समाज की प्रगति में समान भागीदारी जरूरी

Last Updated 25 Oct 2014 12:32:58 AM IST

इस बार अन्तरराष्ट्रीय बालिका दिवस- जो 11 अक्टूबर को मनाया जाता है के मौके पर यूनिसेफ, भारत की तरफ से बेटी के नाम पिता की ओर से एक गीत जारी किया गया.


समाज की प्रगति में समान भागीदारी जरूरी

पिताओं की मानसिकता पर केन्द्रित इस गीत में एक सकारात्मक दृश्य प्रस्तुत किया गया है ताकि लड़कियां अपना भविष्य संवार सकें और अपनी पूरी क्षमता विकसित कर सकें. गीत में लड़कियों की अहमियत समझने, उन्हें शिक्षा के जरिए सशक्तिकृत करने, सुरक्षा प्रदान करने और एक मनुष्य होने के नाते उनकी भूमिका उभारने पर जोर दिया गया है. कहा गया कि यह पहल यूनिसेफ की ‘एंड वायलेंस कैम्पेन’ यानी ‘हिंसा समाप्ति मुहिम’ का हिस्सा है जो अलग-अलग उम्र समूहों के पुरुषों से संवाद कायम करती है और उन्हें बेटियों के विकास में मदद के लिए प्रेरित करती है.

इसे संयोग ही कहा जाएगा कि यूनिसेफ की तरफ से बेटियों के विकास में पिताओं की भूमिका पर किए गए फोकस के दिनों में ही एक सर्वेक्षण रिपोर्ट साइकोलॉजिकल साइंस जर्नल के अगस्त अंक में प्रकाशित हुई है जो बेटियों की कामयाबी में पिता की भूमिका की बात करती है. इसमें बताया गया है कि जो पुरुष घरेलू कामकाज में हाथ बंटाते हैं, उनकी बेटियां अपने करियर में ज्यादा कामयाब होती हैं. यह शोध कनाडा स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रिटिश कोलम्बिया के शोधकर्ताओं ने किया है. शोध में माता पिता के घरेलू कामकाज के तरीके तथा बच्चों के करियर के चयन का आकलन किया गया है. बताया गया है कि पिता को घर में साफ-सफाई बर्तन, कपड़ा धोते तथा खाना बनाते आदि देख कर बेटियों के मन से लिंगभेद का भय समाप्त होता है और वे अधिक महत्वाकांक्षी बनती हैं. उन्हें लगता है कि महिलाओं का काम पुरुष कर सकते हैं तो पुरुषों का काम महिलायें भी कर सकती हैं यानी काम में कोई विभाजन नहीं.

यद्यपि ऐसे सभी शोध सैम्पल सव्रे होते हैं और उनकी सीमायें होती हैं, फिर भी हम सहज अन्दाजा लगा सकते हैं कि घर के वातावरण का गहरा प्रभाव बच्चों के मन-मस्तिष्क पर पड़ता है. घरेलू कामकाज में पुरुषों की भागीदारी का मसला न सिर्फ उस काम में हाथ बंटा कर बोझ हल्का करने का मसला है बल्कि घरेलू काम के प्रति उनका दृष्टिकोण और मानसिकता भी बताता है. इससे बच्चों के मन में स्त्रियोचित व पुरुषोचित कामों के बीच भेद खत्म होता है तथा समानताबोध विकसित होने की गुंजाइश बनती है.

सामान्यत: समाज में स्त्री और पुरुष की भूमिकाओं को इतना अलग-अलग देखा और माना गया है कि उनमें क्या प्राकृतिक है और क्या सामाजिक, इसका घालमेल हो जाता है. उदाहरण के लिए कई सामाजिक भूमिकाएं जिनके बारे में माना जाता था कि उन्हें महिलाएं नहीं कर पायेंगी, उसे कालान्तर में करके उन्होंने साबित किया कि यह समाज प्रदत्त हुनर है- चाहे वह दफ्तर के बड़े से बड़े अधिकारी का पद हो या हवाई जहाज उड़ाना हो या खेल का मैदान. उनमें सामाजिक प्रतिबंधों के कारण पर्याप्त अवसरों का न मिलना अलग मसला है. इसी प्रकार मदरें के लिए समझा जाता था कि वे घर-गृहस्थी, रसोई नहीं संभाल सकते. समाज और परिवार द्वारा उन्हें यह भूमिकाएं भले नहीं दी गयी या वे करना नहीं चाहें तो अलग बात है किन्तु वे भी सक्षम हो सकते हैं गृहकायरें में. अगर अपने आसपास नजर दौड़ायें तो ऐसे हाऊस-हसबैंड दिख सकते हैं जिनकी पत्नी नौकरी के लिए बाहर जाती है और वे घर से ही अथरेपार्जन करते हुए परिवार की अच्छी देखभाल कर लेते हैं.

