पाकिस्तान के अस्तित्व पर ‘काले मंगल’ का साया

Last Updated 23 Dec 2014 02:39:52 AM IST

पेशावर में हुई आतंकी घटना के बाद पूरी दुनिया पाकिस्तान के साथ खड़ी दिखी. आखिर स्कूल में हुई आतंकी घटना थी ही इतनी शर्मनाक.


पाकिस्तान के अस्तित्व पर ‘काले मंगल’ का साया

पूरी इंसानियत के लिए इसे काला मंगलवार माना गया. कई लोग ऐसा मानने लगे थे कि हादसे के बाद उठ खड़ी हुई पाकिस्तानी जनता के दवाब में वहां की सरकार अपनी नीति में बदलाव करेगी, लेकिन ऐसा सोचना शायद फिजूल था.

दो दिन बाद ही लश्करे तैयबा के प्रमुख और मुंबई हमले के मुख्य सूत्रधार जकीउर रहमान लखवी को पाकिस्तान की आतंकवाद विरोधी अदालत ने जमानत दे दी और इससे पाकिस्तान की पोल खुल गई. हालांकि पाकिस्तान के आवाम के विरोध और दुनिया में हुई किरकिरी के बाद लखवी को फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और ऐसा कर पाकिस्तान ने अपनी गिरती साख की भरपाई करने की कोशिश की, लेकिन पाकिस्तान सचमुख आतंकवाद विरोधी होगा, ऐसा सोचना गलतफहमी है.

पाकिस्तान की सेना और वहां की सरकार एक-दूसरे पर आरोप का ब्लेम गेम खेल रहे हैं. कार्रवाई हो भी रही है तो ऐसे आतंकियों के खिलाफ, जिन्हें वहां की सत्ता अपना विरोधी मानती है. वे आतंकी हैं, इसलिए कार्रवाई नहीं हो रही, बल्कि पाकिस्तान की सत्ता को उन्होंने चुनौती दी है इसलिए हो रही है. पेशावर में हुए कत्लेआम और लखवी को जमानत मिलने के बीच का दो दिनों का अंतराल प्रत्यक्षत: एक-दूसरे से जुड़ा नहीं है, लेकिन इससे हुआ यह कि पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद और आतंकवाद से प्रभावित पाकिस्तान के बीच का धुंधला अंतर मिट गया. पाकिस्तान सरकार ने लखवी की रिहाई पर तीन महीने के लिए रोक लगा दी है.

पाकिस्तान कहता रहा है लखवी के खिलाफ उसके पास पर्याप्त आधार नहीं हैं लेकिन गौर करें कि मुंबई कांड में शामिल एकमात्र गिरफ्तार आतंकवादी अजमल कसाब ने बताया था कि पूरे हमले के पीछे लखवी चाचा थे. उन्होंने ही आतंकवादियों को प्रशिक्षण दिया था और हमले के समय वे लगातार निर्देश दे रहे थे. फिर भारत की ओर से उसे पर्याप्त सबूत सौंपे जा चुके हैं. शर्मनाक यह है कि इतना होने के बावजूद लखवी पाकिस्तान सरकार की नजरों में दोषी नहीं. वहां की सरकार की नजरों में न तो जमात उल दावा का हाफिज सईद आतंकी है और न ही दाऊद इब्राहीम.

पाकिस्तान में आतंकी समूहों को फलने-फूलने का पूरा मौका दिया गया. यहां तक कि सीमा पर जाकर अफगानिस्तान जैसे देशों में भी आतंकियों को उसने मदद पहुंचाई. अब यही आतंकी समूह वहां इतने मजबूत हो गए हैं कि सरकार को खुला चैलेंज दे रहे हैं और सरकार भौचक मुद्रा में है. यहां यह बात भी गौर करने लायक है कि वहां की सरकार अब भी आतंक मिटाने को लेकर प्रतिबद्धता नहीं दिखा रही है. सेना, नौकरशाह और सरकार में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जिनकी सहानुभूति लश्करे तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद और तालिबान जैसे संगठनों से है.

सवाल है कि किया क्या जाए? जिस विषबेल को पाकिस्तान ने खुद रोपा था, उसका समूल नाश करने को भी उसे ही आगे बढ़ना होगा. इस मामले में अमेरिका जैसा देश भी कुछ नहीं कर सकता है. वह तो बस अपनी रोटी ही सेंक सकता है. फिर आतंकवाद के खिलाफ वह पाकिस्तान की नहीं, अपनी लड़ाई लड़ रहा है. पाकिस्तान की सरकार में सेना और आईएसआई का प्रभाव कम से कम होना चाहिए. वहां पेशावर हादसे के बाद कई लोगों को मानना है कि किस सेना के हाथों में सत्ता की कमान होती.

