परीक्षा पूरी राजनीतिक बिरादरी की

Last Updated 25 Nov 2014 12:37:15 AM IST

देश बेशक अभी जम्मू-कश्मीर और झारखंड के विधानसभा चुनावों की राजनीतिक गहमागहमी और उससे भी बढ़कर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की विदेश यात्राओं के खुमार में डूबा है.


परीक्षा पूरी राजनीतिक बिरादरी की

लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं कि इन सबके चलते संसद का शीतकालीन सत्र गुमनामी में गुजर जाए. संसद है तो हंगामा स्वाभाविक है. भले ही कई लोकसभाओं के बाद इस बार एक दल के पूर्ण बहुमत की सरकार है और उसे अपने मन के विधायी कामकाज निपटाने के लिए हाल की अन्य सरकारों की तरह बीस से ज्यादा दलों का मुंह नहीं जोहना पड़ रहा है.
इस सत्र में भी काफी महत्वपूर्ण बिल पेश होने हैं. भले ही लोकसभा में सरकार को किसी की मदद नहीं चाहिए लेकिन राज्यसभा में और संविधान संशोधन बिलों पर तो जोड-तोड़ का सहारा लेना ही होगा.

इसमें बिल के महत्व से भी ज्यादा राजनीतिक महत्व के नतीजे निकलेंगे, गोलबंदियां होंगी. भले ही सरकार के सर्वाधिक सक्रिय मंत्री अरुण जेटली इसे सरकारी पक्ष की परीक्षा वाला सत्र बताएं, लेकिन असल परीक्षा विपक्ष की होगी जिसके कौशल का इम्तेहान सरकार को परेशान करने और संसद में पेश बिलों में अपनी इच्छा के बदलाव कराने के साथ भाजपा और नरेन्द्र मोदी विरोधी राजनीति को ठोस रूप देने के रूप में होगा. इसलिए हैरानी नहीं कि विपक्ष ने इस सत्र में पेश होने वाले बिलों और उनके आर्थिक-राजनीतिक पहलुओं पर चर्चा करने की जगह सरकार से वायदा निभाओ की मांग को ही प्रमुख रणनीति के तौर पर रखा है और वह महंगाई खत्म करने और रोजगार जैसे वायदों की जगह कालाधन के मसले को आगे करने जा रहा है.

पिछला चुनाव अगर मोदी की जबर्दस्त जीत और राजनीति की कई प्रवृत्तियों जैसे- गठबन्धन की राजनीति, क्षेत्रीय दलों का जोर बढ़ना वगैरह के बदलने के चलते ऐतिहासिक बना, वहीं चुनाव खर्च और चुनावी वायदों के लिहाज से भी अपूर्व था. इतने और ऐसे वायदों को पूरा करना असंभव है लेकिन जब सरकार को उसी नाम पर जनादेश हासिल हुआ हो तो उसे घेरना आसान है. सरकार को भी शुक्रवार को हुई सर्वदलीय बैठक में विपक्ष के मूड का अन्दाजा हो गया जब तृणमूल कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने बैठक का बहिष्कार किया. ममता बनर्जी ने तो अगले दिन प्रेस कांफ्रेंस करके केन्द्र को भला-बुरा कहने के साथ सभी गैर-भाजपा दलों को एकजुट करने के लिए किसी सीमा तक जाने का संकेत भी दिया. इससे पहले वे नेहरू के 125वें जन्मदिन के आयोजन के समय माकपा नेता सीताराम यचुरी से मिल चुकी थीं जबकि पहले उन्हे वामपंथी नेताओं से परहेज सा रहता था.

असल में इस सत्र में तृणमूल और वाम दलों की एकता या परस्पर सहयोग की स्थिति बने तो बहुत लोगों को हैरानी होगी, लेकिन अगर पुराने जनता दल परिवार के लोग एकजुटता बढ़ाते हैं तो हैरान होने की कोई बात नहीं है. यह भी संभव है कि इसी सत्र के दौरान पुरानी समाजवादी पार्टी की पृष्ठभूमि वाले अधिकांश लोग एक दल बना लें. अपने-प्रदेश या इलाके में जनता दल या समाजवादी पार्टी की ताकत को काफी कुछ पारिवारिक सत्ता का उपकरण बना लेने वाले ऐसे सारे नेता नरेन्द्र मोदी के उभरने से सही चेत गए हैं और आम चुनावों में पिटने के बाद जब इन्होंने बिहार में गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ा तो काफी हद तक मोदी लहर रोकने में सफल हुए. इस मुहिम से ममता बनर्जी और मायावती वगैरह अब तक दूर थे पर उन्हें भी बिहार के प्रयोग से और उससे भी ज्यादा मोदी के डर से एकजुटता बनाने की प्रेरणा मिल रही है.

