आपसी मतभेदों से आगे बढ़ेगा कारवां!

Last Updated 24 Nov 2014 04:17:25 AM IST

काठमांडू में 26-27 नवम्बर को होने जा रहे सार्क शिखर सम्मेलन में फिलहाल यह अहम नहीं है कि भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पाकिस्तानी पीएम नवाज शरीफ से अलग से मुलाकात करेंगे या नहीं.


आपसी मतभेदों से आगे बढ़ेगा कारवां!

हालांकि यह जरूरी है कि मोदी-शरीफ और बाकी राष्ट्राध्यक्ष आतंकवाद से लड़ने के मसले पर दीर्घकालिक रणनीति को अंतिम रूप देने में सफल हों. सार्क देशों को आतंकवाद का लंबे समय से सामना करना पड़ता रहा है. बेहतर होता कि इस अहम मसले पर सार्क देश मिलकर काम करते. पर अब तक ऐसा नहीं हो सका है. सार्क आतंकवाद से लड़ने का संकल्प तो लेता है, पर बात आगे नहीं बढ़ पाती. इसके अलावा भी तमाम मसलों पर सार्क में आपसी तालमेल और परस्पर सहयोग का अभाव ही दिखता है. आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई तथा इसे जड़ से खत्म करने के लिए सार्क शिखर बैठकों में हर बार रस्मी तौर पर प्रस्ताव पारित हो जाता है. इसमें कमोबेश यही कहा जाता है कि दक्षेस देश आतंकी गतिविधियों से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े लोगों की गिरफ्तारी, उन पर अभियोजन और उनके प्रत्यर्पण में सहयोग करेंगे. इसमें हर तरह के आतंकवाद के सफाए और उससे निपटने के लिए सहयोग को मजबूत करने पर जोर दिया जाता है.  साथ ही यह भी कहा जाता है कि ये मुल्क अपनी जमीन का इस्तेमाल आतंकी गतिविधियों में नहीं होने देंगे. हालांकि कुल मिलाकर बात प्रस्ताव से आगे नहीं बढ़ती.

 आगामी सार्क सम्मेलन के दौरान साइबर अपराध, मानव तस्करी तथा राष्ट्रीय सीमाओं पर हथियारों की गैरकानूनी आवाजाही जैसे समान हित के विषयों पर विचार होगा. नरेंद्र मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क राष्ट्रों के नेताओं को आमंत्रित कर इस मृत होते जा रहे संगठन को फिर से जिंदा करने की तगड़ी पहल की थी. सार्क की तब ही मीडिया में थोड़ी बहुत चर्चा होती है जब इसका शिखर सम्मेलन होता है. इसके बाद इसकी गतिविधियों के बारे में किसी को कोई जानकारी नहीं रहती. इस लिहाज से मोदी की पहल महत्वपूर्ण थी. कायदे से दक्षेस देश आर्थिक सहयोग, आतंकवाद के खात्मे और गरीबी उन्मूलन के लिए ठोस काम कर सकते हैं. सार्क सचिवालय के मुताबिक क्षेत्रीय स्तर पर गरीबी को हटाने के प्रयास के बावजूद सार्क क्षेत्र में गरीबों की संख्या बढ़ रही है.

दरअसल, सार्क दक्षिण एशिया के आठ देशों का आर्थिक और राजनीतिक संगठन है. इसकी स्थापना आठ दिसम्बर 1985 को भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल, मालदीव और भूटान द्वारा मिलकर की गई थी. अप्रैल 2007 में अफगानिस्तान इसका आठवां सदस्य बन गया. 1970 के दशक में बांग्लादेश के तत्कालीन राष्ट्रपति जियाउर रहमान ने दक्षिण एशियाई देशों के एक व्यापार गुट के सृजन का प्रस्ताव किया. मई 1980 में दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय सहयोग का विचार फिर रखा गया था. अप्रैल 1981 में सातों देशों के विदेश सचिव कोलंबो में पहली बार मिले. इनकी समिति ने क्षेत्रीय सहयोग के लिए पांच व्यापक क्षेत्रों की पहचान की. सहयोग के नए क्षेत्र आने वाले वर्षो में जोड़े गए. हालांकि सार्क शुरुआती उत्साह के बाद पहले की तरह से सक्रिय नहीं रहा. इसकी एक वजह यह भी है कि सार्क देशों के बीच आपसी मतभेद भी खासे रहते हैं.

