नए जनता परिवार से एक निवेदन

Last Updated 28 Dec 2014 04:24:54 AM IST

भारत में स्वतंत्रता से पहले समाजवाद आंदोलन नहीं, एक छोटी-सी धारा थी.


राजकिशोर, लेखक

यह धारा कांग्रेस की व्यापक राजनीति का एक हिस्सा थी, जिसे लोहिया ने मिर्ची या अदरख ग्रुप की संज्ञा दी है. इस ग्रुप के सदस्यों की खूबी यह थी कि ये सभी गांधी जी के साथ थे, पर विचारों से मार्क्‍सवादी थे. मार्क्‍सवादी समूह कांग्रेस के बाहर भी थे. वह अपने को कम्युनिस्ट कहते थे और गांधी जी के जबरदस्त आलोचक थे. कांग्रेस के भीतर और बाहर के समाजवादियों में दो मुख्य फर्क थे. कम्युनिस्ट राष्ट्रीय से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय थे और अपने अंतरराष्ट्रीय अनुरागों के चलते राष्ट्रीय हितों को बलिदान कर सकते थे, जैसा कि उन्होंने 1942 में किया.

कांग्रेस के भीतर के समाजवादी पहले राष्ट्रीय थे, बाद में अंतरराष्ट्रीय. दूसरी बात यह थी कि इनका भारत की संस्कृति, परंपरा, इतिहास आदि से लगाव था. गांधी जी के प्रभाव से इनका मिजाज आम तौर पर लोकतांत्रिक और अहिंसक था. इस तरह, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नाम से काम कर रहा संगठन एक ओर नए जमाने के विचार- मार्क्‍सवाद- को अपनाते हुए भी उसे गांधी जी के नेतृत्व के अधीन ही विकसित करने का प्रयास कर रहा था और दूसरी ओर कांग्रेस के भीतर एक दबाव ग्रुप का काम करना चाहता था. नेहरू इस ग्रुप के सर्वोच्च नेता थे. अन्य महत्वपूर्ण नेता थे, लोहिया, यूसुफ मेहर अली, नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण आदि. इन सबमें लोहिया अकेले नेता थे जो समाजवाद का कोई भारतीय संस्करण विकसित करने के लिए व्यग्र थे.

यही कारण है कि स्वतंत्रता के बाद जिसे समाजवादी आंदोलन के नाम से जाना गया, उसका सबसे ज्यादा श्रेय राममनोहर लोहिया को जाता है. लोहिया कभी भी मार्क्‍सवादी नहीं रहे. मार्क्‍स से वे प्रभावित जरूर थे. लोहिया ने समाजवाद के चिराग को रोशन रखा और उसमें नए-नए आयाम जोड़ने का काम किया. इसलिए समाजवादी चिंतन और समाजवादी राजनीति के नाम पर उनकी ही याद आती है- किसी और की नहीं. इसलिए स्वातंत्रोत्तर भारत में समाजवादी आंदोलन का मतलब लोहियावादी राजनीति का विकास और पराभव ही मानना चाहिए. बाकी सभी दावे आधारहीन हैं.

लोहिया की राजनीति के कई ध्रुव थे. वे आर्थिक विषमता के विरोधी थे. भारत में ही नहीं, दुनिया के स्तर पर भी. भारत के सामाजिक ढांचे को समझने के कोशिश करते थे तथा जाति प्रथा को नष्ट करने के हिमायती थे. स्त्रियों और शूद्रों को विशेष अवसर देकर उनकी तीव्र उन्नति करने का प्रयत्न लोहिया का विशेष एजेंडा था. लेकिन इन सबके लिए जरूरी था कि भारत से अंग्रेजी हटे तथा लोकभाषाओं के जरिए भारत की साधारण जनता को अपनी स्वाभाविक मुखरता मिले. कांग्रेस का एकछत्र शासन रहते हुए यह सब असंभव था. इसलिए कांग्रेस के वर्चस्व को तोड़ने के लिए सक्षम रणनीति बनाना लोहिया की एक और विशेषता थी. राज्यों में तो इस वर्चस्व को वे अपने जीवनकाल में ही तोड़ गए थे, केंद्र में यह घटना उनकी मृत्यु के लगभग एक दशक बाद हुई. लेकिन लोहिया के जीवन काल में ही केंद्र में कांग्रेस की सरकार अल्पमत में आ चुकी थी और कम्युनिस्टों के सहारे टिकी हुई थी.

जहां तक समाजवादी राजनीति का सवाल है, उसका मूल्यांकन करना बहुत कठिन है, क्योंकि लोहिया के पास जो विराट दृष्टि थी, उसका वहन करने योग्य नेताओं और कार्यकर्ताओं का निर्माण एक बहुत भारी काम था. फिर भी लोहिया ने यह असंभव काम कर दिखाया. आज भी, जब लोहिया का निधन हुए सैंतालीस साल हो चुके हैं, उनके व्यक्तिगत प्रशंसक और भक्त काफी बड़ी संख्या में मौजूद हैं. दुख की बात यह है कि इनमें से कोई भी, लोहिया की मृत्यु के बाद, उनके उत्तराधिकार को बनाए रखने लायक भी साबित नहीं हुआ. सिर्फ किशन पटनायन ने समाजवादी आंदोलन को जारी रखने का काम कियाठ अब समाजवादी तो हैं, पर समाजवाद नहीं है.

फिर भी समाजवादी राजनीति को इस बात का श्रेय है कि उसने भारत की राजनीति और समाज में जितने मौलिक मुद्दे उठाए, उतने किसी और आंदोलन, दल या नेता ने नहीं. जाति को राजनीति के केंद्र में लाने के लिए अक्सर समाजवादियों को कोसा जाता है, पर यह भुला दिया जाता है कि समाजवाद की जाति-राजनीति वह नहीं थी जो बाद की राजनीति में देखी गई. जैसे भारत की कम्युनिस्ट पार्टयिों ने साम्यवाद की राजनीति का बारह बजा रखा है, वैसे ही लोहिया के अयोग्य शिष्यों ने समाजवाद की जाति-दृष्टि को बरबाद कर दिया. समाजवादियों की एक आलोचना यह भी है कि उन्होंने 1967 में जनसंघ के साथ हाथ मिला कर उसे विश्वसनीयता प्रदान की. आश्चर्य की बात यह है कि जो लोग खुद लोहिया को ही वैध नहीं मानते हैं, वे ही उन पर आरोप लगाते हैं कि उन्होंने जनसंघ को वैधता प्रदान की. लेकिन लोहिया ने अगर एक मजबूत गैरकांग्रेसी मोर्चा नहीं बनाया होता, तो क्या 1967 में कांग्रेस के वर्चस्व का अंत शुरू हो पाता? 

समाजवादी आंदोलन आज नहीं है. लेकिन समाजवादी समाज की इच्छा मजबूत हुई है. आज अन्याय का उससे ज्यादा प्रतिरोध हो रहा है जितना लोहिया के जीवनकाल में होता था. अन्याय के विविध प्रकारों की समझ भी बढ़ी है. दलित, स्त्रियां, आदिवासी, किसान आदि समूह न्याय के लिए व्यग्र हैं. मेरे खयाल से, यह सर्वश्रेष्ठ माहौल है जब समाजवादी आंदोलन को पुनर्जीवित करने का गंभीर प्रयास किया जा सकता है. क्या हम नवगठित जनता परिवार से इसकी उम्मीद कर सकते हैं?



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