एक अदद बसेरे की उम्मीद में ठिठुरते लोग

Last Updated 18 Dec 2014 04:45:16 AM IST

आर्थिक तंगी के कारण राजधानी दिल्ली के रैन बसेरों में रात गुजारने वाले हजारों बेघर लोगों के संबंध में हाल में दिल्ली के उप राज्यपाल नजीब जंग की टिप्पणी ने एक बार फिर बेघर लोगों की तकलीफदेह हालात की ओर ध्यान दिलाया है.


एक अदद बसेरे की उम्मीद में ठिठुरते लोग

उन्होंने रैन बसेरों में सभी सुविधाएं सुनिश्चित करने की बात कही है. उप राज्यपाल ने कहा कि सर्दी के मौसम में बेघर लोगों को स्थायी ढांचों या केबिनेटों में रखा जाय और उन्हें जरूरी स्वास्थ्य सुविधाएं भी जाएं. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश में हर छोटे बड़े शहर में हजारों की संख्या में बेघर लोग आज भी सिर पर एक छत पाने को तरस रहे हैं. सर्दी के ठिठुरते मौसम में तो उनकी समस्याएं और भी बढ़ जाती हैं.

जहां एक ओर दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड के ताजा आंकड़ों के मुताबिक एक अकेले राजधानी दिल्ली में ही तकरीबन 17000 लोग बेघर हैं, वहीं दूसरी ओर  बेघरों से जुड़ी समस्याओं पर काम करने वाले गैर-सरकारी संगठनों के मुताबिक यह संख्या 55000 के करीब है. जबकि 2011 में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में सुप्रीम कोर्ट कमिश्नर ऑफिस, दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड और अन्य संस्थाओं की ओर से किये गए एक सर्वे के मुताबिक देश की राजधानी में बेघरों का आंकड़ा 2,46,800 के आसपास था.  आंकड़ों का यह घालमेल बताता है कि कितने लोग सिर पर छत न होने जैसी बुनियादी जरूरत से महरूम हैं,  उसकी भी सटीक जानकारी  उपलब्ध नहीं है.

बहरहाल  आंकड़ों के इस फेर के अलावा भी देखा जाय तो पूरे देश और राजधानी में बेघरों के हालात चिंतनीय और दुखद ही  हैं. सिर पर छत न होने के चलते खुले में फुटपाथ पर या सरकार द्वारा बनाये जाने वाले रैन-बसेरों में रातें बिताने वाले लोग विकास और समृद्धि की चमक की कड़वी हकीकत दशर्ते हैं. देश भर में हर साल कड़ाके की ठंड में सैकड़ों गरीब बेघर जान गवां देते हैं क्योंकि न उन्हें ठंड से बचाने के लिए उचित व्यवस्था होती है और न सही स्वास्थ्य सुविधाएं मिल पाती हैं. ऐसे में सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों के आंकड़ों से इतर भी इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता की बड़े शहरों में बेघरों और गरीबों की संख्या दिन ब दिन बढ़ती जा रही है.

गौरतलब है कि बेघर और आश्रित अकेले राजधानी दिल्ली में ही नहीं हैं. हमारे यहां हर छोटे-बड़े शहर और कस्बे में ऐसे लोग हैं जो मौसम की मार झेलते हुए खुले आसमान के नीचे रात बिताने के लिए मजबूर हैं. हालांकि राजधानी दिल्ली में ही नहीं, अन्य राज्यों में भी राज्य सरकारें गरीब लोगों के लिए रैन बसेरे बनवाती हैं पर बेघरों के अनुपात में वे पर्याप्त नहीं होते. साथ ही सरकारी  दावे और हकीकत में उपलब्ध कराई गयी सुविधाओं के आंकड़ों में भी जमीन आसमान का अंतर होता है.

हर वर्ष  प्रशासनिक संस्थाएं तमाम बेघर लोगों के लिए जरूरी इंतजाम किये जाने की बात कहती हैं पर इस मौसम में जान गंवाने वालों के आंकड़े कुछ और बयां करते हैं. इसी साल मानवाधिकार आयोग और उच्च न्यायलय के सख्त रवैये के बाद दिल्ली में बेघर लोगों को लेकर सर्वे करवाया गया था . जिसमें सामने आये आंकड़ों को  कई गैर सरकारी  संगठनों ने हकीकत से कोसों दूर बताया था. दिल्ली शहरी आश्रय बोर्ड के इस सर्वे के अनुसार राजधानी की सड़कों पर केवल 17000 लोग रात गुजारते हैं. ‘रेपिड सर्वे ऑफ होमलेस पॉपुलेशन इन दिल्ली’ की इस रिपोर्ट को तकरीबन सभी संगठनों ने गलत बताया था.

