जनता को चाहिए शुभस्य शीघ्रम

Last Updated 26 Oct 2014 05:33:19 AM IST

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि धीरे-धीरे फीकी पड़ती जा रही है. यह उनकी विफलता है या भारत की जनता की आशाओं की अधिकता?


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (फाइल फोटो)

मुझे लगता है, अगले महीनों में यह सवाल बार-बार उठने वाला है. हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा की बढ़त पर निश्चय ही मोदी की छाया है. लोकसभा चुनावों में भाजपा की अप्रत्याशित सफलता का श्रेय मोदी को है, लेकिन सिर्फ  मोदी को नहीं है. अगर वे कोई नई पार्टी बना कर चुनाव मैदान में उतरते, तब भी उन्हें क्या ऐसी ही सफलता मिलती? आश्चर्य है कि लोग भाजपा की सफलता में मोदी का हाथ देखते हैं, पर मोदी की सफलता में भाजपा का हाथ किसी को नहीं दिखाई पड़ता. इस जीत की पृष्ठभूमि बनाने में मनमोहन सिंह का भी महत्वपूर्ण हाथ था, जिन्होंने कभी यह साबित करने की कोशिश नहीं की कि वे राष्ट्रीय नेता हैं. हरियाणा और महाराष्ट्र तो सत्ता परिवर्तन की मांग कर रहे थे, भाजपा ने बस इसका अवसर प्रदान किया है. मोदी की छवि इतनी मलिन नहीं हुई कि जनता भाजपा को वोट देने से हिचकती. कोई भी प्रभामंडल न जल्दी से बनता है, न जल्दी से क्षीण होता है.

नरेंद्र मोदी का प्रभामंडल उन्होंने खुद बनाया है. उनके विकास पुरुष होने या गुजरात मॉडल की बातों को मैं मिथक की तरह मानता हूं. अगर गुजरात मॉडल नाम की कोई चीज होती, तो वह स्वयं बोलती- उसे कंधे पर रख कर देश के एक-एक शहर में घूमने की जरूरत नहीं पड़ती. मेरी समझ यह है कि मोदी की सफलता में उनके भाषणों का सबसे ज्यादा हाथ था. ऐसे भाषण इसके पहले कभी नहीं दिए गए थे. सुनते हैं, जवाहरलाल नेहरू के भाषण बहुत अच्छे होते थे, पर मुझे शक है कि वे जनता के हृदय को स्पर्श करते थे. पर जो जीवन संघर्ष में लगा हुआ है, उसे बड़ी-बड़ी बातें अच्छी नहीं लगतीं- वह तो रोजमर्रा की समस्याओं और उनके हल के बारे में सुनना चाहता है. नरेंद्र मोदी को इसमें महारत हासिल है. वे बहुत ही जल्द जन-मन की भावनाओं के प्रतीक बन गए. उनके मुंह से भारत बोल रहा था.

हमारे देश में तो क्या, सभी संसदीय गणतंत्रों में अब प्रधानमंत्री ही सरकार का प्रतीक हो गया है. शासन की कैबिनेट प्रणाली खत्म हो गई है. इसलिए प्रधानमंत्रियों और अमेरिका के राष्ट्रपति में कोई फर्क नहीं रह गया. सच तो यह है कि मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति की शैली में ही चुनाव प्रचार कर रहे थे. एक जमाने में भारत के लोग नेहरू को अपने अभिभावक की तरह देखते थे. इंदिरा गांधी के नेतृत्व में भी यह तत्व मौजूद था. चाहे जिस कारण से भी हो, आम जनता उन्हें राष्ट्रीय अभिभावक की भूमिका निभाते हुए देखना चाहती थी और देखती भी थी. उस पाए का कोई और प्रधानमंत्री भारत की राजनीति में नहीं आया. नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व में लोगों को अपने अभिभावक की छवि नजर आई.

यह एक ऐसा व्यक्ति था जो मंच पर खड़ा हो कर जैसे अपना हृदय उड़ेलते हुए जन-मन के साथ सीधे संवाद कर रहा था. उसके संवाद से लगता था कि वह देश की नस को पहचानता है, देश की समस्याओं को जानता है और उनका हल निकालना उसका काम है, यह मानता है. बहुत-से मुद्दों को वह छोड़ देता था जो उसे असुविधापूर्ण लगते थे. पर वह जिन समस्याओं को उठाता था, उन्हें अपने पक्ष में मोड़ देता था. यही सब देख कर जनता उस पर निछावर हो गई थी.

यह कहना अनुचित होगा कि जनता अपने इस निर्णय पर पछताने लगी है. भारतीय मन इतना चंचल नहीं होता. इसलिए नरेंद्र मोदी की राष्ट्रीय अभिभावकता में उसका विास डिगा नहीं है. लेकिन भीतर ही भीतर अपने मन में वह कुछ बुदबुदाने जरूर लग गई है. क्योंकि वह देख पा रही है कि मोदी सरकार की काम करने की रफ्तार बहुत धीमी है. उसने नीति या कार्यक्रम के क्षेत्र में कोई ऐसा धमाका नहीं किया है जिससे लगे कि आगे ऐसा और होने वाला है. दरअसल, भारत की समस्याओं का समाधान धीरे-धीरे की प्रक्रिया हो भी नहीं सकता. वह एक के बाद एक होने वाले नीतिगत धमाकों से ही हो सकता है. जैसे, जमींदारी का उन्मूलन, चकबंदी, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, सूचना का अधिकार अधिनियम, मनरेगा इत्यादि. ये वे कार्यक्रम हैं जिन्होंने भारत की तस्वीर बदलने में निर्णायक भूमिका निभाई है.

नरेंद्र मोदी को सत्ता में आए ज्यादा दिन तो नहीं हुए, इसलिए उनका पूरा मूल्यांकन तो साल-दो साल बाद ही करना उचित होगा. लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि उन्होंने अपने भाषणों से जो असर पैदा किया था, वह सत्ता में आने के बाद नहीं पैदा कर पा रहे हैं.  न उन्होंने किसी मौलिक कार्यक्रम की शुरु आत की है, न अपना कोई एजेंडा पेश किया है. लोकसभा के चुनाव भाषणों में भी उन्होंने सिर्फ समस्याओं का चित्र खींचा था, पर उनमें से किसी का हल न बताया था और न उसकी ओर संकेत ही किया था. कह सकते हैं कि भाजपा का अगर कोई राष्ट्रीय एजेंडा है, तो वह मोदी का एजेंडा नहीं बन सकता. चूंकि मोदी एक नए ढंग का नेतृत्व करना चाहते हैं जो पारंपरिक राजनीति से बिलकुल भिन्न है, इसलिए लोकप्रियता को बनाए रखने के लिए उन्हें कुछ ऐसे काम करने ही चाहिए जो न केवल मौलिक हों, बल्कि भारतीय जीवन के यथार्थ पर उसका व्यापक असर दिखाई पड़े. जनता उन्हें समय देने के लिए तैयार दिखाई देती है, परंतु मोदी अगर समय लेने के पल्रोभन में पड़ेगे तो वे अपने ही साथ अन्याय करेंगे. मोदी जनता से कुछ ठोस अपेक्षाएं रखते हैं, पर लगता है कि वे यह भूल रहे हैं कि जनता उनसे और ज्यादा ठोस अपेक्षाएं रखती है. मोदी को जल्दी न हो, पर जनता को तो ‘शुभस्य शीघ्रम’ चाहिए.

राजकिशोर
लेखक


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