सियासी वजूद का गतिरोध!

Last Updated 21 Dec 2014 02:26:19 AM IST

सत्तापक्ष और विपक्ष के अहं के चलते राज्यसभा इस सप्ताह नहीं चल सकी. दोनों पक्ष अपनी जिद पर अड़े हैं और कोई झुकने को तैयार नहीं है.


सियासी वजूद का गतिरोध!

‘धर्मांतरण’ के सवाल पर विपक्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जवाब की मांग पर अड़ा है, जबकि सत्तापक्ष इसके लिए तैयार नहीं है. उसका तर्क है कि मामला आंतरिक सुरक्षा का है, इसलिए गृहमंत्री राजनाथ सिंह ही जवाब देंगे. प्रधानमंत्री के जवाब देने का सवाल ही नहीं उठता. उधर विपक्ष का तर्क है कि यह मामला अति संवेदनशील है, इसलिए पीएम को ही जवाब देना चाहिए. दोनों पक्ष अपने-अपने तर्क पर अड़ गए हैं, जो अब नाक का सवाल बन गया है. कोई झुकने को तैयार नहीं है. इसलिए इस गतिरोध के समाप्त होने के आसार क्षीण हैं. फलत: महत्वपूर्ण बिलों के लटकने की आशंका बढ़ गई हैं, क्योंकि इसी 23 दिसम्बर को यह शीतकालीन सत्र समाप्त हो रहा है.

लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर संसद में बहस और नीति-निर्धारण का काम होता है. किंतु पिछले काफी समय से इसकी पहचान शोर-शराबा और हंगामे की बन गई है. इसका यह विरूपित स्वरूप लोकतंत्र में आस्था रखने वाले आमजन के लिए किसी बड़े सदमे से कम नहीं है. सत्तारूढ़ दल की कोशिश किसी तरह विधायी कार्य निपटाने और महत्वपूर्ण बिलों को पारित कराने तक ही सीमित रह गई है. उसका महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस कराने में भी यकीन नहीं रहा है.

उधर विपक्ष ने भी खुद को गंभीर और जनसरोकार के सवालों पर सत्तापक्ष को घेरने और चर्चा की जगह बात-बात पर हंगामा करने और कार्यवाही ठप करने तक ही सीमित कर लिया है. इसलिए जो भी दल सत्ता में होता है उसे यह खूब सुहाता है. परिणामस्वरूप संसद की गरिमा पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है. संसद के उच्च सदन की कार्यवाही जिस तरह इस पूरे सप्ताह ठप रही है, वह दुखद है और लोकतंत्र के लिए शुभ भी नहीं है. ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है. कांग्रेस के शासनकाल में भी ऐसा कई बार हो चुका है. यद्यपि सत्तारूढ़ भाजपा इस गतिरोध के लिए विपक्ष पर बहुमत के जोर पर मनमानी का आरोप लगा रही है.

किंतु जब तक भाजपा विपक्ष में थी तो वह भी उस समय सत्तारूढ़ कांग्रेस पर ऐसे ही आरोप लगाती थी. इसलिए राज्यसभा में उत्पन्न इस गतिरोध पर न तो आश्चर्य हो रहा है और न ही कोई कौतूहल है. फिर भी सत्तारूढ़ दल को समझना चाहिए कि सदन को सुचारू रूप से चलाने की जिम्मेदारी उसकी ही है. इस गतिरोध का ठीकरा विपक्ष पर फोड़कर उसे कुछ मिलने वाला नहीं है. स्वयं प्रधानमंत्री कह चुके हैं कि उन्हें सरकार चलाने का जनादेश मिला है, जबकि हर सांसद को देश चलाने का जनादेश मिला है. यदि अगले दो दिनों में भी यह गतिरोध खत्म नहीं हुआ तो यह संसदीय कार्यमंत्री और नेता सदन (राज्यसभा) के राजनीतिक कौशल पर बड़ा सवालिया निशान होगा और सरकार के लिए भी किरकिरी का सबब होगा. लिहाजा उसे इसे ‘पॉलिटीकल ईगो’ का सवाल नहीं बनाना चाहिए.

वैसे धर्मांतरण का मुद्दा अतिसंवेदनशील है. सरकार को देश का मानस समझना चाहिए. पहले सिडनी, फिर पाकिस्तान के पेशावर में आतंकवादी घटना से समूचा देश दहशत में है. भारतीय युवकों के दुनिया के सबसे खतरनाक आतंकी संगठन आईएस से जुड़ने की खबर परेशान करने वाली है. इसी बीच धर्मांतरण की हिंदू संगठनों की गतिविधियों से देश की आंतरिक सुरक्षा पर गंभीर संकट पैदा हो गया है. विपक्ष आरोप लगा रहा है कि पीएम की चुप्पी से जनता में संदेश जा रहा है कि धर्मांतरण को उनका समर्थन है.

