दक्षेस देशों को बदलनी होगी मनोदशा

Last Updated 28 Nov 2014 04:00:20 AM IST

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दक्षेस मंच से अपनी हाल की यात्राओं का जिक्र करते हुए कहा कि प्रशांत के मध्य से लेकर अटलांटिक महासागर के दक्षिणी तट तक उन्होंने एकीकरण का एक बढ़ता हुआ ज्वार देखा है.


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दक्षेस सम्मेलन में बोलते हुए.

इसमें व्यापक क्षेत्रीय आर्थिक साझेदारी, अंत: प्रशांत साझेदारी और अंत: अटलांटिक व्यापार एवं निवेश साझेदारी जैसे बड़े व्यापार समझौतों पर बातचीत बढ़ रही है. प्रधानमंत्री की इस बात में पूरी सच्चाई है. वैसे भी यह समय वैश्विक साझेदारी का ही है क्योंकि कोई भी एक राष्ट्र प्रतिस्पर्धा के इस युग में अकेले ही बहुमुखी प्रगति नहीं कर सकता. लेकिन यह तभी संभव हो सकता है कि जब सबसे पहले उसके पास अच्छे पड़ोसी हों, अन्यथा किसी भी प्रगतिशील देश के लिए उसके पड़ोसियों की सीमाएं अवरोधी दीवारों का काम करने लगती हैं. दक्षेस में न केवल भारत के साथ बल्कि अधिकांश देशों के साथ ऐसा ही है.

प्रधानमंत्री मोदी ने दक्षेस देशों का ध्यान इस ओर भी खींचने की कोशिश की कि दुनिया में कहीं भी सामूहिक प्रयासों की उतनी जरूरत नहीं है, जितनी कि दक्षिण एशिया में. हालांकि वे इस बात पर औपचारिक संतुष्टि जाहिर करते दिखे कि 30 वर्ष पहले सार्क के रूप में हम एकजुट हुए और तब से हम एक साथ लंबी दूरी तय कर चुके हैं. लेकिन आज हम वैश्विक प्रतियोगिता के युग में हैं इसलिए हमें निरपेक्ष प्रगति को नहीं बल्कि सापेक्ष प्रगति का आकलन करने की जरूरत होगी और उस पैमाने पर हमें निराशावाद और संशयवाद जैसे दो विराट विषयों का सामना करना पड़ेगा.

वास्तव में दक्षेस के अब तक 18 शिखर सम्मेलन हो चुके हैं, लेकिन अब तक प्रगति कितनी हुई- सिफर या इससे कुछ ज्यादा. इसका मतलब तो यह हुआ कि दक्षेस देश या तो वैश्विक परिवर्तनों के अनुरूप अपनी मनोदशा बदलने में नाकाम रहे हैं या फिर विकास का मैकेनिज्म, जिसके चलते दक्षिण एशिया दुनिया के सर्वाधिक गरीबों का निवास बन गया. यहां युवाओं और महिलाओं में बेरोजगारी की दर काफी ज्यादा है. 1.7 अरब आबादी में से 60 करोड़ से भी अधिक लोग प्रतिदिन सवा डॉलर से कम पर गुजारा कर रहे हैं, 25 करोड़ से भी ज्यादा बच्चे कुपोषित हैं और अब भी अधिकांश महिलाओं के प्रसव के समय कुशल डॉक्टर उपलब्ध नहीं होते. दक्षेस देश अब तक इकोवास (इकोनॉमिक कम्युनिटी ऑफ वेस्ट अफ्रीका) देशों के बराबर ही प्रतिव्यक्ति आय हासिल कर पाए हैं.

वर्ष 2002 में काठमांडू में आयोजित 11वीं दक्षेस शिखर बैठक में तय किया गया था कि दक्षिण एशियाई देश मिलकर एक आर्थिक संघ बनाएंगे. यही नहीं, 2004 में इस्लामाबाद में हुए 12वें शिखर सम्मेलन में इस दिशा में आगे बढ़ते हुए एक समझौता भी हुआ था जिसके तहत दक्षिण एशिया को मुक्त व्यापार क्षेत्र में बदलना था. यह समझौता एक जुलाई 2006 से लागू हो गया, लेकिन क्या यह क्षेत्र मुक्त व्यापार क्षेत्र में बदल पाया! 2002 के काठमांडू से चलकर दक्षेस देश पुन: काठमांडू पहुंच गए लेकिन कार्य कितना हुआ! उल्लेखनीय है कि अंतर-क्षेत्रीय व्यापार के मामले में संभवत: यह संगठन सबसे ज्यादा फिसड्डी है. कुल अंतर-क्षेत्रीय कारोबार में अब तक दक्षेस की हिस्सेदारी केवल पांच प्रतिशत है जबकि इसके बाद निर्मित हुए दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के संगठन ‘आसियान’ में यह आंकड़ा 25 प्रतिशत तक पहुंच गया है. अंतर-क्षेत्रीय व्यापार के मामले में उत्तर अमेरिकी मुक्त व्यापार समझौता (नाफ्टा) 40 प्रतिशत पर है जबकि यूरोपीय यूनियन (ईयू) के मामले में यह आंकड़ा 60 प्रतिशत से भी अधिक है.

