फिर कटघरे में लोकतंत्र

Last Updated 23 Nov 2014 04:14:31 AM IST

इस बार देश के लोकतंत्र को कठघरे में खड़ा किया एक अचर्चित, अनाम से कथित संत रामपाल ने.


फिर कटघरे में लोकतंत्र

सरकारी तंत्र भले ही अपनी पीठ थपथपाकर खुद को शाबाशी दे ले कि उसने कानून की खुली अवज्ञा करने वाले, कानून को खुली चुनौती देने वाले इस संत को अंतत: कानून का पाठ पढ़ा ही दिया और उसे गिरफ्त में लेकर माननीय अदालत के समक्ष प्रस्तुत कर दिया, लेकिन गिरफ्तार होने से पहले यह संत जिस तरह अपनी हथियारबंद निजी सैनिक टुकड़ी के बल पर प्रशासन को छकाता रहा, मुंह चिढ़ाता रहा और उसके आगे उद्दंडता भरी ताल ठोकता रहा, उसे क्या कहेंगे.

वह गिरफ्तार भी हुआ तो छह जानें लेकर तथा 200 से भी ज्यादा लोगों को घायलावस्था में पहुंचाकर. पुलिस के साथ इस संत के बर्बर टकराव में पुलिस वाले घायल हुए, संत के सैनिक घायल हुए, समागम में आने वाले दिमाग से दिवालिया संत के श्रद्धालु घायल हुए, महिलाएं घायल हुई, बच्चे घायल हुए. और बड़ी बात यह कि भारी तादाद वाले पुलिस बल और संत के सिपाहियों के बीच छिड़ी जंग को कवर करने गए दर्जनों पत्रकार भी घायल हुए. गिरफ्तारी के बाद जब संत के आश्रम की तलाशी ली गई तो आश्रम की भीतरी किलेबंदी के साथ-साथ हथियारों के अलावा बहुत-सी ऐसी चीजें भी बरामद हुई जिन्हें अवांछित माना जाता है और एक संत के लिए अग्राह्य.

अब भले ही इस संत को धूर्त, पाखंडी, धंधेबाज जैसी उपाधियों से नवाजा जाए लेकिन यह संत अपनी संतई की एक अच्छी-खासी जागीर तो खड़ी कर ही चुका था. जैसे हर पाखंडी संत किसी न किसी तरह की संतई का चोला ओढ़ता है, इसने भी एक चोला ओढ़ रखा था और वह चोला था कबीरपंथ का. विराट चेतना संपन्न फक्कड़ संत कबीर की परंपरा से इस संत रामपाल का जुड़ना वैसा ही था जैसे संत महान गुरु नानक देव जी की परंपरा से संत भिंडरावाले का जुड़ना.

जिस तरह हर संत सामाजिक वैधता प्राप्त करने के लिए अपने उपदेश-प्रवचनों में किसी न किसी दार्शनिक तत्वावली का समावेश करता है, वैसे ही इस संत ने भी अपने प्रवचनों में बहुत-सी अच्छी-अच्छी बातों को शामिल कर रखा था. उसने अपने भक्तों के लिए मांस, मदिरा, धूम्रपान जैसी चीजें वर्जित कर रखी थीं. वह छूआछूत का विरोध करता था, व्यभिचार की बुराई करता था, अश्लील नाच-गानों की निंदा करता था और अपने भक्तों को इनसे परहेज रखने की हिदायत देता था, और सबसे बड़ी बात यह कि वह अपने भक्तों के बीच स्वयं के दैवी शक्ति से संपन्न महात्मा होने को प्रचारित करने के लिए बहुत ही शातिराना ढंग से नियोजित अभियान चलाए रखता था.

अब मूल सवाल यह है कि आखिर इस कथित संत की उस सत्ता का स्रोत क्या था जिसके बल पर यह पुलिस-प्रशासन और देश की न्याय व्यवस्था को खुली चुनौती देता रहा? केवल इसी की सत्ता का स्रोत नहीं बल्कि किसी भी ऐसे ढोंगी, पाखंडी संत की सत्ता के स्रोत क्या होते हैं जिनके बल पर ये न केवल अरबों-खरबों में खेलने लगते हैं बल्कि अपने प्रभाव के बल पर समूचे राज्य तंत्र को अपनी उंगलियों पर नचाए रखते हैं. आसाराम बापू की तरह जब तक इनसे कोई बड़ी चूक नहीं हो जाती या जब तक इनका कोई बड़ा अपराध पकड़ में नहीं आता, तब तक इनकी सत्ता को चुनौती देने की हिम्मत कोई भी नहीं जुटाता. आखिर हैं क्या ऐसे लोगों की सत्ता के स्रोत?

इनकी सत्ता का पहला स्रोत जनता का वह हिस्सा है जो आज भी मूढ़ है, धर्मभीरु है, अंध आस्थावादी और अंधविश्वासी है तथा साथ ही हर तरह की असुरक्षा से घिरा हुआ है. जनता को उसकी जड़ता से मुक्ति दिलाने, उसे अंध-आस्थावाद और अंधविश्वासों से बचाने तथा उसे भौतिक और वैचारिक सुरक्षा उपलब्ध कराने में राज्य की विफलता इस स्रोत को निरंतर मजबूती प्रदान करती है. जो बीमार लोग अपना उपचार करवाने में असमर्थ हैं, जो बेरोजगार लोग इस भ्रष्ट तंत्र में रोजगार पाने में असमर्थ हैं, हर कदम पर अन्याय को आजीविका का आधार मानने वाली नौकरशाही से उचित न्याय पाने में विफल हैं, राजनीति से किसी भी तरह का नैतिक बल जुटा पाने में असमर्थ हैं, ऐसे सारे लोग राहत पाने की चाह में इन संतों और बाबाओं के चंगुल में जा फंसते हैं. इन संतों के गुग्रे ऐसे लोगों को संत के चमत्कारों की झूठी कहानियां सुनाकर उनके कल्याण का भरोसा दिलाकर इन संतों-बाबाओं के चरणों में ला बिठाते हैं. और संत-बाबा इनके बल पर अपनी सत्ता का विस्तार करते रहते हैं.

कथित संतों की सत्ता का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत है वह राजनीति जो वोट की खातिर कुछ भी करने पर आमादा रहती है. संतई के चोले में रामपाल जैसे कथित संत भले ही ठगी, धूर्तता, पाखंड और कुटिलता के पर्याय हों लेकिन इनके पास अंध-अनुयायियों की जो फौज रहती है और जो इनके इशारे पर वोट बैंक की तरह काम करती है, वह सत्ता के साथ व्यापार करने का इनका सबसे बड़ा सिक्का होती है. बड़े से बड़ा राजनेता या बड़े से बड़ा राजनीतिक दल भी इस वोट बैंक की खातिर इनके दरवाजे पर मत्था टेकने में नहीं झिझकता. नेताओं के साथ इनकी खुली नजदीकी इन्हें प्रशासन तंत्र के लिए अपहुंचनीय बना देती है. ये संत जमीनों पर कब्जा करें, धड़ल्ले से बिना अनुमति भवन निर्माण करें, बिना कानूनी औपचारिकताओं को पूरा किए हुए धन की हेराफेरी करें, सरकारी तंत्र इन पर हाथ डालने की हिम्मत नहीं करता. राजनीति के लिए इनकी अनिवार्यता इनका महिमा मंडन करती रहती है और इन्हें निरंतर शक्ति देते हुए इनकी सत्ता का विस्तार करती है.

कुल मिलाकर स्थिति स्पष्ट है कि जब तक जनता मानसिक रूप से विकलांग रहेगी और भौतिक रूप से असुरक्षित रहेगी, तब तक रामपाल जैसे संतों-बाबाओं की जमात को उगने, फलने और फूलने के लिए जमीन मिलती रहेगी, और जब तक चुनावी राजनीति का चरित्र अपने मौजूदा स्तर पर रहेगा तब तक यह कथित संत जमात सुरक्षित रहेगी, भले ही इनके बीच में से कोई आसाराम या कोई रामपाल कभी-कभार कानून की गिरफ्त में आता रहे. वर्तमान में न जनता का चरित्र बदलता दिखाई देता है, न राजनीति अपनी चाल, चरित्र और चेहरा बदलती दिखती है. इसलिए आस्त रहिए कि भले ही एक रामपाल आज सलाखों के पीछे पहुंच गया हो, लेकिन रामपालों की फसल उगती रहेगी.

विभांशु दिव्याल
लेखक


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