ऐसी स्थिति में सरकार के रणनीतिकारों को कोई बीच का रास्ता निकालकर इस गतिरोध को समाप्त करना चाहिए ताकि आमजन के बीच गलत संदेश जाने से रोका जा सके. जिस तरह साध्वी निरंजन ज्योति के अमर्यादित बयान पर पीएम ने संसद में भावुक बयान देकर विपक्ष को कदम वापस खींचने के लिए मजबूर किया था, अब उन्हें इस मामले में भी अपनी चुप्पी तोड़कर इस गतिरोध को खत्म करना चाहिए. क्योंकि संघ के अनुषांगिक संगठन धर्मांतरण का अभियान चला रहे हैं. संघ और भाजपा के रिश्ते जगजाहिर है. इसीलिए पीएम के बयान का बड़ा मतलब है. वैसे पीएम मोदी के कड़े तेवर के चलते संघ अपने प्रस्तावित ‘घर वापसी’ कार्यक्रमों को स्थगित करा रहा है. फिर भी प्रधानमंत्री को इस नाजुक सवाल पर देश की जनता से सीधा संवाद करना चाहिए ताकि बहुधर्मावलंबियों वाले भारत के 125 करोड़ लोगों के मन में उपज रही तरह-तरह की आशंकाओं का शमन हो सके.

सत्ता के गलियारों में यह चर्चा आम है कि धर्मांतरण का मुद्दा उठाकर राज्यसभा में प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस राजनीति कर रही है. चूंकि लोकसभा में नेता विपक्ष की कुर्सी न मिलने से कांग्रेस पहले से ही अपमानित महसूस कर रही थी, इसीलिए राज्यसभा में बहुमत का धौंस दिखाकर वह सरकार की मुसीबत बढ़ा रही है. हालांकि विपक्ष ने इस बार संसद की कार्यवाही बाधित करने का नायाब तरीका निकाला है. जनता और मीडिया की आलोचना से बचने के लिए उसने एक बार में एक ही सदन को बाधित करने की रणनीति बनाई है. ऐसा विपक्ष में रहते हुए भाजपा भी कर चुकी है. चूंकि राज्यसभा में राजग अल्पमत में है, इसलिए वह विपक्ष के सीधे निशाने पर है. विपक्ष को पता है कि बगैर उनके सहयोग के कोई विधेयक उच्च सदन से पारित नहीं होगा. इसलिए भी वह धर्मांतरण के मुद्दे पर झुकने को तैयार नहीं है.

क्या संसद में सरकार को घेरने के लिए विपक्ष के पास कार्यवाही ठप करना ही अकेला हथियार है? ऐसा नहीं है. इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के समय में विपक्ष संख्याबल में काफी कमजोर था, फिर भी उसमें सरकार के पसीने छुड़ाने की ताकत थी. किंतु अब वैसा देखने को नहीं मिलता. हंगामा कर सदन की कार्यवाही बाधित करना कमजोर विपक्ष का लक्षण है. पक्ष-विपक्ष अपने गौरवशाली संसदीय इतिहास से कुछ भी सीखने को तैयार नहीं हैं. हमें याद है कि वाजपेयी सरकार के समय कांग्रेस ने करीब एक वर्ष तक तत्कालीन रक्षामंत्री जार्ज फर्नाडीज का संसद में बहिष्कार किया था. उन पर ताबूत घोटाले का आरोप लगाया था.

किंतु अपने दस साल के शासनकाल में कांग्रेस ने इस मुद्दे का जिक्र तक नहीं किया. कुछ इसी तरह भाजपा भी कांग्रेस (यूपीए) के शासनकाल में गतिरोध पैदा कर संसद में उसके लिए मुसीबतें खड़ी करती रही है. ये दोनों पार्टियां सत्ता अथवा विपक्ष में होने पर अपने इस आचरण के समर्थन में सुविधाजनक तर्क गढ़ती हैं, किंतु संसद की कार्यवाही बाधित होने से बर्वादी जनता के धन की ही होती है. इसी की पहरेदारी के लिए जनता जनप्रतिनिधियों को चुनती है, जो अपने ऐसे आचरण से उसके भरोसे को तोड़ रहे हैं. इसलिए सत्तापक्ष और विपक्ष को अपनी मानसिकता में बदलाव लाने की जरूरत है, क्योंकि संसद मतदाताओं के प्रति जिम्मेदार है. क्या वह यह जिम्मेदारी निभा रही है, जनप्रतिनिधियों को इस पर गौर करना चाहिए.

ranvijay_singh1960@yahoo.com

रणविजय सिंह
समूह संपादक राष्ट्रीय सहारा हिंदी दैनिक


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