सेज के बहाने उपजाऊ भूमि की लूट

Last Updated 26 Dec 2014 01:49:13 AM IST

यह बेहद चिंताजनक है कि विशेष आर्थिक क्षेत्र यानी सेज के नाम पर बड़ी-बड़ी कंपनियों ने कृषि योग्य जमीनों की लूटपाट मचा रखी है.


सेज के बहाने उपजाऊ भूमि की लूट

कैग द्वारा खुलासा किया गया है कि देश में सेज के लिए 45635.63 हेक्टेयर जमीन की अधिसूचना जारी हुई लेकिन कामकाज सिर्फ 28488.49 हेक्टेयर पर शुरू हुआ है. यानी कुल 62.42 फीसद जमीन पर ही परिचालन शुरू हुआ है. कैग की मानें तो कंपनियों ने सेज के नाम पर सरकार से बड़ी तादाद में जमीन हासिल की लेकिन उस अनुपात में जमीन का इस्तेमाल सेज के लिए नहीं हुआ.

जमीन की कीमत बढ़ने के बाद सेज बनाने की अधिसूचना वापस लेकर जमकर मुनाफा कमाया गया. कैग के मुताबिक देश के छह राज्यों- आंध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र, ओडिशा और पश्चिम बंगाल- में 39245.56 हेक्टेयर भूमि सेज के रूप में अधिसूचित हुई जिसमें से 5402.22 हेक्टेयर की अधिसूचना रद्द कर उसका इस्तेमाल अन्य व्यावसायिक उद्देश्य के लिए किया गया. विडंबना यह कि यह सब सरकार की जानकारी में है, बावजूद इसके खेल जारी है. कैग के मुताबिक सरकार ने सेज को बढ़ावा देने के लिए 83104.76 करोड़ रुपए की छूट भी दी है और यह लाभ पाने वाली कई कंपनियां पूरी तरह अयोग्य हैं और सरकार को 1150.06 करोड़ का नुकसान पहुंचा है.

इकोनॉमिक सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट भी कह चुकी है कि देश में उदारीकरण की नीतियां लागू होने के बाद 1990 से लेकर 2005 के बीच लगभग 60 लाख हेक्टेयर खेती की जमीन का अधिग्रहण किया जा चुका है. इनमें अधिकांश का उपयोग गैर-कृषि कार्यों में हो रहा है. नतीजतन खेती की अर्थव्यवस्था चौपट होने के कगार पर है. जिन क्षेत्रों में सरकारें खेती की जमीनों को अधिग्रहीत कर रही हैं, उनमें विस्थापन को लेकर विकट समस्या उत्पन्न हो गई है. अपनी जमीन गंवाने के बाद अब किसानों के पास जीविका का कोई साधन नहीं रह गया है. लिहाजा वे खानाबदोशों की तरह जीवन गुजारने को विवश हैं. विस्थापित किसानों के लिए सरकार के पास न कोई ठोस पुनर्वास नीति है और न रोजी-रोजगार से जोड़ने का कारगर तरीका. नतीजा कल तक जो किसान थे, आज खेतिहर मजदूर बन गए हैं.

विकास के लिए भूमि का अधिग्रहण जरूरी है लेकिन कृषि योग्य भूमि की कीमत पर नहीं. एक आंकड़े के मुताबिक चीन सत्तर हजार किमी से अधिक हाइवे का निर्माण कर चुका है लेकिन इसके लिए कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण नहीं किया गया है. यही वजह है कि कृषि योग्य भूमि कम होने के बावजूद चीन उत्पादन के मामले में हमसे आगे है. कृषि की हालत कितनी चौपट हो चुकी है, यह इसी से समझा जा सकता है कि 2001 में देश में 12 करोड़ 73 लाख किसान थे, जिनकी संख्या एक दशक यानी 2011 में घटकर 11 करोड़ 87 लाख रह गई है. यानी 86 लाख किसान कृषि कार्य से विरत हुए हैं.
माना जा रहा है कि प्रकृति पर आधारित कृषि, देश के विभिन्न हिस्सों में बाढ़ एवं सूखे का प्रकोप, प्राकृतिक आपदा से फसलों की क्षति और ऋणों के बोझ के कारण बड़े पैमाने पर किसान खेती छोड़ने को मजबूर हुए हैं. पिछले एक दशक के दौरान महाराष्ट्र में सर्वाधिक 7.56 लाख, राजस्थान में 4.78 लाख, असम में 3.30 लाख और हिमाचल में एक लाख से अधिक किसान खेती को तिलांजलि दे चुके हैं. इसी तरह उत्तराखंड, मेघालय, मणिपुर और अरुणाचल जैसे छोटे राज्यों में भी किसानों की संख्या घटी है. आश्चर्यजनक यह कि इस दौरान देश में कृषि मजदूरों की संख्या बढ़ी है. फिर इस निष्कर्ष पर पहुंचना गलत नहीं होगा कि खेती करने वाले किसान ही खेतिहर मजदूर बन रहे हैं. इसका मूल कारण सेज के नाम पर कृषि योग्य जमीनों की लूटपाट, सिंचाई एवं उर्वरक की अनुपलब्धता और बिजली का अभाव इत्यादि है.

