बौद्धिक विपक्ष की जरूरत

Last Updated 28 Dec 2014 04:32:33 AM IST

इस समय देश में एक महाशून्य उपस्थित है. कभी-कभी छोटी-छोटी घटनाओं पर मीडिया में खासी चीख-पुकार सुनाई देती है और कभी-कभी पेशावर जैसी भयावह घटनाएं भी दो-चार दिन के औपचारिक शोर-शराबे के बाद विस्मृति के कूड़ेदान में डाल दी जाती हैं.


विभांशु दिव्याल, लेखक

इस समय परिघटनाओं पर विचार-विमर्श लगभग बंद है और घटनाओं पर जो थोड़ी-बहुत बहस होती है वह टीवी के परदे पर दिखाई देती है और वह भी उथले-फूहड़ और भद्दे आरोपों-प्रत्यारोपों के बाद बिना कोई समझदारी पैदा किए आधे-अधूरे में ही चुक जाती है. कमोबेश यही हाल अखबारों का भी है जहां संपादकीय और मुख्य लेख पूर्वाग्रहों से ग्रस्त दिखाई देते हैं और इस पक्ष के साथ खड़े होकर उस पक्ष पर और उस पक्ष के साथ खड़े होकर इस पक्ष पर निशाना साधते नजर आते हैं.

नजरिया प्रस्तुत करना अच्छी बात है लेकिन यह नजरिया आपकी अपनी सीमित, सतही और संक्रमित विचारग्रंथियों से बोझिल क्यों हो? एक आम पाठक या दर्शक कठिनाई महसूस करता है कि आखिर सही क्या है और गलत क्या है. जब एक पार्टी के प्रवक्ता अपना पक्ष रखते हैं तो लगता है कि इनसे अधिक साफ-सुथरा, सच्चा और खरा कोई नहीं और देश-समाज में जो कुछ भी अच्छा हो रहा है वह सिर्फ उनके कारण हो रहा है और बुरा दूसरों के कारण; और जब दूसरा अपना पक्ष प्रस्तुत करता है तो उतनी उत्कटता से वह भी अपने को पाक-साफ दिखाता है और दोष दूसरों के ऊपर मढ़ देता है.

मौजूदा राजनीति ने देश की समूची वैचारिकता को सफेद और स्याह में बदल दिया है. इसमें आरोप-प्रत्यारोप हैं, गाली-गलौज है, चुनौती और चेतावनियां हैं, लेकिन वह विचार सिरे से नदारद है जो आपको किसी समस्या के मूल तक पहुंचाता हो, उसके प्रति जागरूक करता हो या आपकी समझ का विस्तार करता हो या आपको अधिक संवेदनशील बनाता हो. सबने अपने छोटे-छोटे हित क्षेत्र बना रखे हैं, धर्म और जाति के नाम पर अपने-अपने अनुयायियों की फौजें बना रखी हैं जो अपने-अपने नेताओं की उत्तेजक बयानबाजियों से उत्तेजित होती रहती हैं और एक-दूसरे के प्रति अपनी नफरत को मजबूत करती रहती हैं. सोशल मीडिया में ये उत्तेजक दुराग्रह और भी अधिक भद्दे रूप में प्रकट हो रहे हैं.

इस समूचे परिदृश्य में सबसे अधिक निराशाजनक स्थिति यह है कि जो राजनीतिक ताकतें धर्म और जाति से ऊपर उठने का दावा करती हैं, वे भी राजनीतिक या सत्ताकामी स्वाथरे के कारण चोला बदलती रहती हैं और कभी इस जाति-धर्म-मजहब तो कभी उस जाति-धर्म-मजहब की गोद में जा बैठती दिखाई देती हैं. इनका व्यवहार सबसे ज्यादा भ्रमित और विचलित करने वाला है. ‘आप’ जैसी पार्टी भी, जो अन्ना हजारे के नागर आंदोलन से प्रसूत थी और जिसने शुरू में पर्याप्त उम्मीदें जगाई थीं, आरोप-प्रत्यारोप के चालू मुहावरों में फंस गई है या राजनीतिक धूर्तता के तहत फंसा दी गई है. अगर इस बार यह पार्टी दिल्ली की जनता को अपनी सरकार बनाने की हद तक प्रभावित नहीं कर पाई तो यह पूरी तरह एक और ‘राजनीतिक दल’ की जमात में शामिल हो जाएगी और अपनी बदलावकारी क्षमता खो बैठेगी.

