महाराष्ट्र में जारी चूहे-बिल्ली का खेल

Last Updated 22 Nov 2014 12:23:54 AM IST

महाराष्ट्र में भाजपा की लंगड़ी सरकार को भयभीत करने के लिए रोज अलग-अलग बयान आ रहे हैं.


महाराष्ट्र में जारी चूहे-बिल्ली का खेल

भाजपा को बिना शर्त समर्थन देने वाली एनसीपी के प्रमुख शरद पवार ने पहले तो कहा कि फड़नवीस सरकार को जिंदा रखना उनकी जिम्मेदारी नहीं है. पवार का बयान आते ही शिवसेना राज्य सरकार के बचाव में उतर आई. जब पवार ने नरम रु ख अपनाया तो उनकी बेटी सुप्रिया सूले आक्रामक हो गई. भाजपा को समर्थन देने से नाराज एनसीपी समर्थक मुस्लिम वोट बैंक की भावनाओं को ध्यान में रखकर उन्होंने कहा कि पार्टी का यह निर्णय गलत था. एक ओर सत्ता में भागीदारी के लिए शिवसेना कड़ी सौदेबाजी कर रही है, दूसरी तरफ उसके नेता कह रहे हैं कि अल्पमत फड़नवीस सरकार आईसीयू में है. तमाम घमासान के बावजूद भाजपा का दावा है कि उसकी सरकार पूरे पांच साल चलेगी.   

अब बड़ा सवाल यह है कि क्या मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस देश के दूसरे सबसे बड़े सूबे की जनता को भ्रष्टाचार मुक्त शासन दे पाएंगे? क्या राज्य में हर साल आत्महत्या करने वाले हजारों किसान परिवार गरीबी और गुरबत के कुचक्र से मुक्त हो पाएंगे? क्या राज्य की जनता सशक्त शुगर और सहकारिता लॉबी के चंगुल से निकल पाएगी? मौजूदा परिस्थिति में यह संभव नहीं दिखता. वहां सत्ता का निर्मम खेल चल रहा है जिसमें सारे सिद्धांतों को तिलांजलि दे दी गई है. हर पार्टी का मकसद अधिक से अधिक ताकत बटोरना है.

महाराष्ट्र के मौजूदा घटनाक्रम के तीन मुख्य किरदार हैं. पहले स्थान पर भाजपा है. गत विधानसभा चुनाव में अकेले दम 121 सीट जीतकर वह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी. लोकसभा चुनाव में भारी सफलता के बाद पार्टी का मनोबल सातवें आसमान पर है. उसकी रणनीति स्पष्ट है. भाजपा अपने प्रभाव वाले राज्यों की विधानसभाओं में बहुमत जुटाने के मार्ग पर चल रही है. जहां गठबंधन है, वहां भी उसे सत्ता में बड़ा हिस्सा चाहिए. सहयोगी क्षेत्रीय पार्टयिों का वर्चस्व स्वीकारने या धौंस सहने को वह तैयार नहीं है. उसकी मंशा पूरे देश पर एकछत्र राज करने की है. इसी रणनीति के तहत पार्टी ने महाराष्ट्र चुनाव से ठीक पहले शिवसेना के साथ 25 वर्ष पुराना गठबंधन तोड़कर अकेले चुनाव लड़ा और सबसे ज्यादा सीटें जीतकर शिवसेना को उसकी औकात दिखा दी.

मराठी मानुस का नारा देकर महाराष्ट्र में जड़ जमाने वाली शिवसेना बुरी तरह बौखलाई हुई है. राज्य की राजनीति में भाजपा को अपने से छोटा मानने वाली सेना को नया सच स्वीकारने में तकलीफ हो रही है. महाराष्ट्र विधानसभा में शिवसेना के मुकाबले भाजपा के पास लगभग दो गुना सीटें हैं. उद्धव ठाकरे की पार्टी को भाजपा की अपेक्षा वोट भी दस प्रतिशत कम मिले हैं. हिंदू राष्ट्रवाद में विश्वास रखने वाली ये दोनों पार्टियां सैद्धांतिक स्तर पर भले ही निकट हों, लेकिन सत्ता बंटवारे के मुद्दे पर एक-दूसरे पर जहरीले तीर छोड़ने से नहीं चूकतीं. विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा चाहती है कि शिवसेना उसकी शतरे पर सरकार में शामिल हो. सेना की मलाईदार मंत्रालयों की मांग को लालच और बदनीयत से जोड़कर उसे खासा बदनाम किया जा चुका है. प्रचार किया जा रहा है कि भाजपा का उद्देश्य अच्छा शासन देना है, केवल सरकार बचाना नहीं.

राज्य की तीसरी किरदार एनसीपी है. उसकी मौकापरस्ती से जनता दंग है. कांग्रेस के साथ राज्य में पंद्रह साल तक सत्ता सुख भोगने वाली इस पार्टी के सुप्रीमो शरद पवार खुले आम भाजपा सरकार को बिना शर्त समर्थन दे रहे हैं. विधानसभा चुनाव में भाजपा ने एनसीपी पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए थे. सत्ता में आने पर जांच कर सजा देने का आश्वासन भी दिया था लेकिन आज उसे भ्रष्ट एनसीपी से समर्थन लेने में कोई झिझक नहीं है. भाजपा के कर्णधार शिवसेना से सौदेबाजी में एनसीपी को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं. शरद पवार ने बिना शर्त समर्थन देकर अपनी पार्टी और परिवार को मौजूदा सरकार के कोप से सुरक्षित कर लिया है. महाराष्ट्र की भौंडी राजनीति का यह कड़वा सच अगले पांच बरस तक जनता को पचाना पड़ेगा.

स्वार्थ के लिए राजनीतिक दल किस हद तक जा सकते हैं, यह जानने के लिए एक उदाहरण काफी है. एक तरफ शिवसेना ने नेता प्रतिपक्ष का पद पाने के लिए बाकायदा महाराष्ट्र विधानसभा सचिव को पत्र लिख दिया और दूसरी ओर राज्य सरकार में अपने मंत्रियों की संख्या और पदों के लिए उसने भाजपा से बातचीत बनाए रखी. तर्क दिया गया कि नेता प्रतिपक्ष का पद पाने की कांग्रेस की कोशिश की काट में यह कदम उठाया गया है. जिस दिन सेना ने यह काम किए, उसी दिन एनसीपी ने राज्य में स्थायित्व की आड़ में फड़नवीस सरकार के समर्थन में मतदान करने की घोषणा की. भाजपा के दोनों हाथ में लड्डू है, इसलिए उसने पूरे घटनाक्रम पर चुप्पी साध रखी है.

मुंबई सहित महाराष्ट्र के कई नगर निगमों पर भाजपा और शिवसेना का साझा कब्जा है. यदि दोनों पार्टियों के बीच स्थाई दीवार खिंच गई तो उसका असर नीचे तक पड़ेगा. केंद्र में भाजपा के पास अपना बहुमत है लेकिन संसद में आर्थिक सुधार संबंधी महत्वपूर्ण विधेयक पारित कराने के लिए उसे भी शिवसेना के 18 सांसदों की जरूरत पड़ेगी. ऐसे में दोनों दल एक-दूसरे को गीदड़ भभकी तो दे सकते हैं, किंतु स्थाई संबंध विच्छेद का जोखिम नहीं उठा सकते.

भले ही हालात इन दोनों दलों को साथ चलने के लिए मजबूर कर दें, किंतु उनके बीच की कड़वाहट जल्दी जाना कठिन है. शिवसेना का जनाधार खिसक रहा है. आज उसके पास बाल ठाकरे जैसा दबंग नेता भी नहीं है. भाजपा उसे शेर से चूहा बनाने की योजना पर तेजी से अमल कर रही है. सुरेश प्रभु जैसे साफ-सुथरी छवि के नेता को भाजपा में शामिल करने के तुरंत बाद रेल मंत्रालय सौंपकर मोदी ने उद्धव ठाकरे के समर्थकों को संदेश दिया है कि यदि वे पार्टी छोड़कर आएंगे तो उन्हें भी पुरस्कृत किया जा सकता है.

महाराष्ट्र के मतदाता चार पार्टियों के बीच बंटे हैं. इनका सबसे बड़ा हिस्सा भाजपा (28 प्रतिशत) के पास है. शिवसेना का वोट बैंक 18-20 फीसद के बीच है. कांग्रेस और एनसीपी की झोली में लगभग बराबर-बराबर (17-18 प्रतिशत) वोट हैं. भाजपा ने अल्पमत सरकार बनाई है लेकिन उसे जिंदा रखने में एनसीपी और शिवसेना की रुचि अधिक है. दोनों पार्टियों को डर है कि यदि फड़नवीस की सरकार गिर गई और निकट भविष्य में फिर चुनाव हुए तो उनके विधायकों की संख्या बढ़ने के बजाए घट सकती है.

दूसरी तरफ अमित शाह हैं, जिन्हें भाजपा के विस्तार का पूरा भरोसा है. इसीलिए भाजपा के कर्णधार निश्चिंत हैं. उनका लक्ष्य शिवसेना का वोट बैंक हड़पकर अकेले दम बहुमत पाना है. फिलहाल पार्टी के आला नेताओं का पूरा ध्यान झारखंड और जम्मू-कश्मीर चुनाव पर लगा है. इसके बाद बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश और असम उनके नक्शे पर हैं. महाराष्ट्र में वे शिवसेना के साथ चूहे-बिल्ली का खेल खेल रहे हैं. इस खेल में चूहे की मौत निश्चित होती है.    

(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)

धर्मेन्द्रपाल सिंह
लेखक


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