घरेलू हिंसा झेलती हर वर्ग की महिला

Last Updated 25 Nov 2014 12:28:10 AM IST

समाज में घर के बाहर तो महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान बड़ा सवाल है ही, घर के भीतर भी हालात अच्छे नहीं हैं.


घरेलू हिंसा झेलती हर वर्ग की महिला

यूएन वर्ल्ड पॉपुलेशन फंड और इंटरनेश्नल सेंटर फॉर रिसर्च ऑन वुमन की हालिया रिपोर्ट के नतीजे  शर्मसार करने वाले हैं. देश के सात राज्यों में किए गए इस सर्वे की रिपोर्ट बताती है कि आज भी 10 में से 6 पति पत्नी के साथ हिंसक व्यवहार करते हैं. रिपोर्ट में 60 फीसद पुरु षों का यह स्वीकार करना कि वे अपनी पत्नी के साथ हिंसक बर्ताव करते हैं, स्त्रियों के भावनात्मक व शारीरिक उत्पीड़न का खुलासा करने को काफी है. यूनाईटेड नेशन्स की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में दो तिहाई महिलाएं हिंसा का शिकार हैं. 2009 में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में 40 फीसद महिलाएं रोज किसी ना किसी बहाने पति की मारपीट का शिकार होती हैं.

कुछ समय पहले आई यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में 15 से 19 साल की 25 लाख लड़कियां कभी न कभी यौन और भावनात्मक हिंसा का शिकार हुई हैं जिनमें सबसे बड़ा अपराधी पति होता है.  रिपोर्ट में महिलाओं के साथ होने वाले हिंसात्मक व्यवहार की चार श्रेणियां हैं जिसमें भावनात्मक और शारीरिक हिंसा के साथ ही यौन हिंसा और आर्थिक परेशानियों को भी शामिल किया गया है. इन कारकों के आधार पर जो आंकड़े सामने आये हैं, वे  महिलाओं की उन स्थितियों को रेखांकित करते हैं जिनमें वो अपनों का साथ पाकर भी घुटन भरी जिंदगी जी रही हैं. महिलाएं घर-परिवार की रीढ़ तो हैं ही, पढ़ी-लिखी और कामकाजी हैं तो देश की तरक्की में भी भागीदार हैं. सच यह है कि अधिसंख्य मामलों में महिलाएं अपने स्वास्थ्य की संभाल में सबसे पीछे और दायित्वों के निर्वहन में सबसे आगे हैं पर उनकी इस दोहरी और संघषर्पूर्ण भूमिका को आज तक मायने नहीं मिले. हर जिम्मेदारी निभाने के बावजूद सराहना तो दूर, उनकी भागीदारी को आंकने की सोच तक लापता है समाज और परिवार से.

आज जहां हर क्षेत्र में महिलाएं अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहीं हैं, वहीं ऐसे आंकड़े हमें यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि बाहर ही नहीं, घर में भी औरतों को लेकर हमारी मानसिकता में कुछ खास बदलाव नहीं आया है. मौजूदा दौर में घर के कामकाज के साथ-साथ औरतों को बाहर की जिम्मेदारी तो मिल गई पर उसके आत्मसम्मान और अस्तित्व का मोल आज भी कुछ नहीं आंका जाता. पत्नी पर हाथ उठाना या तानेबाजी करना तमाम पुरुष अपना हक समझते है. नेशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो के ताजा आंकड़ों के मुताबिक 2003 में घरेलू हिंसा संबंधी दर्ज मामलों की संख्या 50,703 थी जो 2013 में बढ़कर 118,866 हो गई. यानी दस सालों में इसमें 134 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है.

भले ही कामकाजी महिलाओं की संख्या में दिन-ब-दिन इजाफा हो रहा है, लड़कियां पढ़-लिखकर आगे बढ़ रहीं हैं पर इससे सामाजिक सोच और हालात में कोई सुधार नजर नहीं आ रहा. बेंगलुरू में 2005-06 में हुए एक सर्वे में यह बात सामने आ चुकी है नौकरी करने वाली लगभग 80 फीसद महिलाओं को गृहिणियों की तुलना में पति की ज्यादतियों का अधिक शिकार होना पड़ता है. घरेलू हिंसा के खिलाफ अभियान से जुड़े लोगों का कहना है कि जिन इलाकों में महिलाएं शिक्षित हैं, मुखर हैं, वहां ज्यादा मामले दर्ज होते हैं. ऐसे शोध हमें महिला सशक्तिकरण की हकीकत से रूबरू कराते हैं. चाहे कामकाजी हो या घरेलू, हमारे यहां आज भी हर तीन में से एक शादीशुदा महिला घर के अंदर पति या परिवारीजनों की हिंसा का शिकार है. भारत ही नहीं वैिक स्तर पर भी 30 फीसद महिलाएं अपने नजदीकी साथी द्वारा हिंसा व दुर्व्यवहार की शिकार होती हैं.

