भारतीय संतत्व का मूल तत्व त्याग

Last Updated 23 Nov 2014 04:05:15 AM IST

भारतीय परंपरा संत प्रिय है. समाज के हितचिंतक होते हैं संत. संत दूसरों का दुख स्वयं सहते हैं. सो हम संतों को ‘बाबा’ कहते हैं.


हृदयनारायण दीक्षित

बाबा यानी पितामह. बाप के बाप. कबीर संत थे, सूर संत थे, रामानुज, रविदास, मलूकदास और तुलसीदास सब संत थे. हमारे राष्ट्रजीवन में संत परंपरा की अविरल धारा है. संत आचरण अनंत का आख्यान रहे हैं. भारत ने लोकमंगल साधना से जुड़े लोगों को अनवरत और अकूत प्यार दिया है. स्वहित की अभिलाषा से मुक्त लोकमंगल अभीप्सु महानुभाव यहां संत कहे गए. ऐसी ही साधना में संलग्न महामना साधू कहे गए. व्यक्तिगत चेतना के लिए यहां आत्मा शब्द प्रचलित है. व्यक्तिगत को महतत्व की ओर ले जाने वाले महात्मा कहे गए. ऋषि तत्ववेत्ता थे. उन्होंने मंत्र देखे. गाए. वे मंत्रद्रष्टा थे. परंपरा ने ऐसे सारे प्रतीको को प्यार, आदर और सम्मान दिया है. वे श्रद्धेय थे और सम्मानित थे. स्वाभाविक ही इसकी नकल भी हुई.

बाजार में असल माल की नकल होती ही है. श्रद्धालु असली-नकली में फर्क नहीं करते. अर्थशास्त्री ग्रेशम ने बताया था कि खोटे-नकली सिक्के अच्छे-असली सिक्कों को चलन से बाहर कर देते हैं. संतत्व प्रगाढ़ भाव है, एक जीवन दृष्टि और संत से अनंत हो जाने की संभावना. संतत्व पदार्थ या वस्तु नहीं. होता तो बाजार में सुंदर पैकिंग में उपलब्ध होता. लेकिन संप्रति अनेक संत बाजार में उपलब्ध हैं. आस्थालु जनमानस में संत प्रवचनों की मांग बढ़ी है. जान पड़ता है कि ऐसे प्रवचनकत्र्ता उत्तर वैदिक काल में भी रहे होंगे. कठोपनिषद् के एक मंत्र में ‘प्रवचन’ को व्यर्थ बताया गया है. कहा गया है कि आत्मदर्शन प्रवचन से नहीं मिलता. लेकिन उपनिषद् बीती बात हो गए. अब टीवी पर हर समय प्रवचन हैं. आत्मज्ञान का बाजार है. ब्रह्मज्ञान की सुनामी है. कबीर के चित्त पर वास्तविक ज्ञान की आंधी आई थी. गाया था- संतो भाई आई ज्ञान की आंधी. फिर क्या हुआ कबीर का, उन्होंने बताया कि भ्रम और मायामोह की ठाटी, छप्पर सब उड़ गए. कबीर संत परंपरा के ध्रुव तारा हैं.

कबीर बाजार में खड़े थे. कोई छोटा बाजार रहा होगा. आधुनिक मॉल या स्काई शाप नहीं. बोले कबिरा खड़ा बाजार में/लिए लुकाठी हाथ/जो घर बारे आपना चले हमारे साथ. निर्मल चित्त था, कबीर का. निर्मल बाबा जैसे अनेक अन्य भी बाजार में खड़े हैं. कबीर घर फूंकने का न्योता दे रहे थे. कौन साथ दे! आधुनिक अनेक निर्मल बाबा संपदा दूनी-तिगुनी करवाने का वादा कर रहे हैं. उनका समर्थन क्यों न किया जाए! आशा अभिलाषा का योजनागत विकास है. आसाराम के साथ भीड़ जुटी. वे कोर्ट-कचहरी से पीड़ित हैं और हम ठगे जाने के कारण. क्या करें कबीर बारंबार सामने आ जाते हैं. माया को महाठगिनि कहा और फिर मजे से गाया- रमैया की दुलहिन लूटे बाजार. ‘रमैया की दुलहिन’ सजी-धजी बनी-ठनी पूंजी ही तो हैं. बाजारवाद में अधिकतम उपभोग उत्कृष्ट जीवन मूल्य होता है और संतत्व में त्याग. संत रामपाल ने बाजारवाद और सामंतवाद को एक साथ मिलाया. समर्थकों ने राजव्यवस्था को भी चुनौती दी. संत रामपाल भी संभवत: कबीरपंथी हैं, लेकिन उन्होंने कबीर की बातें नहीं सुनीं.

चित्रकूट मनोरम स्थल है. श्रीराम वनवास अवधि में लगभग 12 साल यहीं रहे. सुना है- चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीड़/तुलसीदास चंदन घिसे, तिलक देत रघुवीर. संतों की भीड़ जुटी. श्रद्धालु, श्रद्धा और श्रद्धेय की त्रयी देखने. आश्चर्य है कि संतों की इस भीड़ ने चित्रकूट के आसपास फ्लैट, आश्रम वगैरह बनाने का कोई विचार क्यों नहीं किया! उन दिनों आज जैसा मीडिया भी नहीं था. जमीन हथियाने को लेकर कोई लफड़ा भी न होता. लेकिन संतों ने संतई नहीं छोड़ी. उन्होंने भौतिक सुख-समृद्धि का जीवन छोड़कर संस्कृति का संवर्धन किया है. दुनिया की कोई भी सभ्यता ऐसी त्यागी और तपस्वी संत परंपरा नहीं विकसित कर पाई. आधुनिक भारत में भी प्राचीन संत परंपरा वाले अनेक महानुभाव हैं. बाजारवाद से दूर होने के कारण वे चलन से बाहर हैं. कुछेक कथित संतों ने संत परंपरा को चोट पहुंचाई हैं. भारतीय संतत्व का मूल तत्व त्याग है और अनिवर्चनीय प्रेमरस ही है.



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