बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले

Last Updated 23 Nov 2014 04:26:27 AM IST

अपने तरह-तरह के कारनामों को लेकर सुर्खियां बटोरने वाली सीबीआई इन दिनों खुद सुर्खियों में है.


बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले

ऐसा उसकी किसी कामयाबी के लिए नहीं बल्कि उसका गोरखधंधा उजागर होने के कारण है. वह कैसे गुनाहों को धोने की लांड्री की तरह काम करती है और अपराधियों तथा घोटालेबाजों पर कैसे उसकी मेहरबानी बरसती है- इसका खुलासा इसी बृहस्पतिवार को तब हुआ जब सुप्रीम कोर्ट ने इस एजेंसी के निदेशक रंजीत सिन्हा को टूजी घोटाले की जांच से हटा दिया. उन्हें इस घोटाले के आरोपियों को संरक्षण देने का दोषी पाया गया है. अदालत के इस फैसले ने सिन्हा को तो बेआबरू किया ही, सीबीआई की देशव्यापी कामकाजी शैली को भी रडार पर ले लिया है.

यह सनसनीखेज खुलासा ऐसे समय हुआ है जब सीबीआई निदेशक के रिटायर होने में महज दो सप्ताह शेष हैं. अब उनकी मुश्किलें आगे और बढ़ने वाली हैं. इस एजेंसी के मुखिया स्वयं जांच के घेरे में आ गए हैं. सीबीआई के इतिहास में संभवत: यह पहली घटना है जब उसके निदेशक को किसी जांच से अलग किया गया है. इसके अलावा एजेंसी को दूसरा बड़ा झटका कोयला आबंटन घोटाले में सांसद विजय दर्डा को बचाने के मामले में लगा है. सीबीआई ने इस प्रकरण में भी क्लोजर रिपोर्ट लगा दी थी जिसे अदालत ने नामंजूर कर दिया है. ऐसे में सीबीआई की साख तार-तार हो गई है और उसके समक्ष अब विश्वसनीयता का बड़ा संकट खड़ा हो गया है.

सीबीआई की इस छीछालेदर के लिए उसके निदेशक रंजीत सिन्हा की शख्सियत को समझना जरूरी है जिसमें छेद ही छेद हैं. वह कैसे सीबीआई के मुखिया का पद हथियाने में सफल हुए, उसकी भी रोचक कहानी है. दिसम्बर, 2012 में हुई उनकी इस पद पर नियुक्ति विवादों के घेरे में रही है. तत्कालीन यूपीए सरकार ने कॉलेजियम सिस्टम के अमल में आने से ठीक पहले सेंट्रल विजिलेंस कमीशन की अनुशंसा को दरकिनार कर उनका चयन किया था. भाजपा ने उस समय इस पर खूब हंगामा किया था. अब भाजपा सत्ता में है. सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी ने सिन्हा को बेपर्दा कर दिया है. ऐसे में अब सबकी नजर मोदी सरकार के अगले कदम पर टिक गई है क्योंकि यूपीए सरकार के कार्यकाल में ही टूजी और कोल घोटाला हुआ था जिसे भाजपा ने बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया था. अब इन्हीं मामलों में सीबीआई की संदिग्ध भूमिका उजागर हुई है.

सीबीआई में चल रहे इस गोरखधंधे पर इस एजेंसी के अधिकारी दो गुटों में बंट गए हैं. एक खेमा गुनाहगारों को बजाने में लिप्त है, तो दूसरा उन्हें सलाखों के पीछे ले जाने की कोशिश में है. जिस तरह सीबीआई निदेशक  ने अपने ही अधीनस्थ उपमहानिरीक्षक संतोष रस्तोगी को अदालत में भेदिया बताया और उन पर अपने आवास आगंतुकों की सूची और दस्तावेज लीक करने का आरोप लगाया, वह इस सच को उजागर करने के लिए काफी है. इतना ही नहीं, न्यायालय के आदेश के बावजूद जांच अधिकारी का स्थानांतरण किया गया था. इससे स्पष्ट है कि रंजीत सिन्हा अपने गलत कारनामों को स्याह से सफेद करने में किस हद तक लगे थे. सीबीआई निदेशक पर उंगलियां पहले भी उठ चुकी हैं.

पूर्व दूरसंचार मंत्री दयानिधि मारन और उनके भाई के खिलाफ एयरसेल-मैक्सिस सौदे में आरोप पत्र दायर करने को लेकर जांच टीम और सिन्हा के बीच का मतभेद पहले भी सुर्खियां बन चुका है. इस मामले में जांच टीम पर्याप्त सबूत की बात कर रही थी, जबकि रंजीत सिन्हा का मत इससे अलग था. यह खुलासा भी हो चुका है कि सीबीआई ने कोयला घोटाला जांच की प्रगति रिपोर्ट को तत्कालीन कानून मंत्री अिनी कुमार को दिखाया गया था.  सुप्रीम कोर्ट के कड़े रुख के बाद अिनी कुमार को मंत्रिपद से इस्तीफा देना पड़ा था. उस समय भी सीबीआई निदेशक की भूमिका पर सवाल उठे थे.