हमारी आबादी का 48.5 फीसद हिस्सा महिलाएं हैं. फिर भी घर से लेकर दफ्तर तक औरतें दोयम दज्रे की नागरिक हैं.  यह दोगला व्यवहार उनके जीवन से जुड़े हर पहलू में दिखता है. अपनी ही देहरी के भीतर उनके साथ होने वाले हिंसक व्यवहार में भी यही बात लागू होती है. वे अकेली इस मानसिक और दैहिक पीड़ा झेलने को विवश हैं. आम सी दिखने वाली सफल गृहस्थी में कोई भी महिला अंदर ही अंदर गहरी वेदना झेलती है. ऐसे में कई बार उन्हें बड़ी बीमारियां घेर लेती हैं. साथी द्वारा किये गये शारीरिक और यौन दुर्व्यवहार से 42 फीसद महिलाएं चोटिल हो जाती हैं जिन्हें न समय पर इलाज मिलता है और न देखभाल. ग्रामीण इलाकों में तो स्थितियां और भी बदतर हैं.  भारत  में तकरीबन 31 प्रतिशत विवाहित महिलाएं किसी न किसी रूप में शारीरिक हिंसा झेलती हैं.

कितने ही सर्वे यह सच सामने ला चुके हैं कि घरेलू ही नहीं, कामकाजी और आत्मनिर्भर महिलाएं भी शारीरिक और मानसिक हिंसा झेलती हैं. एक गैर-सरकारी संस्था के मुताबिक भारत में लगभग पांच करोड़ महिलाएं घर में हिंसा का सामना करती हैं और मात्र 0.1 प्रतिशत ही अपने विरुद्ध हो रही ज्यादती के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराती हैं. ज्यादातर पति के हिंसक व्यवहार के बारे में दोस्तों और सहकर्मिंयों तक से चर्चा नहीं कर पातीं. कई मामलों में तो महिला के मायके में भी इसकी जानकारी नहीं होती कि उनकी बेटी अपने ही जीवन साथी का हिंसक व्यवहार झेल रही है. आमतौर पर महिलाएं स्वीकार ही नहीं करना चाहतीं कि वे घरेलू हिंसा का शिकार हैं. वैवाहिक जीवन बचाये रखना उनकी प्राथमिकता होती है. बावजूद इसके 2013 में आये नेशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि भारत  में हर पांच मिनट में घरेलू हिंसा का एक मामला दर्ज होता है.

घरेलू हिंसा से जुड़ा एक पक्ष यह भी है कि हिंसात्मक व्यवहार करने वाले शिक्षित और अशिक्षित हर तबके के लोग हैं. 2008 में घरेलू हिंसा के खिलाफ भारत में जारी ‘बेल बजाओ’ अभियान जारी करने वाली संस्था ब्रेकथ्रू से जुड़ी मल्लिका दत्त कहती है कि ‘हमारे समाज में दहलीज के भीतर महिलाओं के साथ होने वाली मारपीट मानवाधिकार का संवेदनशील मुद्दा है.’ घर के हर सदस्य को भावनात्मक सहारा देने वाली महिलाएं क्यों अपने  ही घर के भीतर हिंसात्मक व्यवहार झेलने को विवश हैं, ये विचारणीय है. दुखद यह भी है कि जीवनसाथी से मिलने वाले कटुतापूर्ण और हिंसक व्यवहार को महिला के पति  के घरवालों का भी पूरा समर्थन मिलता है. हर वर्ग की महिला के साथ हो रहे दुर्व्यवहार से साबित होता है कि सशक्त होने के लिए आत्मनिर्भर बन जाना भर काफी नहीं है. जरूरत इस बात की है कि हर स्तर पर औरत को दोयम दर्जा देने की मानसिकता खत्म हो ताकि वे परिवार और समाज में स्वयं को सुरक्षित समझें और  उनके आत्मसम्मान को ठेस न लगे.

मोनिका शर्मा
लेखक


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