त्रिशंकु सदन की त्रिशंकु राजनीति

Last Updated 01 Nov 2014 12:53:42 AM IST

अदालत द्वारा मामले की सुनवाई 11 नवम्बर तक टालने और उपराज्यपाल के प्रयासों की तारीफ करने से साफ है कि दिल्ली में सरकार बनाने का काम अदालती लड़ाई के माध्यम से सुलझने की उम्मीद नहीं की जा सकती.


त्रिशंकु सदन की त्रिशंकु राजनीति

सच कहें तो करनी भी नहीं चाहिए. अब अदालत थोड़े ही तय करेगी कि किस दल को बहुमत का समर्थन हासिल है या वह चुनाव कराने और सदन को भंग करने का जिम्मा ले लेगी. अदालत कानूनी बातों की व्याख्या करेगी, सही-गलत का फैसला करेगी. असल में उसके दखल देने की नौबत भी इसीलिए आई क्योंकि खुद से कोई सरकार नहीं बन रही थी और दावेदार दल बार-बार अपनी पोजिशन बदल रहे थे. वे खुद बड़ी दुविधा में पड़े रहे. और मामला जब अदालत में आया तब तक आम चुनाव घोषित हो गए थे.

हर मामले में लेटलतीफी करने वाली यूपीए सरकार ने इस सवाल पर भी उपराज्यपाल के माध्यम से जवाब देने में टालमटोल वाला नजरिया ही अपनाया. पर जब भाजपा अपार बहुमत और दिल्ली की सातों सीटें जीतकर आई तो वह भी दुविधाओं से मुक्त नहीं हुई और उसने अब तक पांच महीने से ज्यादा का समय लगा दिया और कोई फैसला नहीं हो पाया. उपचुनाव के तीन दौर बीत जाने और दो राज्यों में भाजपा की जीत के बाद तीन सीटों के उपचुनाव तो घोषित हो गए पर दिल्ली में सरकार या फिर से चुनाव में उतरने की दुविधा खत्म नहीं हुई है.

लोकसभा चुनाव के समय दिल्ली में मिली सफलता के बाद भाजपा ने चुनाव का रास्ता क्यों नहीं चुना और बाहर से आए रामवीर विधूड़ी जैसे नेताओं को क्यों जोड़-तोड़ की संभावना तलाशने का अधिकार दिया, यह समझना मुश्किल है. लेकिन जब विधूड़ी का मिशन एकदम सफलता के करीब पहुंचा तभी शोर मचा कांग्रेस और आप विधायक दल टूटने या तोड़े जाने का. इसमें कुछ योगदान पदों और लाभों के बंटवारे का भी था. जिस भाजपा ने सबसे बड़ा दल होने के बावजूद सरकार बनाने का दावा इस बिना पर छोड़ा था कि जोड़-तोड़ और खरीद-फरोख्त की जरूरत होगी, उसका ही ऐसा करना कुछ ‘अनैतिक’ बात बताई जाने लगी. दूसरी समस्या आप जैसी पार्टी के सामने होने से भी थी और अब भी है. भाजपा ने पहले अनेक अवसरों पर सारे घटिया तरीके अपनाकर सरकारें बनाई, लेकिन दिल्ली में इस बार वह अपने नेता हषर्वर्धन के फैसले और आप के सामने होने से दुविधा में आ गई. चुनाव का रास्ता तो खुला था पर वहां भी आप के कार्यकर्ताओं की फौज और मुस्तैदी से उसे डर लगा.

भाजपा की तकलीफ पुराने सभी स्थानीय नेताओं को खारिज करने और अच्छी छवि वाले हषर्वर्धन के केंद्र में मंत्री बन जाने से भी है. सतीश उपाध्याय जैसे अनजान चेहरे को आगे करके वह चुनाव में उतरने से डर रही है. सो वह कभी चुनाव, तो कभी उपराज्यपाल से बुलावा मिलने पर सरकार बनाने की अपनी दुविधा सार्वजनिक भी करती रही है. पर उसकी तकलीफ यह है कि बिना राज किए ही दिल्ली की पूरी गड़बड़ का दोष उसके मत्थे आ रहा है. और जितनी देर हो रही है, न सिर्फ  मोदी का जादू हल्का हो रहा है बल्कि दिल्ली में भाजपा के वोट भी कम होते दिख रहे हैं.

आप ही इस मसले को अदालत में ले गई थी और लोकसभा चुनाव में हुई दुर्गति के बावजूद दिल्ली में उसकी स्थिति ठीकठाक है. अब कहने वाले तो यही कहते हैं कि जब राजनीतिक झगड़ा अदालत की शरण में जाए तो इसे कमजोरी का ही लक्षण मानना चाहिए. आप भले ही कार्यकर्ताओं की फौज, ईमानदारी की ताकत और सभी बड़े नेताओं के दिल्ली में ही केंद्रित होने से खुद को मजबूत मान रही हो, फिर उसने दिल्ली में मुस्तैद लड़ाई के लिए ही हरियाणा और महाराष्ट्र में चुनाव नहीं लड़ा; पर दिल्ली में सरकार बनाकर न चला पाने और उसके बाद लगातार अपना स्टैंड बदलते जाने का दोष तो उस पर है ही. आज वह चुनाव की मांग कर रही है और अदालत को मुश्किल में डाल रही है कि वह राष्ट्रपति से चुनाव कराने या सरकार बनवाने को कहे, पर खुद अरविंद केजरीवाल ही सदन भंग करने से लेकर सरकार गठन के नए दावे तक कर आए हैं. पर आप की सबसे बड़ी परेशानी उसके अपने विधायक हैं जो कौडी के तीन बिकने को तैयार हों न हों, लेकिन किसी भी कीमत पर फिर से चुनाव नहीं लड़ना चाहते. इसमें से कई के टूटने की चर्चा है, तो कई खुद ही तैयार बैठे हैं. औरों से ज्यादा खुद आप नेताओं को यह बात पता होगी, इसीलिए वे चुनाव की मांग कर रहे हैं.

दिल्ली की राजनीति का तीसरा कोण कांग्रेस बनाती है. उसने भी सारी बातें कह-कर ली हैं. पहले आप की सरकार बनवाई, फिर गिराने में भाजपा का साथ दिया, कभी चुनाव कराने की मांग की, कभी सरकार बनाने में भाजपा का साथ देने के लिए उसी के विधायक सबसे आगे आ गए. चूंकि कांग्रेस के सिर्फ  आठ विधायक ही हैं, इसलिए उसे तोड़ना आप की तुलना में आसान है. और आप के आ जाने से कांग्रेसी आगे भी अपना भविष्य नहीं देखते, तो उन्हें भाजपा के साथ जाने और माखन-मिश्री पाने में हर्ज नहीं लग रहा था. कुछ बात तो पदों के बंटवारे में फंसी और कुछ खेल मीडिया ने बिगाड़ा. और अब भी दिल्ली की पांचवी विधानसभा में संख्या का गणित ऐसा उलझा हुआ है कि कांग्रेसी विधायकों की बल्ले-बल्ले होगी ही. कहने को कांग्रेस चुनाव की बात कर रही है पर उसके विधायक सबसे ज्यादा चुनाव के विरोधी हैं. पिछले चुनाव में मुसलमानों की दुविधा के चलते ही कांग्रेस को अधिकांश सीटें मिली थीं. इस बार मुसलमान वोट सबसे पहले आप की झोली में जाएगा. दिल्ली में एक निर्दलीय और एक जदयू के शोएब इकबाल भी जीते हैं, पर त्रिशंकु सदन में उनके हिलने-डुलने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ रहा है और शोएब तो काफी पाला बदल भी चुके हैं.

इसलिए अब अगर अदालत उपराज्यपाल और उनके नाम पर सरकारी वकील को फटकारने की जगह उनकी तारीफ करने लगी है, उपराज्यपाल भी सिर्फ  भाजपा या सबसे बड़ी पार्टी की जगह सबसे सरकार बनाने की बात नए सिरे से करने को कह रहे हैं और राष्ट्रपति से भी इस दिशा में आगे बढ़ने की स्वीकृति आ गई है, तब भी इसे सरकार बन ही जाने का लक्षण न मान लें. तीन दिन पहले बहुमत के बारे में पूछताछ करने वाली अदालत तो अब अल्पसंख्यक सरकार की बात भी करने लगी है. असल में यह सब 23 नवम्बर को हो रहे तीन उपचुनाव के पहले सिर्फ  हवा भांपने की कवायद हो सकती है. दिल्ली के तीन भाजपा विधायकों के सांसद बन जाने से ये तीन स्थान खाली हुए थे. अब अगर भाजपा ये स्थान फिर से जीत जाती है तब भी सदन का सीधा अंकगणित बदलने वाला नहीं है पर तीन सीटें जीतकर भाजपा पूरे चुनाव में उतरने का साहस जरूर पा जाएगी. अगर एकाध सीट हाथ से निकली तो फिर जोड़-तोड़ से सरकार बनाने का विकल्प बना ही रहेगा. अर्थात यह काम दिसम्बर-जनवरी में हो सकता है, पर ज्यादा उम्मीद फरवरी में चुनाव की है.

(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी है)

अरविंद मोहन
लेखक


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