ऐसी सूरत में जहां किसी भी समस्या, मुद्दे या बिंदु पर तटस्थता से विचार करना असंभव हो गया है, एक नागर प्रतिपक्ष की सख्त जरूरत है. एक ऐसे बौद्धिक आंदोलन की जरूरत है जो इस या उस राजनीतिक दल का प्रतिपक्ष नहीं बल्कि राजनीतिक दलों ने आज जो परिदृश्य खड़ा कर दिया है उस समूचे परिदृश्य का प्रतिपक्ष बने. जरूरत इस बात की है कि देश का बौद्धिक वर्ग, जो इस समय या तो निराशा के कारण निष्क्रिय है या फिर अपने निजी स्वाथरे के कारण इस या उस राजनीतिक दल की पैरोकारी करता नजर आता है, अपने पूर्वाग्रहों और स्वाथरे से ऊपर उठकर एकजुट हो और जहां कहीं भी जिस किसी भी ताकत की ओर से झूठ प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा हो या भ्रम फैलाया जा रहा हो, जनता को बहलाया-फुसलाया जा रहा हो, उसका बौद्धिक विरोध करे, जनता के सामने वस्तुस्थिति को पूरी तटस्थता के साथ प्रस्तुत करे और किसी भी बिंदु पर जनता की समझदारी निर्मित करने में उसकी मदद करे. यह बौद्धिक आंदोलन ऐसे दबाव समूह के रूप में काम कर सकता है जो सियासी दलों को, धार्मिक समूहों को, विचलित और भ्रष्ट जमातों को अपने-अपने पूर्वाग्रहग्रस्त रुख के बारे में सोचने-विचारने के लिए विवश करे.

जब हम देख चुके हैं कि चुनावों के माध्यम से हुआ सत्ताई बदलाव बुनियादी तौर पर कुछ भी नहीं बदलता और यह भी देख चुके हैं कि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के जैसे दबावकारी जनआंदोलन भी अपनी अस्पष्ट वैचारिकता के कारण नष्ट हो जाते हैं, तो अब एकमात्र रास्ता बचता है कि समूचे देश में बौद्धिक आंदोलन खड़ा हो, जो समर्थन या विरोध में भीड़ जुटाने का काम न करे बल्कि आज की डरावनी समस्याओं पर जनता की समझ को पैना करने का काम करे. यह स्पष्ट है कि कोई भी अगला बदलाव भीड़ के सहारे नहीं होगा बल्कि जनता की विकसित समझ के सहारे होगा और जनता की यह समझ तभी विकसित होगी जब देश की बौद्धिक जमात मैदान में उतरे और समूचे देश में स्वस्थ विचार-विमर्श का माहौल बनाए.
इस बौद्धिक जमात के लोगों के अपने-अपने राजनीतिक विचार हो सकते हैं, अपनी-अपनी सामाजिक प्रतिबद्धताएं हो सकती हैं, अपनी-अपनी धार्मिक आस्थाएं हो सकती हैं; लेकिन अगर वे दुराग्रहग्रस्त नहीं हैं, अपनी बात समझाने के साथ-साथ दूसरों को समझने के लिए भी संवेदनशील हैं और एक स्वस्थ संवाद कायम करने के लिए तत्पर हैं तो निश्चित तौर पर ये लोग एक बड़ी भूमिका निभा सकते हैं. अगर घर की गंदगी साफ करनी है तो हो सकता है उसके लिए दो लोग दो तरीके सुझाएं, लेकिन यह तो नहीं ही कहेंगे कि यह गंदगी ही नहीं है या इस गंदगी को साफ करने की जरूरत ही नहीं है, जैसा कि इस समय राजनीतिक और धार्मिक समूह जोर-शोर से कर रहे हैं. बौद्धिक आंदोलन गंदगी को गंदगी बताने और उसकी सफाई की जरूरत को तो प्रखरता से रख ही सकता है. सार्थक बदलाव की जो उम्मीदें शून्य हो गई हैं उस शून्य को भरने का एक प्रयास तो कर ही सकता है.



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