किंतु इसी वर्ष सितम्बर में जब सीबीआई निदेशक के अपने आवास पर टूजी और कोलगेट के आरोपियों से पिछले पंद्रह महीनों में पचास से नब्बे बार मुलाकात की बातें उजागर हुई तो समूचा देश दंग रह गया. उस समय सिन्हा ने अपने बचाव में सवाल उठाया था कि सीबीआई जांच का सामना कर रहा कोई व्यक्ति अपनी किसी जायज शिकायत और आशंका को व्यक्त करता है तो क्या उसे नहीं सुना जाना चाहिए?

लेकिन अब विशेष लोक अभियोजक ने अदालत को बताया है कि यदि टूजी मामले में सिन्हा के निर्देशों का पालन किया गया होता तो कुछ आरोपियों के खिलाफ मुकदमा टिक ही नहीं पाता. उन्होंने कानून मंत्रालय की भूमिका पर भी सवाल उठाया है. इसके अलावा कोलगेट से जुड़े विजय दर्डा मामले में सीबीआई क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर चुकी थी, जो अब उल्टे उसके गले में फंस गई है. अदालत ने जांच को आगे बढ़ाने का निर्देश दिया है. इस मामले का खास पहलू यह है कि विजय दर्डा से रंजीत सिन्हा ने कई बार भेंट की थी और यह मुलाकातें रंजीत सिन्हा के आवास पर हुई थीं.  

रंजीत सिन्हा का विवादों से चोली-दामन का साथ रहा है. वह अपने राजनीतिक रसूख के जरिये ही इस कुर्सी तक पहुंचे थे. उन पर आरोपियों के प्रति मेहरबानी के चर्चे आम हैं. पूर्व में पटना हाईकोर्ट ने उन्हें चारा घोटाले की जांच से हटा दिया था. उन पर लालू प्रसाद को बचाने का आरोप था. लालू से उनके रिश्ते भी जगजाहिर हैं. जब लालू यूपीए सरकार में रेलमंत्री बने तो सिन्हा को आरपीएफ का डीजी बनाया गया. सिन्हा के दो साल के कार्यकाल में सीबीआई की छवि अपराधियों को बचाने और जांच को कमजोर करने वाली एजेंसी की बन गई है.

इसलिए इस पद पर बेदाग और गैर विवादित व्यक्ति की नियुक्ति के बगैर अब इस एजेंसी के प्रति आमजन का भरोसा वापस नहीं लौटेगा. अभी तक इसकी छवि सरकार के डंडे के रूप में थी. अब इसके अधिकारियों की भ्रष्टाचार में संलिप्तता की पोल खुलने की घटनाओं ने असहजता और बढ़ा दी है. ऐसे में सीबीआई की स्वायत्तता से बड़ा सवाल यह है कि यदि इस एजेंसी का मुखिया ही गड़बड़ी में लिप्त हो जाए तो क्या होगा? उस पर अंकुश कैसे लगे? यह सरकार के समक्ष अब यक्ष प्रश्न है.

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद उम्मीद थी कि सिन्हा इस्तीफा दे देंगे अथवा छुट्टी पर चले जाएंगे. किंतु वे अपने पद पर बने हुए हैं. सरकार भी अदालत की बेबाक टिप्पणी के आलोक में कोई ऐसा कड़ा संदेश अभी तक नहीं दे सकी है जिससे सीबीआई की जमींदोज छवि को बचाने में मदद मिल सके. रंजीत सिन्हा की आगे की राह मुश्किलों भरी होनी है. उनसे टूजी मामले में रिटायरमेंट के बाद भी पूछताछ हो सकेगी, जिसकी उन्हें कल्पना भी नहीं रही होगी. उनके सेवाकाल के बचे-खुचे दिन भी दुारियों से भरे होंगे. इतनी जिल्लत और बदनामी के बीच  बेआबरू होकर कूचे से निकलने का खयाल सपने में भी सिन्हा को शायद ही आया हो. सवाल सिर्फ रंजीत सिन्हा का नहीं, सीबीआई की प्रतिष्ठा का भी है जिसे उनकी करनी ने ‘सूली’ पर चढ़ा दिया.
  
ranvijay_singh1960@yahoo.com

रणविजय सिंह
समूह सम्पादक, राष्ट्रीय सहारा दैनिक


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