काला धन आये धीरे-धीरे

Last Updated 29 Nov 2014 03:58:37 AM IST

चलिए, कम से कम एक बात का तो पता चल गया. छह महीना नयी सरकार के हाथ में भी जादू की छड़ी नहीं है.


काला धन (फाइल फोटो)

सरकार के पास जादू की छड़ी होती तो काले धन की वही गत नहीं बनती तो अच्छे दिनों की बन रही है. लाने का वादा तो खैर था ही, आने का दिलासा भी है. पर आने का मुहरूत ही बनकर नहीं दे रहा है- न काले धन का और न अच्छे दिन का. वरना क्या अब तक बाहर से काला धन देश में आ नहीं चुका होता! जनाब, आ ही नहीं चुका होता, ग्यारह-ग्यारह या तेरह-तेरह लाख रुपये के हिसाब से पब्लिक में बांटा भी जा चुका होता. हर बंदा लखपति बन चुका होता और गाड़ी में नहीं भी घूम रहा होता तो कम से कम सिर पर छतवाला और जेब में सेलफोनवाला तो जरूर बन गया होता. बाजारों में ऐसी दीवाली मन रही होती कि पूछो मत. अच्छे दिनों का आना इसे भी नहीं कहते तो किसे कहते? पर न काला धन खुद आया और न उसने अच्छे दिनों को आने दिया. उल्टे वित्तमंत्री जी को संसद में ऐलान करना पड़ा कि काले धन के मामले में इतनी उतावली भी ठीक नहीं है. आएगा, जरूर आएगा, पर अभी वक्त लगाएगा. काला धन बबुआ, धीरे-धीरे आई!

पर अपने यहां तो बात का बतंगड़ बनाने का ही चलन रहा है. भाई लोग इसी को पकड़ कर बैठ गए हैं कि वे अब यह क्यों कह रहे हैं कि काला धन धीरे-धीरे आएगा. पहले तो धीरे-धीरे की कोई बात नहीं थी. उल्टे तब तो कहते थे कि तुम हमें गद्दी दो, हम तुम्हें काला धन देंगे, तुरंत देंगे और हद से हद सौ दिन में देंगे! शुक्र है गृहमंत्री जी का कि उन्होंने वक्त रहते दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया, वर्ना अपोजीशनवालों ने तो शोर मचा-मचाकर सब को इसका यकीन ही दिला दिया था कि उन्होंने वाकई सौ दिन का वादा किया था. उन्होंने साफ कर दिया कि व्यक्तियों के वादों की वह नहीं कह सकते, पर न उनकी पार्टी ने सौ दिन का वादा किया था और न उनकी सरकार ने. हां! लाने का वादा जरूर किया था और लाएंगे भी. पर इतनी उतावली ठीक नहीं है. पूरे साढ़े चार साल तो इसी पारी में पड़े हैं. रही बात सरकार बनाने के बाद यह कहने की कि काला धन तो धीरे-धीरे ही आएगा, पहले उन्हें इसका ही कहां पता था कि उन्हें जादू की छड़ी के बिना सरकार चलानी पड़ेगी. उन्हें कोई जादू की छड़ी दिलवा दे, फिर झट से काला धन न मंगवा दें तो नाम बदल लेंगे.

सच पूछिए तो हमें तो जादू की छड़ी के मामले में भी भारी घोटाला लगता है. साठ साल से जो चल रहा था, उसे पलटने वालों की सरकार तो बन गयी, पर जादू की छड़ी उन्हें नहीं सौंपी गयी. सौंपी भी कैसे जाती, पिछली सरकार वाले तो पहले ही और सिर्फ काला धन वापस लाने के मामले में ही नहीं बल्कि दूसरे मामलों में भी, कितनी ही बार ऐलान कर चुके थे कि उनके पास कोई जादू की छड़ी नहीं है. पर उन्होंने कभी यह नहीं बताया कि जादू की छड़ी आखिर गयी तो गयी कहां? कहां गयी की छोड़िए, उन्होंने तो यह पता लगाने तक की जहमत नहीं उठायी कि जादू की छड़ी गायब है तो कब से? न कभी कोई जांच बैठायी गयी और न उसके गायब होने की कोई एफआईआर लिखायी गयी. जादू की छड़ी जैसी चीज इतने अर्से से गायब है और उसका पता लगाने की किसी ने परवाह ही नहीं की! हमें तो इस पूरे मामले में ही बड़े से घपले-घोटाले की गंध आ रही है. कहीं ऐसा तो नहीं कि जादू की छड़ी कहीं, कभी रही ही हो न हो. जादू की छड़ी कोरी गप्प हो बल्कि एक छलावा हो, सिर्फ दूर से दिखाई देने वाला, काले धन की तरह. विपक्ष में बैठो तो हर वक्त दिखाई दे और सरकार में बैठकर देखो तो एकदम गायब!

काले धन के छलावा होने की बात इसलिए भी समझ में आती है कि धन तो आखिरकार, धन है. धन के काला-सफेद होने का आइडिया ही हमें समस्यापूर्ण लगता है. धन काला-सफेद नहीं होता. कानून ही हैं जो बेचारे धन को काला या सफेद बनाते हैं और जिसे काला बनाते हैं, उसे या तो देश से भागने पर मजबूर कर देते हैं या फिर भूमिगत हो जाने पर. कानून हटा दो, तो न लाना पड़ेगा न मंगाना पड़ेगा. काला धन खुद सफेद हो जाएगा और खुद ब खुद दौड़ा हुआ चला आएगा. हां! कानून हटाने, बदलने या बनाने में कुछ समय जरूर लगता है. कहीं सरकार इसीलिए तो अब यह नहीं गा रही है- काला धन बबुआ, धीरे-धीरे आई!

 

कबीरदास
व्यंगकार


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment