बदलेगी घाटी की राजनीतिक फिजा!

Last Updated 26 Nov 2014 12:46:07 AM IST

दो राज्यों जम्मू-कश्मीर और झारखंड में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं. ये ऐसे राज्य हैं जो प्राकृतिक संपदा से मालामाल हैं लेकिन इनके निवासी बेहाल हैं.


बदलेगी घाटी की राजनीतिक फिजा!

दोनों राज्यों की समस्याएं और उनके कारण अलग हैं. लेकिन एक बात साझा है कि दोनों ही राजनीतिक भ्रष्टाचार और कुशासन का शिकार हैं. एक आतंकवाद से जूझ रहा है तो दूसरा माओवाद से. दोनों ही राज्यों के लोगों ने विकास के वायदे तो बहुत सुने हैं लेकिन होता कुछ नहीं. हर बार उम्मीद बहुत जल्दी नाउम्मीदी में बदल जाती है. एक बार फिर उम्मीद जगी है. इस बार क्या होगा यह तो पांच साल बाद ही पता चलेगा. लेकिन मतदाता उम्मीद को एक और मौका देने को तैयार है.

चुनाव में पांच साल में एक बार मतदाता को अपनी सरकार के बारे में फैसला सुनाने का मौका मिलता है. पिछले करीब दो दशकों से मतदाता जिन सरकारों के कामकाज से संतुष्ट होता है, उसे फिर मौका देता है. इसलिए तवे पर रखी रोटी को उलटने-पलटने की तरह सत्तारूढ़ पार्टी को हर पांच साल पर बदलने की परिपाटी खत्म नहीं तो कम तो हो ही गई है. लेकिन झारखंड में तो मतदाताओं के मौका दिए बिना ही राजनीतिक दलों ने यह काम कर दिखाया.

इसी विधानसभा में भाजपा, कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा सहित सारी पार्टियां सत्ता का सुख भोग चुकी हैं. किसे सत्तारूढ़ कहा जाए और किसे विरोधी, तय करना कठिन है. राजनीतिक अस्थिरता जन्म से ही झारखंड के साथ जुड़ी हुई है. कभी किसी पार्टी को जनता ने पूर्ण बहुमत देने लायक नहीं समझा. तो किसी सत्तारूढ़ दल ने जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई. झारखंड एक ऐसा राज्य है जहां झारखंड विकास मोर्चा के बाबूलाल मरांडी को छोड़कर किसी दल के मुख्यमंत्री और मंत्रियों को ईमानदार बताने के लिए झूठ का सहारा लेना पड़ेगा.

झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस की इस समय राज्य में सरकार है लेकिन चुनाव दोनों पार्टियां अलग-अलग लड़ रही हैं. झारखंड चौदह साल पहले राज्य बना था. इन चौदह सालों में बारह साल भाजपा किसी न किसी के साथ गठबंधन में सत्ता में रही है. राज्य की बदहाली का उसके पास कोई जवाब नहीं है. अपने ईमानदार नेता बाबूलाल मरांडी को वह पार्टी में नहीं रख सकी. हालत यह है कि पार्टी किसी नेता को मुख्यमंत्री के रूप में पेश करने की स्थिति में नहीं है. पार्टी को अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि और अपील का आसरा है. नरेंद्र मोदी के ही नाम पर पार्टी को राज्य में लोकसभा की चौदह में से बारह सीटें मिली थीं. मोदी के प्रति लोगों के आकर्षण में अभी कमी नहीं आई है. इसके बावजूद सामाजिक समीकरण साधने के लिए भाजपा ने सुदेश महतो की आल झारखंड स्टूडेंट यूनियन से गठबंधन किया है.

कांग्रेस दूसरे प्रदेशों की ही तरह यहां भी हारे हुए मन से चुनाव लड़ रही है. उसने झामुमो के साथ सरकार इस भरोसे पर बनाई थी कि विधानसभा चुनाव दोनों मिलकर लड़ेंगे. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. बाबूलाल मरांडी की पार्टी प्रदेश की एकमात्र बढ़ती हुई पार्टी लग रही थी. लेकिन लोकसभा चुनाव में अपनी भी सीट हारने के बाद से मरांडी के सितारे गर्दिश में नजर आ रहे हैं. उनके कई विधायकों को भाजपा ने तोड़ लिया.

वे भाजपा से चुनाव पूर्व गठबंधन चाहते थे और भाजपा विलय चाहती थी, इसलिए बात बनी नहीं. खनिज संपदा के मामले में झारखंड ऑस्ट्रेलिया के बराबर है. लेकिन यह संपदा झारखंड के लोगों की नहीं नेताओं, अफसरों और उद्योगतियों की भी तिजोरी भर रही है. उस पर से प्रदेश के एक बड़े इलाके के लोग माओवादी हिंसा का शिकार हैं. यहां सरकारें लूटती हैं और माओवादी मारते हैं.

जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव इस बार थोड़े अलग नजर आ रहे हैं. इस मायने में कि जम्मू के हिंदू बहुल इलाके तक सीमित भाजपा इस बार राज्य में सत्ता का दावा कर रही है. भाजपा मिशन 44 प्लस के नारे के साथ चुनाव मैदान में उतरी है. पहली बार भाजपा कश्मीर घाटी में अपना खाता खोलना चाहती है. उसने पहली ही बार बड़े पैमाने पर मुस्लिम उम्मीदवारों को चुनाव में उतारा है. पिछले छह महीने में प्रधानमंत्री पांच बार राज्य का दौरा कर चुके हैं.

बाढ़ पीड़ितों की मदद में केंद्र सरकार से लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग जुटे हैं. प्रधानमंत्री ने अपनी दिवाली कश्मीर में मनाई. पर पार्टी संविधान के अनुच्छेद 370 के मुद्दे पर फंसी हुई है. भाजपा विधानसभा चुनाव में इसे मुद्दा नहीं बनाना चाहती. उसे पता है कि यह मुद्दा बना तो उसे नुकसान हो जाएगा. लेकिन उसके विरोधी बार-बार उसे इस मुद्दे पर घेर रहे हैं. प्रधानमंत्री ने राज्य में अपनी पहली चुनावी रैली में केवल विकास की बात की.

नेशनल कांफ्रेंस और मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला पहली बार अपने पिता फारूक अब्दुल्ला की अनुपस्थिति (उनका लंदन में इलाज चल रहा है) में चुनाव लड़ रहे हैं. बाढ़ से निपटने में राज्य सरकार की नाकामी, गठबंधन के साथी कांग्रेस का अलग चुनाव लड़ना और पार्टी के करीबी सहयोगियों का साथ छोड़ना उनके लिए भारी पड़ रहा है. उमर अब्दुल्ला और कांग्रेस दोनों को पता है कि उनका राज जा रहा है. प्रदेश की दूसरी बड़ी पार्टी मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीडीपी के हौसले बुलंद हैं. उसे लग रहा है कि वह सत्ता में आ रही है.

इस चुनाव में एक और बात देखने को मिल रही है कि कांग्रेस के अलावा भाजपा विरोधी सारे दल नरेंद्र मोदी की सीधी आलोचना करने से बच रहे हैं. कभी अलगाववादी रहे सज्जाद लोन तो मोदी के किसी भाजपाई से भी बड़े प्रशंसक बन गए हैं. भाजपा की सारी उम्मीद घाटी में कम मतदान होने और कश्मीरी पंडित वोटों के सहारे कुछ सीटें निकालने पर टिकी है. भाजपा विरोधी चाहते हैं कि इस बार अलगाववादी चुनाव बहिष्कार की अपील न करें. ऐसा हुआ तो भाजपा की उम्मीदों पर पानी फिर सकता है.

लोकसभा सीटों की दृष्टि से ये दोनों राज्य भले ही छोटे दिखते हों लेकिन दोनों के मतदाताओं के फैसले का असर राष्ट्रीय राजनीति पर होना तय है. झारखंड में भाजपा को साफ बढ़त नजर आती है. लेकिन जम्मू-कश्मीर में पीडीपी और भाजपा में कड़ी टक्कर है. भाजपा जम्मू और लद्दाख में मजबूत नजर आती है, तो पीडीपी घाटी में नंबर एक की पार्टी दिख रही है. जम्मू-कश्मीर में भाजपा का अकेले या गठबंधन में सत्ता में आना देश की राजनीति में बहुत बड़ा बदलाव ला सकता है.

इन दोनों राज्यों के विधानसभा चुनाव एक बार प्रधानमंत्री की लोकप्रियता का लिटमस टेस्ट बनेंगे. क्या झारखंड और जम्मू-कश्मीर, खासतौर से घाटी के लोग प्रधानमंत्री के विकास के वायदे पर भरोसा करेंगे! वैसे तो हर चुनाव राजनीतिक दलों के लिए निर्णायक साबित होते हैं लेकिन देश में मौजूदा समय में जैसा राजनीतिक माहौल बना हुआ है, उसमें मोदी हर चुनाव में कसौटी पर हैं. उनकी जरा-सी फिसलन उनके विरोधियों को बहुत बड़ा अवसर दे देगी.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं)

प्रदीप सिंह
लेखक


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