सामान्यतया भारत और पाकिस्तान के आपसी टकराव को इसके लिए दोषी मान लिया जाता है. लेकिन इसके पिछड़ेपन की असल वजह केवल यही नहीं है. कुछ अन्य वजहें भी हैं जो दक्षेस को आगे बढ़ने से रोकती हैं. पहला- इस संगठन के निर्माण के पीछे एक गौण पक्ष यह भी था कि भारत दक्षिण एशिया का शक्तिशाली राष्ट्र है जो दक्षिण एशिया के दूसरे सबसे बड़े देश पाकिस्तान को दो बार हरा चुका था, इसलिए उस पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिए सभी दक्षिण एशियाई देशों को एकजुट होना जरूरी हो गया था. संभवत: दक्षेस के निर्माण के समय का यह मनोविज्ञान अब भी बरकरार है जिसका फायदा चीन या कुछ अन्य देश भी उठाते रहते हैं. दूसरा- दक्षिण एशिया में आतंकवाद एक बड़ी चुनौती है जिसके लिए प्रमुख रूप से पाकिस्तान जिम्मेदार है, लेकिन दक्षेस एकमत से पाकिस्तान को कभी कठघरे में खड़ा करने की क्षमता नहीं जुटा सका.

तीसरा- दक्षेस नवोन्मेष, पूंजी निर्माण, अधिसंरचनात्मक विकास, प्रौद्योगिकी, कुशल प्रबंधन और सामाजिक पूंजी के निर्माण के मामले में दुनिया के मुकाबले बहुत पीछे है. चौथा- दक्षेस देशों में भ्रष्टाचार और गुड गवर्नेस का अभाव है जिसके चलते आंतरिक अशांति की स्थिति बनी रहती है. इन्हीं वजहों से इस क्षेत्र रोजगार के सबसे कम अवसर पैदा होते हैं फलत: युवा शक्ति कुंठा का शिकार होती है और कभी-कभी वह गतिविरोधी, शांतिविरोधी अथवा राष्ट्रविरोधी गतिविधियों से जुड़ जाती है. पांचवां- दक्षेस देशों के समाजों का अधिकांश हिस्सा वैश्विक प्रगति के मुकाबले काफी पिछड़ा है जिसके कारण वह कुंठा और विद्वेष की मानसिकता से बाहर नहीं आ पाता. ऐसे में जब एक देश-एक परिवार के रूप में संगठित नहीं हो पाता तो क्षेत्रीयता को जोड़ पाना नामुमकिन-सा लगता है. छठा- ज्यादातर दक्षेस देशों में उत्पादों की परंपरागत समानता है जिससे अलग-अलग देशों में मांग ही नहीं पैदा हो पाती.

भारत के अलावा, सभी दक्षेस देश अपने सहयोगियों के साथ कारोबार के लिए अलग-अलग उत्पाद नहीं जुटा पाते हैं. सातवां- अधिक कारोबारी विकल्पों और साधनों का अभाव, इसलिए प्रतियोगिता की संभावनाएं ही सीमित हो जाती हैं. इस सबके बावजूद यदि चीन, ईरान, म्यांमार, इंडोनेशिया और रूस सहित तमाम देश दक्षेस की तरफ आकषिर्त हो रहे हैं, तो स्पष्ट है कि इसमें अपार संभावनाएं हैं. ऐसे में इस संगठन के सबसे बड़े और प्रगतिशील राष्ट्र होने के कारण भारत की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह सदस्य देशों के बीच संबद्धता और साझेदारी के निर्माण का महान दायित्व ग्रहण करे और दक्षेस के पांचों स्तंभों यानी व्यापार, निवेश, सहायता, सभी क्षेत्रों में सहयोग, कनेक्टिविटी को मजबूत बनाने का कार्य करे. लेकिन यह तभी संभव होगा जब अन्य देश भी भविष्य की ओर देखें और कड़वे अतीत को भुलाने की कोशिश करें. भारत ने तो काठमांडू में अपने दायित्वों को ग्रहण करने की हामी भरते हुए दुनिया के इस अंधकारमय कोने को प्रकाशमान बनाने की महत्वाकांक्षा पेश की है, लेकिन शेष देशों को अभी इस दिशा में बहुत कुछ करना है.

(लेखक विदेशी मामलों के जानकार हैं. आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं)

 

रहीस सिंह
लेखक


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