलाकर 17 और सीटें जीतते. किंतु कांग्रेस की ‘एकला चलो’ राजनीति के कारण ही इन सत्रह सीटों में ग्यारह पर पीडीपी और छह पर भाजपा ने जीत दर्ज की है और अब कांग्रेस वहां चौथे नंबर की पार्टी हो गई है तथा वहां की राजनीति में अप्रासंगिक होने के कगार पर पहुंच गई है. इसलिए वह भाजपा को रोकने के लिए पीडीपी को बिना शर्त समर्थन देने का ढोल पीट रही है. यह स्थिति उसके राजनीतिक दिवालिएपन की कहानी कह रही है. दुखद यह है कि महाराष्ट्र में भी कांग्रेस एनसीपी के साथ गठबंधन में थी. वहां भी कुछ सीटों को लेकर ही उसका गठबंधन टूटा था. उस समय भी कांग्रेसी रणनीतिकारों को लगा था कि एनसीपी बीजेपी के इशारे गठबंधन तोड़ रही है, इसलिए ज्यादा झुकने की जरूरत नहीं है क्योंकि एनसीपी के मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं और जनता में उनके प्रति गुस्सा कांग्रेस से ज्यादा है. किंतु कांग्रेस का यह आकलन गलत निकला. कुछ ऐसी ही राजनीतिक भूल उससे इन दोनों राज्यों में भी हुई है और उसका यही गलत आकलन ही उसकी इस दुर्गति का अहम कारक बन गया है.

इस लगातार चुनावी हार से कांग्रेस अब राज्यसभा में भी जल्द ही भाजपा से पिछड़ जाएगी. साथ ही उसके सिकुड़ते राजनीतिक आधार के चलते क्षेत्रीय दल भी उसके साथ आगे चलकर गठबंधन करने से कतराने लगेंगे. सच्चाई यह है कि सत्ता की राजनीति में बने रहने के लिए इस बदलते राजनीतिक परिवेश में अब गठबंधन की राजनीति ही कांग्रेस के लिए प्राणवायु है, क्योंकि बहुकोणीय मुकाबले में लाभ भाजपा को ही हो रहा है. इसलिए भाजपा विरोधी मतों के बिखराव को रोकने के लिए कांग्रेस को राजनीतिक घाटा सहकर भी गठबंधन की चुनावी राजनीति को आगे बढ़ाना चाहिए. अपनी शतरे पर गठबंधन करने की जिद के बजाए कांग्रेस को वर्तमान राजनीतिक हकीकत के मुताबिक रणनीति बनानी होगी. अगले साल बिहार विधानसभा चुनाव कांग्रेस सहित एकीकरण की राह पर बढ़ रहे जनता परिवार के लिए भी काफी अहम हैं. इसलिए कांग्रेस को अपनी पुरानी गलतियों से सबक सीखना चाहिए. सच्चाई यह भी है कि कांग्रेस की तुष्टीकरण की राजनीति भी बहुसंख्यकों को रास नहीं आ रही है. चुनावी परिणामों से यह बात स्पष्ट तौर पर इंगित हो रही है. ऐसे में कांग्रेस को इस आम धारणा को बदलने के लिए भी अपनी दिशा और दशा पर आत्मचिंतन करने की जरूरत है.    

ranvijay_singh1960@yahoo.com

रणविजय सिंह
समूह संपादक राष्ट्रीय सहारा हिंदी दैनिक


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