पिछड़ न जाएं पेटेंट की जंग में

Last Updated 19 Dec 2014 01:08:03 AM IST

बौद्धिक अधिकारों यानी पेटेंट के मामले में एक आम धारणा है कि इनका उल्लंघन भारत जैसे पूरब के देश करते हैं और इसका खमियाजा अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी जैसे विकसित पश्चिमी मुल्कों को उठाना पड़ता है.


पिछड़ न जाएं पेटेंट की जंग में

बेशक, आविष्कारों और नवाचारों (इन्वेंशन-इनोवेशन) के कई संदर्भ पश्चिमी देशों से जुड़े हैं, पर पूरब की जमीन इनसे खाली नहीं रही है. एक वक्त था जब भारत की महिमा ज्ञान गुरु के रूप में थी, फर्क यह रहा कि हमने अपने ज्ञान के बाजारीकरण और पेटेंटीकरण की कोशिश नहीं की. पर आज के वैश्विक अर्थव्यवस्था के युग में इसकी कितनी अधिक जरूरत है- यह जर्मनी में की जा रही एक कोशिश से स्पष्ट हो रहा है और साफ हो रहा है कि हमें अपने ज्ञान और ठेठ भारतीय उत्पादों के पेटेंट बचाने की कितनी अधिक जरूरत है.

यह मामला जर्मनी की एक कंपनी- खादी नेचरप्रोडक्टे से जुड़ा है. इस कंपनी ने कुछ अरसे से यूरोपीय बाजारों में शैंपू, साबुन और तेल आदि हर्बल सामानों की बिक्री उन्हें खादी उत्पाद बताकर करनी शुरू की है. इसमें कहीं इसका उल्लेख नहीं है कि खादी का भारत से कोई लेना-देना है. जबकि यह बात कम से कम भारतीय उपमहाद्वीप में हर कोई जानता है कि खादी आजादी आंदोलन के समय से ही भारतीय ट्रेडमार्क है. महात्मा गांधी ने खादी को एक आंदोलन के रूप में खड़ा किया था. पर चूंकि कभी खादी को एक भारतीय ट्रेडमार्क के रूप में दर्ज कराने या इस पर पेटेंट यानी बौद्धिक अधिकार हासिल करने की प्रक्रिया नहीं की गई, लिहाजा जर्मनी की कंपनी इसका गलत फायदा उठा रही है. इस पर हमारी सरकार ने ऐतराज भी जताया है. सरकार के मुताबिक देश के खादी एवं ग्रामीण उद्योग आयोग (केवीआईसी) को इस बात की शिकायत अमेरिका और यूरोपीय संघ में भी करने को कहा गया है. इसके लिए सरकार ने खादी के उल्लेख वाले महात्मा गांधी के दस्तखत समेत कई दस्तावेज जुटाए हैं.

गौरतलब है कि जर्मनी की उक्त कंपनी ने अपनी वेबसाइट पर दावा किया है कि खादी यूरोप के बाजारों के लिए एक खास तरह का ब्रांड है और वहां इसके उत्पाद सिर्फ  इसी कंपनी द्वारा उपलब्ध कराए जा रहे हैं. अभी यह कंपनी खादी के नाम पर सिर्फ  शैंपू, तेल, साबुन और इसी तरह के हर्बल उत्पाद बेच रही है, लेकिन भविष्य में यह खादी कपड़े भी बनाना और बेचना शुरू कर सकती है. ऐसे में भारतीय खादी की मुश्किलें बढ़ सकती हैं. यूं यह पहला मामला नहीं है जब भारतीय बौद्धिक संपदाओं पर डाका डालने यानी पेटेंट या ट्रेडमार्क चुराने की कोशिश की गई हो. इससे पहले विशुद्ध भारतीय मसालों-आयुव्रेदिक औषधियों जैसे हल्दी और नीम के पेटेंट में दखल का भारत सामना कर चुका है और इनसे संबंधित मुकदमों में भारत को जीत मिली है.

नब्बे के दशक में अमेरिका की एक कंपनी ने हल्दी पर अपना दावा ठोंक दिया था. इसे बचाने में भारत को पांच साल लग गए और अमेरिकी वकीलों को फीस के रूप में करीब 12 लाख डॉलर का भुगतान करना पड़ा था. इसी तरह 1995 में अमेरिका की ही एक अन्य फर्म ने नीम पर अपना दावा जता दिया था. भारत को इसके अमेरिकी पेटेंट को रद्द कराने में 10 साल लग गए. इस पर 10 लाख अमेरिकी डॉलर खर्च हो गए थे. इसी तरह का एक विवाद 1997 में भारतीय चावल की एक अहम किस्म बासमती का उठा था. टेक्सास स्थित अमेरिकी कंपनी राइसटेक को बासमती चावल पर पेटेंट दिए जाने के बाद भारत ने अपनी आपत्ति जताई थी. भारत ने वे तथ्य मुहैया कराए, जिनसे पता चलता था कि भारत में तकरीबन 10 लाख हेक्टेयर और पाकिस्तान में 7.5 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में बासमती चावल की खेती होती है. भारत कुछ अंशों में ही पेटेंट की यह जंग जीत पाया था, क्योंकि राइसटेक को दिए गए पेटेंट चावल की चुनिंदा किस्मों तक सीमित कर दिए गए थे.

