पूंजी की किल्लत से बेदम सरकारी बैंक

Last Updated 28 Nov 2014 03:47:08 AM IST

सरकार ने साफ कर दिया है कि सरकारी बैंकों का निजीकरण नहीं किया जाएगा.


सरकारी बैंकों में पूंजी की किल्लत.

वित्त मंत्री को यह बयान इसलिए देना पड़ा, क्योंकि भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा पी के नायक की अध्यक्षता में गठित समिति द्वारा सरकारी बैंकों के निजीकरण की सिफारिश की गई थी. नायक समिति का कहना था कि सरकारी बैंकों के निजीकरण से नियामक बाधाएं समाप्त हो जाएंगी और वे एक प्लेटफॉर्म पर निजी बैंकों के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकेंगे. साथ ही, वे बासेल तृतीय के मानकों को पूरा करने और बढ़ते एनपीए से निजात पाने के लिए बैंक शेयर बाजार के जरिये खुदरा निवेशकों या संस्थागत निवेशकों के बीच अतिरिक्त हिस्सेदारी बेचकर पैसा जुटाने में समर्थ हो सकेंगे.

गौरतलब है कि बासेल तृतीय के मानकों को पूरा करने के लिए 2018 तक 2.4 लाख करोड़ रुपये और एनपीए की 2.5 लाख करोड़ रुपये से ऊपर की राशि जुटाने की चुनौती सरकारी बैंकों के समक्ष है, जिसे पूरा करना आसान नहीं है. इसलिए सरकार ने सरकारी बैंकों में अपनी न्यूनतम हिस्सेदारी की सीमा घटाकर 51 प्रतिशत करने के लिए शीतकालीन अधिवेशन में मौजूदा बैंकिंग अधिनियम में संशोधन का फैसला किया है. मालूम हो कि 9 सरकारी बैंकों में सरकारी हिस्सेदारी 58 प्रतिशत है और अन्य 10 में यह 65 से 85 प्रतिशत तक है.

भारतीय स्टेट बैंक एवं उसके सहयोगी बैंकों में भी सरकार की हिस्सेदारी समान नहीं है. सरकारी बैंकों के लिए अंतरराष्ट्रीय बैंकिंग क्षेत्र के साथ अनुकूलता स्थापित करने के साथ-साथ बासेल तृतीय के मानकों को पूरा करना एवं एनपीए कम करना इसलिए जरूरी है, क्योंकि इस कवायद से उन्हें 2007-08 जैसी भीषण अंतरराष्ट्रीय मंदी का बेहतर तरीके से सामना करने का अवसर मिलेगा. उल्लेखनीय है कि बासेल तृतीय के मानकों को पूरा करने के लिये बैंकों को कम से कम 8 प्रतिशत इक्विटी कैपिटल रेशियो की जरूरत है और इस क्रम में पूंजी पर्याप्तता अनुपात भी 9 से बढ़ाकर 11.5 प्रतिशत करना होगा. रिजर्व बैंक के मुताबिक इन मानकों को पूरा करने के लिए सरकारी बैंकों को 2.4 लाख करोड़ रुपये चाहिए. लिहाजा, सरकार ने सरकारी बैंकों को 10000 करोड़ रुपये मुहैया कराने का फैसला किया है. अंतरिम बजट में भी सरकारी बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए 11200 करोड़ का प्रावधान था.

गौरतलब है कि संपत्ति की गुणवत्ता में गिरावट के चलते पिछले कुछ सालों से सरकारी क्षेत्र के बैंकों पर संकट है. गैर निष्पादित आस्तियां (एनपीए) मुनाफे में जबर्दस्त सेंध लगा रही हैं. अंतरराष्ट्रीय रेटिंग ऐजेंसी मूडी के मुताबिक वित्त वर्ष 2014-15 में भी सरकारी बैंकों के एनपीए स्तर में बढ़ोतरी जारी रहेगी. सरकारी बैंक पूंजी के अभाव में ऋण नहीं दे पा रहे हैं जिसके कारण देश में औद्योगिक मंदी की स्थिति उत्पन्न हो गई है. फिलहाल भारतीय बैंकिंग क्षेत्र की अग्रिम विकास दर दस प्रतिशत से ऊपर है, जबकि  अर्थव्यवस्था में छाई मंदी दूर करने एवं बैंकिंग इंडस्ट्री की मजबूती के लिए इसे 20 प्रतिशत करना जरूरी है.

पूंजी की समस्या से सरकारी बैंकों को जूझने के कारण चालू वित्त वर्ष में विकास दर के 5.5 से 5.9 प्रतिशत रहने का आकलन किया जा रहा है. इसके कारण महंगाई से भी जनता को राहत नहीं मिल सकी है. खासकर खुदरा मंहगाई परेशानी का कारण है. इस क्रम में राजकोषीय घाटा कम होने के आसार हैं. एक अनुमान के मुताबिक राजकोषीय घाटा 2013-14 में 4.6 प्रतिशत था, जो 2014-15 में घटकर 4.1 प्रतिशत हो सकता है. यह अवश्य अच्छा संकेत है, मगर स्थायी तभी रह सकता है, जब सरकारी बैंकों का पुनर्पूंजीकरण किया जाये.  

