न्याय मिलने में देरी से उठते सवाल

Last Updated 19 Dec 2014 12:53:46 AM IST

देश के रेलमंत्री रहे ललित नारायण मिश्र की जनवरी, 1975 में समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पर आयोजित एक सरकारी समारोह के दौरान बम विस्फोट द्वारा हत्या कर दी गई थी.


न्याय मिलने में देरी से उठते सवाल

अब चार दशक के लंबे अरसे के बाद कुछ आरोपियों को दोषी करार दिया गया है, वह भी निचली अदालत द्वारा. अभी इन दोषियों के पास उच्च अदालतों में जाने के पूरे विकल्प खुले हुए हैं.

खुद ही अंदाजा लगाया जा सकता हैं कि जब निचली अदालत का फैसला आने में 40 वर्ष का समय लग गया, तो उच्च अदालतों का फैसला आने में कितना वक्त लगेगा! इस मामले ने एक बार फिर से भारतीय न्याय व्यवस्था की गतिहीनता पर सवालिया निशान लगाए हैं. जब एक कैबिनेट मंत्री की हत्या के मुकदमे का फैसला, वह भी निचली अदालत से, 40 साल बाद आता है, तो आम लोगों से जुड़े मुकदमों की स्थिति का अंदाजा सहजता से लगाया जा सकता है.

अक्सर कहा जाता है कि देरी से मिला न्याय, अन्याय के ही समतुल्य होता है. बावजूद, देश में मुकदमों के जल्द निपटारे हेतु कारगर कदम नहीं उठाए जा रहे हैं. आये दिन देश के कानून मंत्री एवं न्यायाधीशगण न्याय मिलने में हो रहे विलंब को लेकर चिंता जताते हैं, लेकिन फिर भी नतीजा सिफर ही रहता है. वर्तमान में देश की अदालतों में 3.3 करोड़ से ज्यादा मामले लंबित हैं. सर्वोच्च न्यायालय में 70 हजार के करीब मामले लंबित हैं एवं उच्च न्यायालयों में इनकी संख्या 45 लाख है, जबकि निचली अदालतों में 2.7 करोड़ मामले लंबित हैं.

दिन-प्रतिदिन मुकदमों की बढ़ती संख्या और निपटारे की घटती गति को देखते हुए आशंका है कि 2025 तक न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या 15 करोड़ हो जाएगी जिसके निपटारे में तकरीबन 450 वर्षों का समय लगेगा. यह कहना गलत न होगा कि न्याय में विलंब के कारण लोगों का विश्वास भारतीय न्याय व्यवस्था से उठने लगा है. कई मामले ऐसे भी देखने को मिलते हैं जो पीढ़ियों से चले आ रहे हैं. हालत यह है कि लोग अपने बाप-दादा के जमाने के मुकदमे अभी तक झेल रहे हैं.

न्याय में इसी विलंबता के चलते जेलों में विचाराधीन कैदियों की संख्या भी दिनोंदिन बढ़ती जा रही है. वर्तमान में भारतीय जेलों में तकरीबन 4.5 लाख लोग बंद हैं, जिनमें से तीन लाख केवल इसलिए बंद हैं कि उनके मुकदमे न्यायालयों में विचाराधीन हैं. कई बार ऐसा भी देखने को मिलता है कि इसी वजह से न जाने कितने बेगुनाह लोग अपनी जिंदगी जेल की सलाखों के पीछे ही गुजार देते हैं. कई बार पूरी जिंदगी कैद में बिताने या यमलोक सिधारने के बाद फैसला आता है कि वह व्यक्ति बेकसूर था.

अभी कुछ महीने पहले दुनिया के सभी देशों की न्यायिक प्रणाली पर नजर रखने वाले विश्व न्यायिक संगठन ने भी वैश्विक न्याय सूचकांक जारी करते हुए भारत में लचर न्याय व्यवस्था पर चिंता जताई है. प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इस लचर न्यायिक प्रणाली के लिए कौन जिम्मेदार है. भारत में लेटलतीफ न्यायिक व्यवस्था के लिए कई कारक जिम्मेदार हैं. देश में आबादी के अनुपात में न्यायाधीशों की तादाद में काफी कमी है.