ऐसी कई मुश्किलें भारतीय योग के साथ भी पैदा हुई हैं. वर्ष 2002 में अमेरिका में भारतीय मूल के योग गुरु  बिक्रम चौधरी ने हॉट योगा के नाम से 26 योग-आसन पद्धतियों अपने नाम पर पेटेंट कराया था. वर्ष 2005 तक यह जानकारी सामने आई कि अमेरिकी पेटेंट कार्यालय तब तक योगासनों से जुड़े उत्पादों पर 134 पेटेंट, योग संबंधी 150 पेटेंट और 2315 योग ट्रेडमार्क जारी कर चुका था. इसी तरह ब्रिटेन में भी योग प्रशिक्षण से संबंधित 10 ट्रेडमार्क जारी किए जा चुके हैं.

कायदे से तो योग के पेटेंट संबंधी जंग हम गंवा चुके हैं, क्योंकि खुद भारत की पारंपरिक ज्ञान संबंधी डिजिटल लाइब्रेरी (जो वर्ष 2002 में शुरू की गई थी) में दो लाख योग ट्रेडमार्क दर्ज करने के बाद यह उल्लेख किया गया है कि इनका इस्तेमाल मुफ्त है और इन्हें भविष्य में पृथक ट्रेडमार्क के रूप में दर्ज नहीं किया जा सकेगा. अब तकरीबन यही समस्या खादी के संबंध में पैदा हो रही है, क्योंकि हो सकता है कि दुनिया भर में खादी के अलग-अलग पेटेंट हासिल कर लिए जाने के बाद भारत में कह दिया जाए कि खादी तो पूरी दुनिया के लिए मुफ्त ट्रेडमार्क है.

आने वाले वक्त में ट्रेडमार्क की उलझनें बढ़ते जाने के कारण भारत के लिए भारतीय चीजों पर भी अपना बौद्धिक अधिकार साबित करना कठिन हो सकता है. भारतीय खादी को भौगोलिक संकेतक (जियोग्राफिकल इंडिकेशन-जीई) स्टेटस दिलाने का मामला भी अभी फाइलों में ही उलझा हुआ है. भौगोलिक संकेतक का महत्व इससे समझा जा सकता है कि जिस तरह स्कॉच व्हिस्की की एक निश्चित भौगोलिक पहचान है, उसी तरह खादी को भी उसकी निश्चित पहचान यानी भारत के संबंध में दिलाई जा सके. यदि खादी को उसके पेटेंट के मार्फत हथियाने की विदेशी साजिशें सफल हो गई, तो भारत की मुश्किलें बढ़ जाएंगी.

वैसे तो भारत कुछ विशिष्ट तरीकों से अपने सामानों के पेटेंट बचाने के प्रयास कर रहा है. खासतौर से, भारत ने ट्रेडिशनल नॉलेज डिजिटल लाइब्रेरी (टीकेडीएल) बनाकर अब तक करीब 200 मामलों में अपने अधिकार बचाने में सफलता पाई है. स्थापना के बाद से टीकेडीएल अब तक पुदीना, कमल, ब्राह्मी, अगंधा, चाय की पत्ती, अदरक और दर्जनों भारतीय पेड़-पौधों और जड़ी-बूटियों पर विदेशियों के कब्जे को रोकने में कामयाब रही है. इस व्यवस्था के तहत दुनिया के किसी भी पेटेंट ऑफिस में कोई भी आवेदन दाखिल होने पर इसका पता ऑनलाइन चल जाता है. अगर इसमें भारत के परंपरागत ज्ञान का प्रयोग हो रहा हो तो टीकेडीएल एक्शन ले सकती है.

बहरहाल, भारतीय खादी समेत दूसरी चीजों और बौद्धिक संपदाओं का यूरोपीय-अमेरिकी कंपनियों द्वारा पेटेंट करवा लिए जाने पर भारतीय उत्पादों का यूरोपीय-अमेरिकी बाजारों में प्रवेश रु क सकता है और इनका व्यापार करने के लिए पेटेंटधारी कंपनी को हर साल रॉयल्टी देनी पड़ती है. इसलिए ऐसे मामलों में पर्याप्त सजगता बरतने की जरूरत है, अन्यथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों को इसी तरह भारतीय संपदाओं पर कब्जा जमाने का मौका मिलता रहेगा.

अभिषेक कुमार सिंह
लेखक


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