नेता चोर, अधिकारी भ्रष्ट, व्यापारी बेईमान

Last Updated 26 Oct 2014 05:52:25 AM IST

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सत्ता, साख, शक्ति और सीमा में लगातार विस्तार हो रहा है. उनका चुनावी विजय रथ हनक के साथ आगे बढ़ रहा है.


विभांशु दिव्याल (फाइल फोटो)

राजनीतिक तंत्र पर उनकी पकड़ लगातार मजबूत हो रही है. विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ मान रहे हैं कि मोदी जो भी कदम उठा रहे हैं, दूरगामी परिणामों वाली रणनीति के तहत उठा रहे हैं और पर्याप्त सोच-विचार के साथ उठा रहे हैं. परंपरावादी और विवशतावादी आलोचकों की बात छोड़ दें तो आम तौर पर अपने उठाए गए कदमों के लिए उन्होंने प्रशंसा ही बटोरी है. लेकिन अब मूल बात देश के अर्थतंत्र में वांछित सुधारों की और इन सुधारों के जरिये सबसे निचले तबकों तक अपेक्षित राहत पहुंचाने की है.

अस्सी, सौ या एक सौ पच्चीस रुपए प्रतिदिन कमाने वालों से नीचे की आय वाले लोगों को गरीबी की रेखा से नीचे मानने वालों के अनुसार भले ही देश की मात्र चौथाई आबादी ही इस रेखा से नीचे का जीवन यापन कर रही हो, लेकिन व्यावहारिक सच्चाई यह है कि देश की आधी आबादी की हद से एक सभ्य समाज में उपलब्ध होने वाली सारी सुविधाएं बाहर हैं- शिक्षा की, स्वास्थ्य की, रोजगार की और सुरक्षा की. 1991 से पहले देश में जो मिश्रित अर्थव्यवस्था चल रही थी जिसमें मुख्य और बड़ी भूमिका सार्वजनिक उपक्रमों की थी, निजी उद्यमों और उपक्रमों को अपने कार्य व्यापार के लिए तमाम तरह के प्रतिबंधकारी प्रावधानों का पेट भरना पड़ता था, उसे अंतत: असफल मॉडल मान लिया गया. 1991 के बाद जब अर्थव्यवस्था को उदारीकृत किया गया था तो माना गया था कि प्रतिबंधविहीन उद्यम आर्थिक विकास में ज्यादा बड़ा योगदान करेंगे और गरीबी, बेरोजगारी जैसी बीमारियों के उन्मूलन में भी पर्याप्त मददगार साबित होंगे.

शायद एक मान्यता यह भी रही थी कि इससे काले धन और भ्रष्टाचार पर भी लगाम लगेगी. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. आजादी से पहले भारत का जो धन शासकों और प्रशासकों की सांठगांठ से यूरोप की ओर प्रवाहित होता था, वह आजादी के बाद नेहरू युग में भी वैसे ही प्रवाहित होता रहा, इंदिरा युग में भी प्रवाहित हुआ और आंकड़े बताते हैं कि यह प्रवाह 2013 तक बदस्तूर जारी था, यानी उस दौर में भी जब देश के नागरिक आंदोलन विदेशों से काले धन की वापसी की मांग कर रहे थे और भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने को देश की राजनीति के केंद्र में स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे. विदेशों में जो काला धन जमा हुआ था, पूंजीपतियों, नेताओं और अधिकारियों ने जिस पैसे की लूट की थी, वह दरअसल देश के गरीबों के हिस्से का पैसा था जो उन तक पहुंचने से पहले बीच में ही गायब कर दिया गया था. मोदी जी ने अपनी चुनावी सभाओं में न केवल बाहर गए पैसे को वापस लाने का वादा किया था, बल्कि यह वादा भी किया था कि देश का धन काला होकर आगे से विदेश नहीं पहुंच पाएगा.

