प्रकृति की टेढ़ी नजर और शीत लहर
पृथ्वी और मनुष्य के संबंध गड़बड़ा गए हैं. ऋग्वैदिक काल के मनुष्य ने पृथ्वी को माता और आकाश को पिता जाना था.
प्रकृति की टेढ़ी नजर और शीत लहर |
लेकिन आधुनिक मनुष्य और पृथ्वी के मध्य शोषक और शोषित के संबंध हैं. आकाश और सौरमंडल से भी मनुष्य के संबंध अच्छे नहीं हैं. परिणाम भयावह हैं. तमाम प्राकृतिक आपदाएं हैं. ऋतु चक्र की अव्यवस्था है. प्राकृतिक शीत-ताप में भी अराजकता है. आधुनिक समझ पीड़ादायी है. हम मनुष्य मान चुके हैं कि ये नदियां सिर्फ हमारे लिए हैं, हहराते समुद्र या दुलराती वायु पर सिर्फ हमारा अधिकार है. सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध या बृहस्पति हमारी संपदा है. वनस्पतियां, कीट-पतिंग हमारी संपत्ति हैं. गाय, बैल, ऊंट और बकरी हमारे खाद्य पदार्थ हैं. सब हमारे उपभोग की सामग्री हैं. क्या वन, पर्वत, पशु, पक्षी, सूर्य, चंद्र या तारे अपना कोई अस्तित्व नहीं रखते? क्या इनके जीवंत होने से इंकार किया जा सकता है? क्या मनुष्य के अतिरिक्त सभी प्राणी जीवन का अधिकार नहीं रखते? हमारी लोभ लालसा ने प्रकृति की नियमबद्धता को भी अराजक बनाया है.
प्रकृति का अपना अनुशासन है. शीत, ताप और वर्षा प्रकृति के अनुशासन में ही आते-जाते हैं. हम सब प्रकृति के अंग हैं. यही अनुशासन हम सब पर भी लागू है. अनुशासनविहीनता प्रकृति को प्रिय नहीं. ऋग्वेद में अनुशासन के देवता हैं वरुण. वे अनुशासन पर सख्त हैं. आधुनिक मनुष्य बुद्धिमान जीव है. वह प्रकृति का अनुकूलन चाहता है. मनुष्य प्रकृति को जीतना चाहता है, इसीलिए प्रकृति और मनुष्य के बीच तमाम अंतर्विरोध देखे जाते हैं. शीतलहर प्रकृति की अपनी मन तरंग है.
लेकिन मनुष्य के लिए पीड़ादायी. मनुष्य ने प्रकृति से छेड़छाड़ की है. भूमंडल का ताप बढ़ा है. आकाशचारी मेघों का भी रासायनिक गुण-द्रव्य अनुपात अव्यवस्थित हो गया है. गर्मी अब साधारण ग्रीष्म ऋतु की तरह नहीं आती और न ही वर्षा ही मेघ मल्हार की स्वागत ऋतु बनती है. शीत लहर भी पुरानी शिशिर जैसी आनंदमगन नहीं रही. शीत प्रकोप से कई सैकड़ा मौतें हुई हैं. राजव्यवस्थाएं असफल हैं और समाजव्यवस्थाएं संवेदनहीन.शीतलहर प्राकृतिक आपदा नहीं है. तूफान, अतिवृष्टि या बाढ़ नियमित नहीं आते. शीत, ग्रीष्म या वर्षा प्रकृति के ऋतु चक्र हैं. समयबद्ध हैं. शीत, ग्रीष्म या वर्षा अपने समय पर आगे-पीछे आते ही हैं. लेकिन यहां लू के थपेड़ों से तमाम मौतें होती हैं,
साधारण बाढ़ में भी तमाम जनधन की हानि होती है. शीतलहर की चपेट महामारी की तरह हजारों जीवन छीन लेती है. मरने वाले गरीब होते हैं. मैंने राजधानी लखनऊ में इन दिनों मुख्य सड़कों के किनारे तमाम रिक्शाचालकों को रिक्शों पर ही सोते देखा है. झुग्गी झोपड़ी के निवासी वस्त्रहीन हैं. तीन डिग्री सेल्सियस के ताप वाली सर्दी को क्या फटे वस्त्र रोक सकते हैं?
क्या शरीर ऐसी सर्दी को बर्दाश्त कर सकता है? क्या शीत से उनका मरना केवल आंकड़ा है? ज्ञान, विज्ञान और दर्शन से समृद्ध कथित आधुनिक सभ्यता में ऐसे अभावग्रस्त मनुष्यों का क्या कोई स्थान नहीं? वे हमारे समाज के अंग हैं. भारतीय राष्ट्र-राज्य की समृद्धि के भागीदार. शीत-ताप असमय ही उनकी जिंदगी छीन लेते हैं.
वैज्ञानिक शोध बढ़े हैं. ऋतु चक्र का पूर्वानुमान तथ्यगत हो रहा है. बौद्धिकता बढ़ी है. चिंतन बढ़ा है, वैज्ञानिक दृष्टिकोण बढ़ा है. सरकारों का लोककल्याणकारी स्वरूप भी बढ़ा है. धन-संपदा बढ़ी है, साधन बढ़े हैं, उपभोग बढ़ा है. जीवन स्तर भी ऊंचा हुआ है. इस सबके बावजूद प्रकृति के सामान्य ऋतु परिवर्तन में भी तमाम जीवन अकाल मृत्यु में जाते हैं.
दिसम्बर-जनवरी हर साल आती है. कोहरा और शीत लहर भी हर साल आते हैं. हमारे पंचांग में इनका तिथिवार उल्लेख होता है. टीवी चैनलों में जाड़े से बचने के कपड़ों के विज्ञापन भी समय के पहले ही आ जाते हैं. मूलभूत प्रश्न यह है कि सरकारी कैलेंडर में शीत लहर की कोई तिथि क्यों नहीं होती? सरकारें शीत लहर से बचने और अपने निवासियों की प्राण रक्षा के कोई उपाय क्यों नहीं करती? औद्योगिक घराने अपना सामाजिक दायित्व निभाने के लिए शीत प्रकोप के पहले ही गरीबों की मदद क्यों नहीं करते? शीत लहर में गरीबों की मृत्यु अवश्यंभावी क्यों है?
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