इस सत्र में पेश होने वाले बीमा संशोधन बिल, श्रम सुधार के बचे-खुचे हिस्से और भूमि अधिग्रहण बिल जैसे अनेक मामलों में भी इनकी वैचारिक एकता है. ये भाजपा की नीतियों से सहमत नहीं हैं सो उसके बिलों को रोकने की साझा रणनीति इनके बीच एकता या गठबंधन बनाने को कहां तक कामयाब होगी, इस पर लोगों की नजर रहेगी पर विपक्ष की एकता कांग्रेस के सहयोग या सक्रियता के बिना संभव नहीं लगती. अगर कथित जनता दल फिर खड़ा हो जाए या संसद में उसके दसेक सदस्य साथ वोटिंग पर राजी हो भी जाएं तो भी सरकार, भाजपा और उन बिलों की सेहत पर खास फर्क नहीं पड़ेगा और फिर राजनीतिक लड़ाई का भी सवाल हो तो किसी और दल की तुलना में कांग्रेस को ही अधिक लड़ना होगा.

इस बार तो कांग्रेसी मल्लिकार्जुन खडगे को विपक्ष के नेता वाला स्थान भी मिल गया है और सब कुछ होते-होते भी राज्यसभा में उसी के पास सबसे बड़ा जत्था है पर कांग्रेस की मुश्किल यह है कि वह भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी भले हो, नीतियों के मामले में भाजपा और कांग्रेस के बीच फासला लगभग मिट गया दिखता है. पी चिदम्बरम जैसे कांग्रेसी नेता बार-बार इसका दावा भी करते हैं. इस सत्र में पेश होने वाले अधिकांश विधेयकों पर भी कांग्रेस की राय भाजपा से बहुत अलग नहीं है.

जीएसटी जैसे बड़े मसलों पर विरोध है भी तो इस बात का ही अधिक है कि यूपीए शासन के समय भाजपाई मुख्यमंत्रियों ने बिल के रास्ते में बाधा डाली थी सो जब तक कांग्रेस आर्थिक नीतियों के मामले में अपनी पुरानी नीतियों को नहीं छोड़ती और उनसे दूरी नहीं बनाती, वह विपक्ष की ढंग से अगुआई नहीं कर पाएगी और कम से कम भाजपा सरकार की राह को मुश्किल करने लायक शक्ति तो नहीं ही बन पाएगी. यह काम आसान नहीं है भले ही भूमि अधिग्रहण से लेकर काफी मसलों पर कांग्रेस अलग लाइन लेने लगी थी और उसकी दुविधा इतनी हो गई थी कि उदारीकरण के पक्षधर उसे पॉलिसी पैरालिसिस कहने लगे थे.

बहरहाल, इस सत्र में पेश होने को तैयार 37 विधेयकों और पिछले सत्र से लटके 19 विधेयकों में अधिकांश के महत्वपूर्ण प्रावधानों पर कांग्रेस दुविधा में या विरोध में है. वह दुविधा को छोड़ सभी विपक्षी दलों की अगुआई करना कबूल करती है या नहीं, यही इस सत्र में देखने वाली सबसे बड़ी बात होगी. पर सरकार जिस स्थिति और मूड में है, उसमे सिर्फ विपक्ष के लिए ही नहीं, मुल्क के लिए भी सावधान रहने की जरूरत है. यह रफ्तार क्या होगी, इसकी एक झलक सरकार पिछले सत्र में दिखा चुकी है. बिना किसी पूर्व चर्चा के अचानक उसने कैबिनेट की बैठक में श्रम सुधारों की मंजूरी दी और पुराने श्रम कानूनों में बदलाव का प्रस्ताव पास किया. जल्दी ही संसद में नया बिल पेश कर दिया गया.

लगभग बिना चर्चा के 1948 का फैक्टरी एक्ट, 1988 का श्रम विधि कानून ( कुछ मामलों में विवरण देने और रजिस्टर रखने से छूट) और अपरेंटिसशिप कानून 1961 में कुल 54 संशोधन हुए. तकनीकी अनिवार्यता को पूरा कर लेने के लिए इन संशोधनों संबंधी नोटिस जून में ही अर्थात सरकार के कामकाज संभालने के एक हफ्ते के अन्दर ही जारी कर दिये गए. इतना ही नहीं, ऑटो उद्योग को भी आवश्यक सेवा के दायरे में लाने, 1926 के ट्रेड यूनियन कानून और 1947 के औद्योगिक विवाद कानून में बदलाव की तैयारियां भी अंतिम दौर में हैं.

बाल श्रम निषेध कानून में भी बदलाव की तैयारी है जबकि शिक्षा का अधिकार कानून बन जाने के बाद यह बेमानी हो जाना चाहिए. जब 14 साल तक के हर बच्चे का हक स्कूल जाना है तो बाल श्रम को कैसे कानूनी रूप दिया जा सकता है! दोनों में से एक कानून झूठा होगा. जाहिर है, सरकार को अभी और तैयारी की जरूरत है. जीएसटी कानून, भूमि अधिग्रहण बिल, कोयला खनन बिल (जो वर्तमान अध्यादेश की जगह लेगा), बीमा बिल, एंटी-हाइजैकिंग बिल वगैरह आने हैं जिनसे महत्वपूर्ण कारोबार चलेंगे. सो मुख्य परीक्षा विपक्ष की भले हो, किंतु यह पूरी राजनीतिक बिरादरी की परीक्षा है. 
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं)

अरविन्द मोहन
लेखक


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