यह समूची पृष्ठभूमि मैंने इसलिए प्रस्तुत की है ताकि इस सवाल पर ध्यान दिया जा सके कि क्या ऐसा होना सचमुच संभव है; जबकि राजनेताओं, उद्यमियों और नियामक अधिकारियों के बीच के रिश्ते में कोई तब्दीली नहीं आई है और वह वैसे ही चल रहा है जैसा समाजवादी सोच वाले नेहरू युग में था और अब उदारवादी अर्थतंत्र के युग में भी है. इस रिश्ते को समझने के लिए जनमानस में गहराई तक पैठे हुए इन प्रचलित मुहावरों पर गौर कर लीजिए- हर नेता चोर होता है, हर अफसर भ्रष्ट होता है, हर व्यापारी बेईमान होता है. इन मुहावरों के आंशिक अपवाद हो सकते हैं लेकिन अगर ये कथन सूक्तियों की तरह स्थापित हैं तो जाहिर है कि ये सच्चाई के बेहद निकट हैं, यानी देश की अर्थव्यवस्था चोर नेताओं, भ्रष्ट नियामक अधिकारियों और बेईमान व्यापारियों के हाथ में है. इनके गठजोड़ से अरबों-खरबों का धन जो निचले तबकों तक पहुंचना चाहिए वह इन सबकी जेब के हवाले हो जाता है.

इस गठजोड़ में सबसे मजेदार स्थिति यह है कि अगर आप किसी नेता से बात करिए तो वह अधिकारियों और व्यापारियों को दोषी ठराएगा, अधिकारी से बात करिए तो वह नेताओं और व्यापारियों को दोषी ठहराएगा, और अगर किसी व्यापारी से बात करिए तो वह नेताओं और अधिकारियों को दोषी ठहराएगा. जबकि वास्तविकता यह है कि न हर नेता चोर है, न हर अधिकारी भ्रष्ट, न हर व्यापारी बेईमान. लेकिन इनके बीच सही तालमेल न होने, परस्पर विश्वास न होने और आपस में सहकार न होने की वजह से वह स्थिति पैदा होती है जिसका दोहन चोर नेता, भ्रष्ट अधिकारी और बेईमान व्यापारी आसानी से कर लेते हैं.

पिछले कुछ वर्षो के उदाहरण लें तो देश का कोई भी छोटा-बड़ा उद्योगपति या व्यापारी ऐसा नहीं होगा जिस पर नियामक तंत्र की ओर से कोई न कोई आरोप न लगा हो, फिर वह चाहे अंबानी समूह हो, टाटा समूह या कोई ओर. इन्हें देखते हुए अगर मान लिया जाए कि हर कॉरपोरेट घराना, हर व्यापारी बेईमान है तो फिर हम देश के आर्थिक विकास की नींव किस आधार पर रखना चाहते हैं, और कैसे और क्या सोचकर हम गरीबी और बेरोजगारी के उन्मूलन की बात करते हैं? वस्तुस्थिति यह है कि देश की नियामक संस्थाएं मानकर चलती हैं कि उद्योगपति या व्यवसायी बेईमानी करेगा ही, इसलिए उस पर तमाम तरह के नियंत्रण लगाना जरूरी है और उन्हें कानून के दायरे में लाकर उनके विरुद्ध कार्रवाई करना भी जरूरी है. देखा गया है कि ऐसी कार्रवाई से विभिन्न उद्यमों में कार्यरत लाखों कर्मचारियों और करोड़ों निवेशकों को उनकी कोई गलती न होने पर भी भारी खमियाजा उठाना पड़ा है, और रही गरीबों की बात तो उन तक तो कुछ पहुंच ही नहीं पाता.

आज स्थिति यह है कि कोई भी छोटा या बड़ा उद्यम नीति-निर्माता नेताओं और नियामक अधिकारियों को भेंट चढ़ाए बिना न तो शुरू किया जा सकता है, न चलाए रखा जा सकता है. यह सूरत तभी बदल सकती है जब अर्थतंत्र के सभी हिस्सों में मूलभूत चारित्रिक बदलाव किया जाए. प्रारंभिक तौर पर यह किया जा सकता है कि नीतियों, नियमनों और क्रियान्वयनों में सही तालमेल स्थापित हो और नियामक अधिकारियों तथा उद्यमियों के बीच पंचायत स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक समन्वय की ऐसी पारदर्शी व्यवस्था कायम हो जिसमें व्यापारी के लिए बेईमान होने की, अधिकारी के लिए भ्रष्ट होने की और नेता के लिए चोर होने की कोई गुंजाइश ही न रहे. क्या मोदी सरकार ऐसा कोई कदम उठा पाएगी?

विभांशु दिव्याल
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