बहरहाल, बासेल तृतीय और एनपीए के कारण बैंकों की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है. नवंबर, 2012 से बैंककर्मिंयों का वेतन समझौता न होने का प्रमुख कारण बढ़ते एनपीए को बताया जा रहा है. बैंकों का सकल एनपीए अनुपात मार्च, 2013 में 3.26 प्रतिशत था जो मार्च, 2014 में बढ़कर 3.85 प्रतिशत हो गया. एक आकलन के अनुसार एवियेशन, टेलिकॉम, सड़क, पावर, कोयला आदि क्षेत्रों में बैंकों के कर्ज ज्यादा फंसे हैं. कारपोरेट्स को दिये गये ऋण की वसूली नहीं हो पा रही है. रिजर्व बैंक द्वारा जारी ताजा आंकड़ों के मुताबिक कार्पोरेट्स की तरफ से 4 लाख करोड़ रुपये के ऋण के पुनर्गठन की मांग की जा चुकी है, जिसमें 2.90 लाख करोड़ के ऋण प्रस्तावों के पुनर्गठन की मंजूरी दी गई है. यदि एनपीए और पुनर्गठित ऋण खातों में फंसी राशि जोड़ी जाए तो यह 100 अरब डॉलर हो जाती है, जो निश्चित रूप से सरकारी बैंकों और सरकार के लिए खतरे की घंटी है. गौरतलब है कि कर्ज पुनर्गठन या कॉरपोरेट डेट रिस्ट्रक्चरिंग (सीडीआर) के लिए बैंक द्वारा अनुशंसा की जाती है. स्वीकृति के पश्चात कर्ज का पुनर्गठन किया जाता है. सीडीआर में जाने के बाद कॉरपोरेट्स के ऋण खातों पर रियायती दर पर ब्याज प्रभारित किया जाता है और ऋण की समयावधि भी बढ़ा दी जाती है. सीधे तौर पर इसे बेल आउट तो नहीं कह सकते हैं लेकिन इसका स्वरूप बहुत हद तक इससे मिलता जुलता है.

हाल में सरकारी बैंकों को प्रधानमंत्री जनधन योजना लागू कराने की जिम्मेदारी दी गई थी, जिसे पूरा करने में बैंक बहुत हद तक सफल रहे हैं. पहले ही दिन सरकारी बैंकों ने एक करोड़ से अधिक खाते खोले. इसके बरक्स समस्या बैंक खाता खोलने में होने वाले परिचालन खर्च और बैंक की मौजूदा प्रणाली को लेकर है. जानकारों के मुताबिक प्रधानमंत्री जनधन योजना के तहत खोले जा रहे खर्च की भरपाई खोले गये खातों से नहीं की जा सकती है. साथ ही, सरकारी बैंक तकनीकी स्तर पर इतने समर्थ नहीं हैं कि वे करोड़ों नये खातों का बोझ संभाल सकें. ऐसे में सरकारी बैंकों को पूंजी की दरकार होगी, जिसे पूरा करना में सरकारी बैंकों का परेशानी में होना लाजिमी है. बीते सालों में देखा गया है कि सरकारी बैंकों में भ्रष्टाचार के मामलों में तेजी से इजाफा हुआ है. कुछ मामलों में बैंक प्रमुख की संलिप्तता पाई गई है, जो साबित करता है कि भ्रष्टाचार के कारण बड़े कर्ज की गुणवत्ता में कमी आई है, जिससे सरकारी बैंकों के एनपीए में इजाफा हो रहा है. पूंजी की किल्लत के कारण सरकारी बैंक कर्ज देने से परहेज कर रहे हैं जिसके कारण औद्योगिक मंदी कायम है.

लब्बोलुबाव यह कि तमाम कारणों से सरकारी बैंक पूंजी की कमी का सामना कर रहे हैं, जिससे अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है. सरकार द्वारा सरकारी बैंकों में मौजूदा न्यूनतम हिस्सेदारी कम करके 51 प्रतिशत करना समय की मांग है. सरकार के इस कदम से न सरकारी बैंकों का निजीकरण होगा और न सामाजिक सरोकारों को अमली जामा पहनाने में किसी तरह की परेशानी होगी, लेकिन सरकार द्वारा उठाये जाने वाले इस कदम से ही सिर्फ सरकारी बैंकों का पुनर्पूंजीकरण नहीं हो सकेगा. दूसरे विकल्पों पर भी विचार करना होगा, अन्यथा इनकी मुश्किलें और बढ़ेगी.

सतीश सिंह
लेखक


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