भाजपा विरोधी राजनीति के अस्तित्व का सवाल
महाराष्ट्र और हरियाणा में भाजपा की अप्रत्याशित जीत से कांग्रेस जमींदोज हो गई है, तो क्षेत्रीय दलों के राजनीतिक अस्तित्व पर भी संकट मंडराने लगा है.
भारतीय निर्वाचन आयोग (फाइल फोटो) |
भाजपा का अगला निशाना अब झारखंड और जम्मू-कश्मीर हैं. इन राज्यों के विस चुनावों की तारीखें घोषित हो गई हैं. इन दोनों राज्यों में क्षेत्रीय दलों के नेतृत्व में गठबंधन की सरकार है जिसमें कांग्रेस सहयोगी की भूमिका में है. इसलिए भाजपा के विजय रथ को रोकने की बड़ी चुनौती क्षेत्रीय दलों और कांग्रेस के सामने है. झारखंड में सत्तारूढ़ झामुमो और कांग्रेस अपने अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर चुनाव लड़ने जा रहे हैं ताकि मतों का बिखराव रोका जा सके. किंतु जम्मू-कश्मीर में स्थिति उलट है. यहां सत्तारूढ़ नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस का गठबंधन टूट चुका है. दोनों अलग-अलग चुनाव में जाने को तैयार हैं. फलत: बहुकोणीय मुकाबला तय है. इससे भाजपा उत्साहित है. जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाना प्रधानमंत्री मोदी और अध्यक्ष अमित शाह का ड्रीम प्लान है. वे इन दोनों राज्यों में अपने दम पर सरकार बनाना चाहते हैं. हरियाणा में भाजपा को मिली अभूतपूर्व सफलता ने क्षेत्रीय क्षत्रपों की बेचैनी और बढ़ा दी है.
जनसंख्या और सीटों के लिहाज से झारखंड और जम्मू-कश्मीर छोटे राज्य जरूर हैं, किंतु वर्तमान राजनीति हालात में ये राज्य चुनावी दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण हैं. यहां क्षेत्रीय क्षत्रप कसौटी पर हैं. चुनाव परिणाम आगे की दिशा तय करेंगे क्योंकि अगले साल बिहार में चुनाव होने वाले हैं, तो वर्ष 2016 की शुरुआत में ही चार महत्वपूर्ण राज्यों में (पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल तथा असम) में चुनाव तय हैं. फिलहाल इन राज्यों में क्षेत्रीय दलों और कांग्रेस की सरकारें हैं. यहां भाजपा के अप्रत्याशित उभार से क्षेत्रीय राजनीति करने वाले क्षत्रप हैरान-परेशान हैं क्योंकि भाजपा राज्यों में अपना राजनीतिक आधार बढ़ाने के लिए छोटे-छोटे दलों को मिला रही है अथवा उनसे गठबंधन कर रही है.
इतना ही नहीं, वह क्षेत्रीय क्षत्रपों की ही तरह क्षेत्रीय सवाल उठाकर उनको अप्रसांगिक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है. इसलिए उसने राज्यों के चुनावों में क्षेत्रीय घोषणापत्र जारी करने का नया राजनीतिक हथकंडा अपनाया है. उसका यह प्रयोग काफी सफल रहा है. अभी तक कांग्रेस ऐसा करने में चूक रही थी, जिसका ही फायदा उठाकर क्षेत्रीय क्षत्रप क्षेत्रीय सवाल जोर-शोर से उठाते हुए जनता का भरोसा जीतते रहे. अब भाजपा ने उनके समक्ष बड़ी समस्या खड़ी कर दी है क्योंकि झारखंड और जम्मू-कश्मीर के बाद बड़ी सियासी लड़ाई बिहार में होनी है जहां भाजपा का मुकाबला क्षेत्रीय राजनीति के अलंबरदार नीतीश कुमार और लालू यादव से होगा.
यहां भाजपा रामबिलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा से गठजोड़ कर लोकसभा चुनाव में इन दोनों को धूल चटा चुकी है. इसे देखते हुए इन दोनों क्षत्रपों ने उपचुनावों में कांग्रेस के साथ मिलकर गठबंधन राजनीति के तहत उसकी आंधी रोकने की कोशिश जरूर की है, किंतु विस चुनाव में ही इस गठबंधन की असल अग्निपरीक्षा होनी है. इतना ही नहीं, पश्चिम बंगाल में भी भाजपा का वोट प्रतिशत जिस तरह बढ़ा है उसने ममता बनर्जी को नए सिरे से सोचने के लिए विवश कर दिया है. भाजपा इन दोनों राज्यों में इन क्षत्रपों को हरियाणा और महाराष्ट्र की तरह उनकी हद बताना चाहती है. इसीलिए उसने अभी से ही इन दोनों राज्यों पर अपना ध्यान केंद्रित कर दिया है.