हालांकि यह और खराब हालत होगी. सरकार तो लोकतांत्रिक ही होनी चाहिए. वैसे वहां आतंक के खात्मे को लेकर तब तक कोई सार्थक पहल नहीं हो सकती जब तक पाकिस्तान अपनी नीति से 360 डिग्री का एंगल न ले ले. पाकिस्तान की नीति हमेशा से कट्टरपंथी धार्मिक, राजनीतिक दल या मिलिटेंट आर्गनाइजेशन को अपनी रणनीति का रीढ़ समझने की रही है. सेंट्रल एशिया, अफगानिस्तान, कश्मीर आदि क्षेत्रों में वह इनके सहारे ही अपना धाक जमाना चाहता है. यह नीति अगर नहीं बदली तो दहशतगर्दी जारी रहेगी.

जैसे-जैसे समय बीत रहा है, वहां आतंकवाद के खिलाफ अभियान चलाना और मुश्किल होता जा रहा है. आम लोगों के बीच आतंकी और उग्रवादी इस तरह घुलते-मिलते जा रहे हैं कि आतंकवाद के खिलाफ अभियान से आम लोगों के भी प्रभावित होने का खतरा है. अमेरिका हो या भारत- सबको वहां के हालात की समझ होनी चाहिए. अमेरिका और पाकिस्तान जिस तरह तालिबान के एक तबके के साथ उदारतापूर्ण रवैया अपनाने के संकेत देते  रहे हैं, वह किसी के हित में नहीं है.

कोशिश यह होनी चाहिए कि आतंकवाद के खिलाफ पाकिस्तान को प्रभावी कदम उठाने को मजबूर किया जाए. फिर पाकिस्तान में उदारवादी तबकों को मजबूत करने की दिशा में बढ़ा जाए. वहां लोकतंत्र की कागजी नहीं बल्कि वास्तविक मजबूती चाहिए, उसे आतंकवाद मिटाने के लिए जो मदद जा रही है उसके पाई-पाई का हिसाब लिया जाए और इसकी निगरानी सख्ती से की जाए कि कहीं वह पैसा आतंकियों के हाथों में तो नहीं जा रहा.

पाकिस्तान के मौजूद हालात बहुत ही खराब हैं. वहां राजनीतिक दलों में एक-दूसरे से नहीं बनती. तहरीक-ए-इंसाफ के इमरान खान और धार्मिक नेता मौलाना कादरी ने पाकिस्तान को राजनीतिक रूप से कमजोर कर रखा है. शरीफ की सरकार कमजोर हालत में है. सेना भी बिदकी हुई है. यह डर स्वाभाविक है कि कहीं सेना फिर से सत्ता पर काबिज न हो जाए. सेना तालिबान को दो भागों में बांटकर देखती है. एक की वह हितैषी है और दूसरे की विरोधी. अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी हो रही है और ऐसे में पाकिस्तान खुद चाहता है कि वहां उसकी पसंद का तालिबान बैठे.

दरअसल उसकी सोच अफगानिस्तान में धाक बनाने की है, जो बिना तालिबान के संभव नहीं हो सकता. तालिबान और अन्य आतंकी संगठनों पर ध्यान देना छोड़ पाकिस्तान के कई नेता और आतंकी यहां तक कहने लगे हैं कि पेशावर हादसे में भारत का हाथ है. यह उसकी पुरानी टेक्नीक है कि वहां कोई भी बड़ा हादसा होता है तो इसमें भारतीय खुफिया एजेंसियों का हाथ बताकर भारत विरोधी माहौल बनाने की कोशिश की जाती है. पाकिस्तान की हालत तब सुधर सकती है जब आतंकवादियों के खिलाफ कोई नेता उठ खड़ा हो.

आतंक के खिलाफ कोई नेतृत्व दे, पर ऐसा संभव नहीं दिखता. नवाज शरीफ हों, इमरान खान या कोई और बड़े नेता- सबके संबंध तालिबान और अन्य आतंकी दलों से हैं. पाकिस्तान की पूरी राजनीति गड्डमड्ड है और कड़े फैसले को लेकर व्यवस्था लुंजपुंज.

गौर करें कि दुनिया के तमाम मुस्लिम देशों में हुकूमतें फेल हो रही हैं और ऐसे में सत्ता पर सेना काबिज होती जा रही है. यह तो तय है कि ताकत की बदौलत जो सत्ता प्राप्त होती है, वह लोगों के अनुकूल नहीं होती. पाकिस्तान के आवाम को चाहिए कि वह हर हाल में लोकतंत्र को सपोर्ट करे. आने वाले दिनों में वहां सेना अपनी गतिविधियां बढ़ा सकती है. वह लोगों को इस भ्रम में डाल सकती है कि आतंकी घटना इसलिए हुई कि नवाज शरीफ की सरकार कमजोर थी. यकीनन ऐसा नहीं है. यह बात सिर्फ मूल मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए है. 
(लेखक विदेश मामलों के जानकार हैं)

कमर आगा
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