आंकड़े बताते हैं कि देश में 1990 से 2005 के बीच 20 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि कम हुई है. गौरतलब है कि एक हजार हेक्टेयर खेती की जमीन कम होने पर 100 किसानों और 760 खेतिहर मजदूरों की आजीविका छिनती है. आज देश में प्रति व्यक्ति कृषि भूमि की उपलब्धता 0.18 हेक्टेयर रह गई है. 82 फीसद किसान लघु एवं सीमांत किसानों की श्रेणी में आ गए हैं और उनके पास कृषि भूमि दो हेक्टेयर या उससे भी कम रह गई है. देश की अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी भी लगातार घट रही है. आंकड़ों पर गौर करें तो 1950-51 में देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि की भागीदारी 51.9 थी, जो 1990-91 में 34.9 फीसद रह गई.

आज 2012-13 में यह घटकर 13.7 फीसद पर आ गई है. यह सही है कि उद्योग-धंधे, कल-कारखाने एवं सेवा क्षेत्र में सतत विकास की वजह से कृषि की भागीदारी कम हुई है, लेकिन पिछले तीन दशक में कृषि पर निर्भर आबादी में इजाफा दर्शाता है कि गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार के अवसरों का आनुपातिक फैलाव नहीं हुआ है. दूसरी ओर खेती के विकास में क्षेत्रवार विषमता बढ़ना, प्राकृतिक बाधाओं से पार पाने में विफलता, भूजल का संकट और हरित क्रांति वाले इलाकों में पैदावार में कमी और भी चिंताजनक है. इस दिशा में सुधार की कोई ठोस पहल नहीं हो रही है. लगातार बढ़ती आबादी, शहरों तथा उद्योगों का विस्तार एवं कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण भी कृषि की समस्या बढ़ा रहा है.

इसमें दो राय नहीं कि इन साढ़े छह दशकों में देश ने चतुर्दिक प्रगति की है. मूलभूत सुविधाओं का विस्तार हुआ है और प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ी है, लेकिन फसलों और बाजारों की दूरी न घटने, फसलों का उचित मूल्य न मिलने, कृषि में मशीनीकरण और आधुनिक तकनीकी का अभाव आदि कारणों से कृषि व किसानों की दुर्दशा बढ़ी है. बढ़ती ऋणग्रस्तता की वजह से वे आत्महत्या करने को मजबूर हैं. एक आंकड़े के मुताबिक 2004 में 4385, 2005 में 3175 और 2006 में 1901 किसानों ने आत्महत्या की. राहतकारी है कि अब किसानों की आत्महत्या की प्रवृत्ति में कमी आ रही है. 2007 में 1627 किसानों ने आत्महत्या की जो 2012 में घटकर 697 रह गयी. किसान क्रेडिट कार्ड और फसल बीमा योजना से किसानों को थोड़ी राहत मिली है.

अच्छी बात है कि सरकार कृषि के विकास में तेजी लाने और इस क्षेत्र में पूंजी निवेश में वृद्धि के लिए प्रयासरत है. उसकी पहल से राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन, गुणवत्तापूर्ण बीज के उत्पादन और वितरण, राष्ट्रीय बागवानी मिशन जैसी अनगिनत योजनाएं चल रही हैं और इससे किसानों को लाभ पहुंच रहा है. उचित होगा कि सरकार सेज के नाम पर कृषि योग्य जमीनों की लूटपाट पर लगाम कसे और कृषि क्षेत्र को बढ़ावा देने के साथ गैर-कृषि क्षेत्र को भी प्रोत्साहित करे ताकि अधिकाधिक लोगों को रोजगार मिल सके. समझना होगा कि भारत अब भी कृषि प्रधान देश है और अधिसंख्य जनता कृषि पर अवलंबित है.

अरविंद जयतिलक
लेखक


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