झारखंड और जम्मू-कश्मीर में भाजपा की नजर छोटे क्षेत्रीय दलों को मिलाने के अलावा कांग्रेस तथा सत्तारूढ़ दल से नाराज नेताओं के पाला बदल पर टिकी है. इसी रणनीति के तहत उसे हरियाणा और महाराष्ट्र में बड़ी सफलता भी मिल चुकी है. वह ऐसी ही सफलता हासिल कर कश्मीरी अलगाववादियों को भी कड़ा जवाब देना चाहती है. आपदा राहत की घोषणा और उसकी निगरानी तथा जवानों के बीच पीएम का दिवाली मनाना उसकी इसी दूरगामी राजनीति का हिस्सा माना जा रहा है. मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को यह नहीं भूलना चाहिए कि बहुकोणीय मुकाबले में भाजपा को ही फायदा होता है. हालिया चुनाव परिणाम इसके गवाह हैं. कुछ ऐसी ही भूल महाराष्ट्र में एनसीपी, कांग्रेस से अलग चुनाव में जाकर कर चुकी है.
जम्मू-कश्मीर के जो हालात हैं उसमें हवा का रुख कांग्रेस के खिलाफ दिखता है. ऐसे में ‘एकला चलो’ की राजनीति उसे भारी पड़ सकती है. यहां भी कांग्रेस की राज्य इकाई नेशनल कांफ्रेंस के साथ चुनाव न लड़ने की हिमायती है. किंतु महाराष्ट्र में अलग लड़ने के कांग्रेस के फैसले ने उसे मुख्य पार्टी से तीसरे पायदान पर ला दिया है. इसलिए कांग्रेस को अपनी इस रणनीति पर पुनर्विचार करना चाहिए. उसे मतों के बिखराव को रोकने के लिए नए सिरे से पहल करनी चाहिए क्योंकि ग्यारह राज्यों में ही अब उसकी सरकारें बची हैं. पिछले ढाई साल में लोकसभा चुनाव के अलावा सोलह राज्यों के चुनाव हुए हैं. इनमें से ग्यारह में कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुई है. ऐसे में उसे गठबंधन की सरकार वाले राज्यों में येन-केन-प्रकारेण सत्ता में वापसी की कोशिश करनी चाहिए. लगातार चुनावी पराजय से उसके कार्यकर्ताओं में निराशा है. उनका मनोबल बढ़ाने के लिए जीत की संजीवनी चाहिए. कांग्रेस को जम्मू-कश्मीर में गठबंधन की राजनीति को आजमाने में गुरेज नहीं करना चाहिए. उसे प्रतिकूल राजनीतिक माहौल को अनुकूल बनाने के लिए तात्कालिक और दीर्घकालिक रणनीति पर साथ-साथ काम करना होगा.
उसकी पहली प्राथमिकता किसी तरह गठबंधन की सरकार वाले राज्यों में सरकार बचाने की होनी चाहिए. साथ ही उसे राज्यों में संगठन को मजबूत करने और युवा चेहरों को कमान सौंपने के फॉमरूले पर काम करना चाहिए. अन्यथा राहुल के नेतृत्व को लेकर उठ रहा सवाल और मुखर हो सकता है क्योंकि उनकी लगातार कोशिशों के बावजूद यूपी, बिहार, बंगाल और ओडिशा जैसे राज्यों में कांग्रेस अपनी पकड़ नहीं बना पा रही है. आपसी गुटबंदी के चलते पार्टी राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी सत्ता से दूर है. राहुल को यह नहीं भूलना चाहिए कि वर्ष 1998 में सोनिया गांधी ने जब कांग्रेस की कमान संभाली थी तो पार्टी की सरकार सिर्फ चार राज्यों में थी, लेकिन बाद में वह 15 राज्यों की सत्ता में आ गई थी.
वैसे झारखंड में गठबंधन राजनीति का लिटमस टेस्ट होगा. क्षेत्रीय क्षत्रप धर्मनिरपेक्ष मतों का विभाजन रोकने के लिए कांग्रेस के साथ लामबंद हो रहे हैं. वहां के चुनावी परिणाम पड़ोसी राज्य बिहार की राजनीतिक दिशा भी तय करेंगे. यहां गठबंधन की राजनीति कसौटी पर है जो 2015 में बिहार चुनाव की राजनीतिक दिशा तय करेगी क्योंकि बिहार के उपचुनावों में भाजपा को रोकने के लिए लालू-नीतीश ने कांग्रेस के साथ मिलकर गठबंधन राजनीति का नया राजनीतिक दांव चला था. उन्हें इसमें सफलता भी मिली है. झारखंड में भी यही दांव आजमाया जा रहा है जो गठबंधन राजनीति का भविष्य तय करेगा.
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