एक बार फिर हिंदू बनाम हिंदू

Last Updated 23 Nov 2014 04:10:36 AM IST

किसी बात को कितना अधिक विकृत कर कहा जा सकता है, इसका एक प्रमाण है विश्व हिंदू सम्मेलन में विश्व हिंदू परिषद के अध्यक्ष अशोक सिंघल का यह बयान कि आठ सौ वर्षो के बाद दिल्ली पर हिंदू राज कर रहे हैं.


राजकिशोर, लेखक

एक तरह से, यह सच है, लेकिन इसे सांप्रदायिक रूप देना न केवल इतिहास से, बल्कि वर्तमान से भी धोखा करना है. सांप्रदायिक चित्त की खूबी ही यह है कि वह स्वयं धोखे में रहता है और दूसरों को भी धोखे में रखना चाहता है. संघ परिवार का हिंदूवाद इसी श्रेणी का विचार है, जो हिंदू धर्म और संस्कृति को एक भ्रष्ट रूप में प्रस्तुत करता है.

मैं यहां मुस्लिम शासन के गुणावगुण की चर्चा करना नहीं चाहता. सिर्फ  इस बात की ओर इशारा करना चाहता हूं कि धार्मिंक समुदायों की दृष्टि से भारत हिंदू-प्रधान देश रहा है और आज भी है. मुसलमान पहले भी अल्पसंख्यक थे और आज भी हैं. इस तथ्य के बावजूद आठ सौ सालों तक मुसलमान शासक ही राज करते रहे.  समाजवादी विचारक और नेता राममनोहर लोहिया भी यही मानते थे. लेकिन मुझे यह एक निरा राजनीतिक बयान लगता है, जिसका लक्ष्य सांप्रदायिकता से संघर्ष करना है. कठिनाई यह है कि राजनीति इतिहास से झगड़ा मोल लेती है, तो उसकी शक्ति कम हो जाती है. राजनीतियां आती-जाती रहती हैं, पर इतिहास अटल रहता है. वह समय की चाल से प्रभावित नहीं होता. बहुत-से लोग नकली इतिहास बनाने का प्रयत्न करते हैं, परंतु झूठ के पांव नहीं होते- तथ्य सामने आ ही जाते हैं.

तथ्य यह है कि भारत में मुस्लिम शासन को यहां के हिंदुओं ने कभी स्वीकार नहीं किया. अकबर जैसे उदारवादी शासक को भी हिंदुओं ने पराया ही माना. इसका एक तर्क भी था. तर्क यह था कि भारत चूंकि हिंदू-प्रधान देश था, इसलिए यहां कोई भी गैर-हिंदू शासक प्राकृतिक नहीं, थोपा हुआ प्रतीत होता था. अगर उस कालखंड में जनतंत्र होता और कोई मुसलमान या अन्य-धर्मी व्यक्ति देश का शासक चुन लिया जाता, तो हिंदुओं को क्या आपत्ति हो सकती थी- आखिर हिंदू बहुमत के समर्थन के बिना वह निर्वाचित ही नहीं हो सकता था (न आज निर्वाचित हो सकता है), बल्कि अल्पसंख्यक समुदाय का व्यक्ति निर्वाचित होकर शासक बनता तो यह बहुसंख्यक समाज की उदार चेतना का बहुत बड़ा प्रतीक होता.

लेकिन इन आठ सौ वर्षो में लोकतंत्र नहीं था, सामंतवाद था, जो हिंसा पर आधारित था. किसी भी समुदाय का व्यक्ति हिंसक शक्ति का सहारा लेकर किसी भी अन्य समुदाय पर शासन कर सकता था. हम इसे कश्मीर और हैदराबाद के उदाहरण से अच्छी तरह समझ सकते हैं. कश्मीर में बहुमत मुसलमानों का था और शासन हिंदू करता था. हैदराबाद में हिंदू ज्यादा थे, पर शासक मुसलमान था. यह एक अस्वाभाविक घटना थी. सामंतवादी व्यवस्था में सामंत भी स्थानीय व्यक्ति होगा. इसलिए हिंदू-प्रधान देश का शासक किसी हिंदू को ही होना चाहिए था. ऐसा क्यों नहीं हो सका? जाहिर है, इसके पीछे हिंदुओं की गंभीर दुर्बलताएं थीं. संघ परिवार अगर सचमुच हिंदुओं का हितू है, तो उसे इन दुर्बलताओं की पड़ताल करनी चाहिए थी और देखना चाहिए था कि क्या उनमें से कुछ दुर्बलताएं अब भी कायम है?