बहरहाल, मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में सार्क नेताओं को बुलाया जाना साबित करता है कि भारत सार्क को लेकर गंभीर है. उसकी चाहत है कि सार्क फिर से सक्रिय हो. इसके सदस्य देश आपसी सहयोग करें. हालांकि भारत के ही कई सार्क देशों से जटिल विवाद हैं. भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर से लेकर तमाम मसलों पर मतभेद हैं. अगर बात श्रीलंका और बांग्लादेश की करें तो  इन दोनों के साथ भारत के संबंधों को हमारी प्रांतीय राजनीति बहुत प्रभावित करती रही है. तृणमूल सरकार ने तीस्ता जल-समझौता और सीमा समझौता नहीं होने दिया और तमिल पार्टियां श्रीलंका के साथ संबंधों को आगे बढ़ाने में बाधा पहुंचाती हैं.

अब बात आपसी आर्थिक सहयोग की. इस मोर्चे पर भी अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई है सार्क देशों को. पिछले कुछ समय में जिस रफ्तार से भारत का आर्थिक सहयोग दूसरे देशों के साथ बढ़ा है, सार्क सदस्य देशों के साथ कारोबारी रिश्ते उस गति से नहीं बढ़े हैं. साउथ एशिया में इंट्रा-रीजनल ट्रेड सिर्फ छह फीसद है जबकि दुनिया के दूसरे रीजनल एसोसिएशन की बात करें तो यूरोपियन यूनियन का आपसी कारोबार 60 फीसद, नाफ्टा का 50 फीसद और आसियान का 25 फीसद है. वाणिज्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक अप्रैल 2013 से मार्च 2014 तक की अवधि में भारत का सार्क देशों को एक्सपोर्ट 17.3 अरब डॉलर रहा जबकि इंपोर्ट रहा सिर्फ  2.45 अरब डॉलर.

अंतरराष्ट्रीय व्यापार की बात करें तो वित्त वर्ष 2013-14 की इसी अवधि में भारत का कुल एक्सपोर्ट 312 अरब डॉलर और कुल इंपोर्ट 450 अरब डॉलर था. अगर सार्क के सदस्य देशों के साथ अलग-अलग व्यापार पर नजर डालें तो बांग्लादेश सबसे बड़ा साझीदार दिखता है. जनवरी से नवम्बर 2013 तक के 11 महीनों में भारत ने बांग्लादेश के साथ 557 करोड़ डॉलर का कारोबार किया. इसके बाद है श्रीलंका जिसके साथ भारत का कारोबार 415 करोड़ डॉलर का रहा. इसी तरह नेपाल के साथ 298 करोड़ डॉलर और पाकिस्तान के साथ 222 करोड़ डॉलर का कारोबार 11 महीनों में हुआ. इन देशों के अलावा अफगानिस्तान के साथ भारत का व्यापार करीब 60 करोड़ डॉलर, भूटान के साथ करीब 38 करोड़ डॉलर और मालदीव के साथ करीब दस करोड़ डॉलर का रहा. इन आंकड़ों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि सार्क देशों के साथ आपसी कारोबार बढ़ाने की गुंजाइश कितनी ज्यादा है.

दरअसल, दक्षेस देशों के बीच व्यापार के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने की जरूरत है. दक्षिण एशिया में आर्थिक वृद्धि में तेजी लाने में व्यापार सबसे महत्वपूर्ण औजार हो सकता है. दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार क्षेत्र समझौता (साफ्टा) के क्रियान्वयन में सराहनीय प्रगति हुई है, फिर भी काफी कुछ किया जाना बाकी है. सार्क देशों के बीच साफ्टा पर 2004 में इस्लामाबाद में हस्ताक्षर किया गया था और इसके तहत वर्ष 2016 के अंत तक सीमा शुल्क घटाकर शून्य पर लाने का लक्ष्य रखा गया है. साफ्टा के तहत दक्षेस देशों के बीच व्यापार बढ़ तो रहा है पर यह हमारे कुल अंतरराष्ट्रीय व्यापार की तुलना में बहुत कम है, जबकि संभावनाएं बहुत ज्यादा हैं.

सार्क देशों में आर्थिक सहयोग की खराब हालत की एक बानगी देख लीजिए. कुछ साल पहले भारत के प्रमुख औद्योगिक समूह टाटा ने बांग्लादेश में तीन अरब डॉलर की निवेश योजना बनाई थी. पर वहां पर इसका तगड़ा विरोध शुरू हो गया. बांग्लादेश के तमाम विपक्षी दलों ने टाटा समूह का यह कहकर विरोध किया कि वह देश के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी साबित होगा. इससे साफ है कि सार्क देशों में आपसी व्यापार को गति देने के लिहाज से कितना खराब माहौल है.

चूंकि दुनिया उम्मीद पर टिकी है, इसलिए कहा जा सकता है कि अगर सार्क देशों के आपसी कारोबारी रिश्ते बेहतर होते हैं तो इसके सभी सदस्य देश महंगाई और बेरोजगारी जैसी समस्याओं पर भी बहुत हद तक काबू पा सकेंगे. 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)

विवेक शुक्ला
लेखक


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment