आधुनिक भारत के चाणक्य सरदार पटेल

Last Updated 31 Oct 2014 01:01:09 AM IST

भारत के राजनीतिक इतिहास में सरदार पटेल के योगदान का गौरवपूर्ण स्थान है.


आधुनिक भारत के चाणक्य सरदार पटेल

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को वैचारिक एवं क्रियात्मक दिशा देने के कारण वे आधुनिक भारत के शिल्पी थे. अपने निर्भीक नेतृत्व तथा सुदृढ़ प्रशासनिक क्षमता के कारण सरदार पटेल की छवि भारत के जनमानस पर सदैव अंकित रही है. खेद का विषय है कि अभी तक हम इस महान राष्ट्र नायक के राष्ट्रीय अवदान की उपेक्षा करते रहे हैं. विडंबना यह भी रही है कि सरदार पटेल के निधन के बाद सत्तासीन राजनीतिज्ञों ने अपने संकीर्ण स्वाथरे के कारण उनके राष्ट्रवादी मूल्यों की घोर उपेक्षा की और उन्हें वह राष्ट्रीय सम्मान नहीं दिया गया, जो एक राष्ट्र-निर्माता को दिया जाना चाहिए था.

 सरदार पटेल को खेड़ा संघर्ष और बारडोली सत्याग्रह के लिए सबसे ज्यादा याद किया जाता है. खेड़ा संघर्ष में उन्होंने अंग्रेजों का विरोध करते हुए किसानों का कर माफ कराया था, जबकि बारडोली के सत्याग्रह में अंग्रेज सरकार द्वारा निर्धारित 30 फीसद लगाम का उन्होंने विरोध किया. इस आंदोलन में उन्होंने लाठियां खाई, लेकिन पीछे नहीं हटे, अंत में अंग्रेजों को उनके आगे झुकना पड़ा. इसी किसान आंदोलन के बाद से उन्हें ‘सरदार’ की उपाधि दी गई. सरदार पटेल की सबसे अधिक ख्याति भारत के रजवाड़ों को शांतिपूर्ण तरीके से भारतीय संघ में शामिल कराने तथा भारत के राजनीतिक एकीकरण में अहम योगदान के कारण है.

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद करीब पांच सौ से भी ज्यादा देसी रियासतों का एकीकरण सबसे बड़ी समस्या थी. इस काम को उन्होंने बिना खून बहाए सिर्फ कुल कूटनीति के जरिए संपादित कर दिखाया और उन्होंने अधिकांश रियासतों को तिरंगे के तले लाने में सफलता प्राप्त की. आजादी मिलने से पहले ही सरदार पटेल ने पीवी मेनन के साथ मिलकर कई देसी राज्यों को भारत में मिलाने का कार्य आरंभ कर दिया था जिसके परिणामस्वरूप तीन को छोड़कर शेष सभी रजवाड़ों ने स्वेच्छा से भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया.

15 अगस्त 1947 तक हैदराबाद, कश्मीर और जूनागढ़ को छोड़कर शेष भारतीय रियासतें ‘भारत संघ’ में सम्मिलित हो गई. जब हैदराबाद के निजाम ने भारत में विलय का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया तो सरदार पटेल ने वहां सेना भेजकर निजाम का समर्पण करा लिया. लक्षद्वीप समूह को भारत के साथ मिलाने में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी. भारत के रजवाड़ों को शांतिपूर्ण तरीके से भारतीय संघ में शामिल कराने के लिए सरदार पटेल को भारत का लौह पुरुष माना जाता है. बिस्मार्क ने जिस तरह जर्मनी के एकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उसी तरह वल्लभ भाई पटेल ने भी आजाद भारत को एक विशाल राष्ट्र बनाने में सर्वाधिक योगदान दिया.

दरअसल, सरदार पटेल वर्तमान भारत राष्ट्र के निर्माता और आधुनिक चाणक्य थे. लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व जिस प्रकार विष्णुगुप्त ‘चाणक्य’ ने खेतिहर किसानों, कामगार शिल्पियों को संगठित कर एक कल्याणकारी सार्वभौम अखंड राष्ट्र की बुनियाद रखी थी, उसी प्रकार सरदार पटेल ने महात्मा गांध्ी के सत्याग्रह आंदोलन के साथ किसानों को जोड़कर देश को ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्ति दिलाने में सेनापति की भूमिका का निर्वाह किया था. सरदार पटेल की राजनीतिक पहचान किसान आंदोलन से उभरे एक जुझारू नेता की रही.

बारडोली आंदोलन को जिस तरह उनका निर्भीक नेतृत्व मिला उससे ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिल गई थीं. महावीर त्यागी ने सरदार पटेल की राजनीतिक क्षमताओं का मूल्यांकन करते हुए सही कहा है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनापति सरदार पटेल ने बिना कोई अमेघ का अनुष्ठान किए, बिना किसी तीर-तलवार का प्रयोग किए स्वतंत्रता प्राप्ति के केवल एक वर्ष के भीतर ही इतने बड़े चक्रवर्ती भारत राष्ट्र की रचना कर दी जितना बड़ा राज्य न कभी रामचंद्र का था, न कृष्ण का, न अशोक का, न अकबर का और न ही अंग्रेजों का.

चाणक्य के समान सरदार को भी पद-ऐर्य तथा धन-संपत्ति के संग्रह की कोई लालसा नहीं थी. तन-मन-धन से गांधीवादी जीवन दर्शन के अनुयायी सरदार पटेल ने अपने परिवार तथा बच्चों के लिए कोई संपत्ति नहीं जोड़ी. उन्हें जनता जनार्दन से जो कुछ मिला उस सबको देशहित में समर्पित कर दिया. सरदार के राजनीतिक विरोधियों ने उन्हें मुस्लिम वर्ग के विरोधी के रूप में पेश किया है. परंतु वास्तव में सरदार हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए संघषर्रत रहे. इसकी पुष्टि स्वतंत्रता-प्राप्ति के तत्काल बाद अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में दिए गए उनके व्याख्यान से भी होती है.

दरअसल, सरदार पटेल अनेक संवेदनशील मुद्दों पर विवादों में घिरे रहे. सरदार पटेल को भारत के गृह मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान हैदराबाद, कश्मीर आदि अनेक संवेदनशील राजनीतिक मामलों को सुलझाने में कई गंभीर मुश्किलों का सामना करना पड़ा था. जवाहरलाल नेहरू हैदराबाद के भारत में शीघ्र विलय के पक्ष में नहीं थे. वे चाहते थे कि हैदराबाद में की जाने वाली सैनिक कार्रवाई को स्थगित कर दिया जाए. कांग्रेसी नेता प्रो. एनजी रंगा लिखते हैं कि हैदराबाद के मामले में सरदार पटेल ने यदि नेहरू की सलाहें मान ली होतीं तो हैदराबाद मामला भी कश्मीर की तरह उलझ जाता. यदि सरदार पटेल को कश्मीर समस्या सुलझाने की अनुमति दी जाती, तो हैदराबाद की तरह यह समस्या भी तभी आसानी से सुलझाई जा सकती थी.

सरदार ने स्वयं एचवी कामत को बताया था कि ‘यदि जवाहरलाल नेहरू और गोपालस्वामी आयंगर कश्मीर मुद्दे पर हस्तक्षेप न करते और उसे गृह मंत्रालय से अलग न करते तो मैं हैदराबाद की तरह ही इस मुद्दे को भी आसानी से सुलझा लेता.’ विदेश नीति के संबंध में भी सरदार पटेल नेहरू के विचारों से सहमत नहीं थे. नेहरू राष्ट्रमंडल से किसी भी प्रकार का नाता नहीं जोड़ना चाहते थे तथा सरदार पटेल के वैचारिक दबाव के कारण ही नेहरू राष्ट्रमंडल का सदस्य बनने के लिए प्रेरित हुए. सरदार पटेल चीन के साथ मैत्री तथा ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के विचार से भी सहमत नहीं थे. उन्होंने चीन की तिब्बत नीति पर एक लंबा नोट लिखकर उसके दुष्परिणामों से नेहरू को आगाह किया था.

कुछ निहित राजनीतिक स्वार्थ के वशीभूत होकर लोगों ने नेहरू और पटेल के बीच विवाद को बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित किया. जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल के बीच बहुत विरोधभास थे, कई मुद्दों पर उनके बीच बहुत सारे मतभेद भी थे, लेकिन मनभेद कभी नहीं रहा. सबसे बड़ी बात यह थी कि दोनों ने कंधे से कंधा मिला कर देशहित में काम किया. आज भारत राष्ट्र को यदि पुन: खुशहाल बनाना है और उसे एकता के सूत्र में बांधना है तो सरदार पटेल के राष्ट्रवादी मूल्यों को भारतीय राजनीति से जोड़ने की आवश्यकता है ताकि आर्थिक बदहाली का दंश झेल रहे जन सामान्य तथा आत्महत्या का अभिशाप सह रहे उस भारतीय कृषक समुदाय का कल्याण हो सके जिनके लिए सरदार पटेल जीवन भर संघर्ष करते रहे थे.

डॉ. मोहन चंद तिवारी
लेखक


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