लेकिन यह कहना कि आठ सौ साल बाद पहली बार हिंदू शासन कर रहा है, सच नहीं है. तथ्य इसका समर्थन नहीं करते. मोदी के पहले जो भी प्रधानमंत्री बना, वह हिंदू ही तो था. जवाहरलाल नास्तिक थे, धर्म में उन्हें विश्वास नहीं था, लेकिन वे एक हिंदू परिवार से आए थे तथा हिंदू ही माने जाते थे. भारत के संविधान में हिंदू को इसी तरह परिभाषित भी किया गया है- जो किसी भी अन्य धर्म को नहीं मानता, वह हिंदू है. यह हिंदू की नकारात्मक परिभाषा है तथा संविधान निर्माताओं ने अनुभव किया कि हिंदू की कोई सकारात्मक परिभाषा खोज पाना असंभव है, तो इसीलिए कि यह सचमुच असंभव है.

विश्व हिंदू परिषद हिंदुओं में फूट डालना चाहती है. उसने अपना एक अलग हिंदू तैयार कर रखा है, जो मुसलमानों से घृणा करता है. जब वह यह कहता है कि आठ सौ वर्षो तक भारत में गैर-हिंदू शासन रहा, तो उसके हृदय में सामान्य हिंदू नहीं, बल्कि अपना-अपना हिंदू होता है. सिर्फ  हिंदू होने के बारे में सोचें, तो नेहरू, शास्त्री, वीपी सिंह, गुजराल, नरसिंह राव हिंदू नहीं थे- यह दावा कौन कर सकता है? लेकिन संघ परिवार की नजर में प्रधानमंत्रियों की परंपरा में सिर्फ  नरेंद्र मोदी हिंदू हैं, क्योंकि वे भारत के सामान्य हिंदू नहीं हैं, संघ परिवार की परिभाषा में आने वाले हिंदू हैं. इससे एक बार फिर यह सवाल उठता है जिसे राममनोहर लोहिया ने ‘हिंदू बनाम हिंदू’ का नाम दिया था.

इसमें कोई शक नहीं कि मोदी के व्यक्तित्व ने लगभग पूरे देश को मुग्ध कर रखा है. लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि जब वे संघ परिवार की भाषा बोलने लगेंगे, तो बहुतों के चित्त से उतर जाएंगे. मोदी की जीत का मतलब यह नहीं है कि पूरा भारत संघी हो गया है. लोग तो उन्हें विकास-पुरु ष समझते हैं तथा उम्मीद करते हैं कि उनके नेतृत्व में देश प्रगति करेगा और व्यापक गरीबी इतिहास की वस्तु हो जाएगी. इसी महास्वप्न के कारण वे प्रधानमंत्री के चित्त में अंतर्भूत हिंदूवाद का बुरा नहीं मानते. किसी भी व्यक्ति से पूछा जाए कि अगर उसके सामने  आर्थिक विकास और सांप्रदायिकता, दो ही विकल्प हों, तो वह किसे चुनेगा; तो निश्चित रूप से वह आर्थिक विकास को प्राथमिकता देगा. लेकिन वह सिर्फ नरेंद्र मोदी को हिंदू मानता है और ममता बनर्जी, मुलायम सिंह,  नीतीश कुमार आदि को हिंदू नहीं मानता, यह झूठ कौन अपने ऊपर ले सकता है?



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