एक मौके पर जब ब्रिटेन में प्रधानमंत्री पद का चुनाव हो रहा था तो प्रचार के दौरान तथा मीडिया में प्रधानमंत्री की जो छवि बनायी जा रही थी, उसमें सबसे अहम था कि वह कैसे घर में अपनी पत्नी की मदद करते हैं, बच्चे के स्कूल का नाश्ता पैक करते है. इस माध्यम से यह सम्प्रेषित करने का प्रयास किया जा रहा था कि वे कितने संवेदनशील एवं जिम्मेदार व्यक्तित्व हैं. अपने यहां तो अधिकतर बच्चे स्कूल में टिफिन बॉक्स में मां द्वारा पैक किया खाना खाने को अभ्यस्त होते हैं. जो महिलाएं बाहर नौकरी करने नहीं जाती हैं उनके लिए तो यह स्वाभाविक होता है परन्तु जो बाहर काम पर जाती हैं वहां भी लंच बाक्स तैयार करने की जिम्मेदारी स्वाभाविक तौर पर मां की ही समझी जाती है.

यह बात सिर्फ घरेलू कामों के सन्दर्भ में ही नहीं बल्कि घर के भीतर के अन्य व्यवहारों पर भी लागू होती है. आजकल स्त्रीविरोधी विभिन्न हिंसाओं के सन्दर्भ में चर्चा होती है कि यह मसला महज सख्त कानून तथा पुलिसिया चुस्ती से नहीं, बल्कि हिंसा की, प्रभाव तथा सत्ता जमाने की, दूसरों  का सम्मान न करने की मानसिकता बदलने से हीैहल होगा. लड़के अपने घर-परिवार, नाते रिश्तेदारी में औरत के प्रति असम्मान एवं गैरबराबरीपूर्ण व्यवहार देखते हैं तो उन्हें भी ऐसा करना कहीं से गलत नहीं लगता.

दूसरी बात, औरत को उपभोग की वस्तु समझने की मानसिकता परिवार के अन्दर भी होती है और इस बाजारवादी व्यवस्था में उसे तरह-तरह से मजबूत बनाया जाता है. घर के बाहर की दुनिया भी बच्चों को यही सिखाती है कि स्त्री को इस्तेमाल के नजरिये से देखा जा सकता है. इस उपभोक्तावादी मानसिकता के शिकार महज बच्चे ही नहीं बल्कि पुरुष और स्त्री दोनों होते हैं. शरीर को केन्द्र में रख सोचने की मानसिकता इसी का नतीजा है और खास तौर पर महिलाएं उस पैमाने में फिट होने के लिए या तो तमाम तरह की जुगत करती हैं या हीन भावना की शिकार होती हैं.

दरअसल संकट कथित अच्छी संस्कृति बचाने का नहीं बल्कि उच्चस्तरीय संस्कृति गढ़ने का है. गढ़ने का काम हमेशा सृजनात्मकता के साथ ही सोच और विचारधारा पर निर्भर करता है कि हम क्या और कैसा गढ़ना चाहते हैं. यदि हम पुराने को बचाने की बात करते हुए उसे महिमामंडित भी करते रहे तो उससे भविष्य के समाज की जरूरतें पूरी नहीं होतीं. उच्चस्तरीय मूल्यमान्यता का पैमाना भी बदलता है. किसी जमाने में जाति की शुद्धता बनाये रखना इज्जत की बात हो सकती थी या महिलाओं का पर्दे में रहना कुलीन होने का परिचायक था परंतु आज यह श्रेष्ठता का पैमाना नहीं है.

अंजलि सिन्हा
लेखक


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