अमेरिका में दस लाख की आबादी पर 135 न्यायाधीश हैं, कनाडा में 75, ऑस्ट्रेलिया में 57 और ब्रिटेन में 50 न्यायाधीश हैं; जबकि भारत में इनकी संख्या महज 13 है. इसके बावजूद अदालतों में न्यायाधीशों के पद सालों साल खाली पड़े रहते हैं. आंकड़ों के मुताबिक वर्तमान में उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों एवं अधीनस्थ न्यायालयों में जजों के तकरीबन 4,655 पद रिक्त पड़े हैं. एक तरफ अदालतों में मुकदमों का अंबार लगता जा रहा है, तो दूसरी ओर अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति ही नहीं की जा रही है. ऐसी स्थिति में लंबित मुकदमों के निपटारे एवं त्वरित न्याय की कल्पना कैसे की जा सकती है?

मुकदमों की बढ़ती संख्या के आधार पर अनुमान है कि आगामी 10 वर्षों में देश में 10 लाख जजों की जरूरत होगी. आबादी के ताजा आंकड़ों के हिसाब से 125 करोड़ भारतीयों के लिए हमें देश में 65 हजार अधीनस्थ न्यायालयों  की आवश्यकता है, लेकिन वर्तमान में 15 हजार न्यायालय भी नहीं हैं. यदि अमेरिका की बात करे तो वहां पर 10 लाख की आबादी पर 111 न्यायालय हैं और ब्रिटेन में 55 न्यायालय. यही नहीं, अदालतों के आधारभूत ढांचे की भी बात की जाए तो उसमें भी कई कमियां नजर आती हैं. कंप्यूटरीकरण एवं डिजिटलीकरण के आधुनिक युग में आज भी भारतीय न्यायालय बीते जमाने के र्ढे पर चल रहे हैं. अदालतों के कंप्यूटरीकरण की रफ्तार बिल्कुल सुस्त पड़ी हुई है. नई अदालतें बनाने का काम भी बहुत धीमी रफ्तार से चल रहा है. न्याय में देरी के लिए सिर्फ यही कारक ही उत्तरदायी नहीं हैं.

इसके अलावा भारत में अब न्यायिक लड़ाई लड़ना गरीबों के बस की बात रही ही नहीं. इस बात को सुप्रीम कोर्ट और सरकार दोनों ने स्वीकारा है. मुकदमों की बढ़ती संख्या को देखते हुए आज त्वरित न्यायिक व्यवस्था समय की मांग बन गई है. सरकार को इस दिशा में जल्द से जल्द पहल करनी चाहिए. हालांकि बीते कुछ समय से इस दिशा में सरकार कुछ पहलकदमी करती दिख रही है. केंद्र सरकार ने वर्ष 2015 तक देश की न्यायिक प्रणाली में सुधार के लिए राज्यों को पांच हजार करोड़ रुपए का अनुदान मुहैया कराया है.

राज्य इन अनुदानों की सहायता से लंबित मामलों को अतिशीघ्र निपटाने का प्रयत्न कर रहे हैं. इसके लिए प्रात: एवं सांध्य कालीन विशेष न्यायालयों का गठन हो रहा है. साथ ही अधिक से अधिक लोकअदालतों का आयोजन भी किया जा रहा है. न्यायिक प्रणाली को कंप्यूटरीयुक्त बनाने के लिए भी सरकार 935 करोड़ रुपए की अनुमानित लागत पर देश में जिला एवं अधीनस्थ न्यायालयों के लिए ई-न्यायालय परियोजना और उच्चतर न्यायालयों एवं आईसीई अवसंरचना के उन्नयन को कार्यान्वित कर रही है.

इसके साथ ही गांव के लोगों को सस्ता एवं सुलभ न्याय उपलब्ध कराने के उद्देश्य से ग्राम न्यायालय का गठन भी किया जा रहा है. केंद्र सरकार इसके लिए भी राज्यों को मदद दे रही है. सरकार के अलावा न्यायालय भी अपने स्तर से लंबित मामलों को जल्द से जल्द निपटाने की कोशिश कर रही है. इसीलिए भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने आरएम लोढा ने अदालतों को साल के 365 दिनों सुनवाई करने की सलाह दी थी और साथ ही जेलों में लंबे समय से बंद कैदियों की रिहाई की वकालत की थी.

भारतीय न्याय व्यवस्था की सबसे बड़ी विडंबना यह भी है कि सुधार की कोशिशें जोर-शोर से शुरू होती हैं, लेकिन अपेक्षित परिणाम मिलने के पूर्व ही यह कोशिशें मंद पड़ जाती हैं. अब देखना यह होगा कि सरकार और हमारी न्यायिक व्यवस्था इस बाबत मिले सुझावों को कब तक अमल में लाती है. यदि इन सुझावों पर अमल हुआ तो लंबित मामलों के शीघ्र निपटारे की राह खुलेगी और भारतीय न्याय प्रणाली को गति मिलेगी.

उमेश कुमार
लेखक


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