उस समय भी यह विवाद उठा था कि सरकार बेघरों और आश्रितों के लिए कुछ करने के बजाए उनके आंकड़ों को छुपा रही है. सवाल इस बात पर भी उठाया जाता रहा है कि बेघरों के लिए जो रैन बसेरे बनाये जाते हैं, उनमें भी सुरक्षा और सुविधा का भारी  आभाव होता है इसीलिए सरकार द्वारा किया जाने वाला यह प्रावधान भी आश्रित नागरिकों के लिए अच्छी सहूलियत नहीं बन पाता.

ठंड से जान बचने को बेबस लोग डर-सहमकर रैन बसेरों में रात बिताते हैं. पिछले महीने ही सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश सरकार से कहा है कि जाड़े के मद्देनजर बेघरों के लिए पर्याप्त शेल्टर होम बनाये जाएं. उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि अगर बेघर लोगों के लिए ठंड में रात बिताने के लिए समय रहते नाइट शेल्टर तैयार नहीं किये गए तो सख्त रवैया अपनाया जायेगा. बावजूद इसके इन सभी राज्यों में खुले आसमान के नीचे ठंड में ठिठुरते हुए रात गुजारने वाले लोग बड़ी संख्या में हैं.

गौरतलब है कि 2011 की जनगणना में देश भर में बेघरों की संख्या में कमी आने की बात सामने आई थी . उस समय भारत में बेघरों की संख्या तकरीबन 17 लाख बताई गयी थी. बीते दो सालों में हो सकता है कि यह आंकड़ा और भी कम हुआ हो पर जितने लोग आज भी बेघर हैं, उनके लिए भी ठिठुरन भरे इन दिनों में रात बिताने का कोई उचित प्रबंध नहीं मिलता. दिल्ली सहित पूरे उत्तर भारत में हर साल कई लोग ठंड के मौसम में अपनी जान गंवाते हैं.

सोचने वाली बात यह भी है कि गुजरते साल की शुरुआत यानी की जनवरी 2014 में ही ठंड से मरने की संख्या देखकर मानवाधिकार आयोग ने दिल्ली सरकार को नोटिस जारी कर बेघर नागरिकों की सुध लेने के साथ ही राजधानी दिल्ली में उपलब्ध  रैन-बसरों की संख्या और उनकी क्षमता की जानकारी देने की बात कही थी.

यह अफसोसजनक  ही है कि साल भर का समय बीत जाने और ठंड का  मौसम फिर आ जाने के बाद भी बेघरों के हालात जस के तस हैं. इस बार भी सर्दी की मार झेलने को अभिशप्त हजारों लोग सड़कों पर रात बिताने के लिए मजबूर हैं. उनके पास न ओढ़ने बिछौने का इंतजाम है और न पर्याप्त सर्दी के कपड़े. बीमार हो जाने पर इलाज करवाने की सुविधा भी उनके पास नहीं है. ऐसे में जरूरत की चीजों के अभाव में ठंड  का मौसम इन गरीब और बेघर लोगों पर बड़े कहर की तरह टूटता है.

इन परिस्थतियों में सबसे बड़ा सवाल यही है कि आर्थिक महाशक्ति बनने का सपना संजो रहे देश में आज भी अनगिनत नागरिक सड़क और फुटपाथ पर जिंदगी गुजारने को मजबूर हैं. इतना ही नहीं, जाड़े के कष्टप्रद मौसम में सीमित समय के लिए भी उनका जीवन बचाने  के पर्याप्त इंतजाम न होना और भी दुर्भाग्यपूर्ण है. यह चिंतनीय भी है और  विचारणीय भी कि आम जन के जीवन का मोल हमारे देश में कभी होगा भी या नहीं. घर किसी भी देश के नागरिकों की बुनियादी आवश्यकताओं में है. बेघर लोगों का जानलेवा सर्दी के मौसम में खुले आसमान तले रात बिताना बुनियादी अधिकारों का खुला हनन है.

हालांकि रैन-बसेरे भी बेघर लोगों की समस्या का स्थायी हल नहीं है. इस समस्या के सन्दर्भ में पूरे सरकारी तंत्र को गंभीरता से सोचने और देश के हर गरीब को छत उपलब्ध करवाने की आवश्यकता है. आज भी  देश की एक बड़ी आबादी का एक अदद छत के लिए तरसना और मौसम की मार झेलना विकास के सभी दावों और वादों पर प्रश्निचह्न ही लगाता है.)

मोनिका शर्मा
लेखिका


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment