दिवाली का डबल धमाका

Last Updated 23 Oct 2014 03:54:30 AM IST

दिवाली अगर चुनाव के वक्त आ जाए तो फिर सीन डबल धमाकेवाला हो जाता है जी. पर इसे एक के साथ एक फ्री की तरह नहीं देखना चाहिए.


दिवाली का डबल धमाका (फाइल फोटो)

चाहे इस मौके पर एड कितने ही डबल धमाकेवाले दिखाई देते हों पर दिवाली जब अकेले आती है तो दिवाली ही होती है, डबल धमाका नहीं होता. अलबत्ता इस बार दिवाली के साथ चुनाव परिणाम ऐसे आए हैं जैसे एक के साथ एक फ्री हों. देखिए न, चुनाव परिणामों पर पटाखे तो फूटने ही हैं, चाहे जीतने वाला कितना ही शुद्ध आबो हवा का प्रेमी हो. यह कुछ-कुछ वैसा ही होता है जैसे दूल्हे का पिता कितना ही दहेज विरोधी हो, गिफ्ट ले ही लेता है बिना किसी नैतिक कष्ट के. लेकिन जैसे चुनाव के साथ दिवाली जुड़ी होती है, वैसे ही चुनाव के साथ होली भी जुड़ी होती है. पटाखों के साथ रंग-गुलाल की जुगलबंदी चुनावों के मौके पर ही देखने को मिलती है इसलिए चुनावों में कई सेलिब्रेशन एक साथ हो जाते हैं.

इधर इसे बिग डील टाइप कुछ कहा जा सकता है पर दिवाली के साथ ज्यादा से ज्यादा दीवाला ही जुड़ा होता है. पर वो तो चुनावों के साथ भी जुड़ा होता है. किसी की दिवाली होती है और किसी का दीवाला. जिसे आम शब्दावली में कोई जीता कोई हारा कहा जाता है. फिर इधर जो एक और सेलिब्रेशन चल रहा है- झाड़ूमार सेलिबेशन, वह भी चुनावों के साथ जुड़ जाता है. इस माने में चुनाव सेलिब्रेशन का एक कंप्लीट पैकेज है. चुनावों में पिछले कुछ दिनों से झाड़ूमार जीत होना बंद हो गयी थी. अब वह नए सिरे से होने लगी है.

भले महाराष्ट्र में न हुई हो और हरियाणा में भी चाहे एकदम चाहे किनारे का ही मामला हो पर यह तो तय है कि इस बार दीवाली धमाकेदार हो गयी. वैसे आमतौर पर पहले ही कहा जाने लगा था कि दीवाली इस बार कुछ पहले ही आ जाएगी. जी नहीं, यह पंडितों की घटत-बढ़तवाला मामला नहीं है कि त्योहार दो दिन पहले मना लो कि एक दिन बाद मनाना. हमारे वारों और त्योहारों में यह गजब की एडजस्टमेंट होती है. पर इधर कुछ ज्यादा एडजस्टमेंट के चक्कर में एक ही त्योहार दो अलग-अलग दिन भी मनाए जाने लगे हैं. आरएसएस वालों को इतिहास को दुरुस्त करने के साथ ही साथ पोथी-पत्रों को दुरुस्त करने का प्रोजेक्ट भी हाथ में लेना चाहिए.

झाड़ू अगर मोदीजी के हाथ में हो तो वह सफाई अभियान लगता है- जी स्वच्छता वाला. पर वही झाड़ू अमित शाह के हाथ में हो तो उससे सबसे पहले एनडीए के घटक दलों में खौफ फैलता है कि कहीं हमें साफ न करने आए हों. वैसे भी आजकल भाजपा का एजेंडा उस तरह से तो हिडन नहीं होता है, जैसे पहले होता रहा होगा. अब तो अमित शाह को सामने देखते ही एजेंडा फौरन समझ में आ जाता है कि बचना मुश्किल है. अब कहां तो कुलदीप बिश्नोई मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे और कहां ऐसे साफ हुए कि दो सीटों पर संतोष किए बैठे हैं कि चलो यह तो मिली. ये भी न मिलती तो क्या कर लेते! जैसे अरविंद शर्मा ने ही क्या कर लिया. वे भी बीएसपी की तरफ से मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे. वैसे हरियाणा में मतदाता को विधायक चुनने में उतना कन्फ्यूजन नहीं था, जितना भावी विधायकों को मुख्यमंत्री चुनने में कन्फ्यूजन का सामना करना पड़ सकता था. बहरहाल, कुलदीप बिश्नोई तो कुछ इस तरह भी संतोष कर सकते हैं कि कभी पार्लियामेंट में भाजपा के पास भी दो ही सीटें हुआ करती थीं.

खैर, जीत धमाकेदार हो तो होली-दीवाली सब धमाकेदार हो जाती हैं. फिर प्रदूषण का ख्याल कोई नहीं करता. फिर तो रंग-गुलाल भी उड़ता है, ढोल-नगाड़ों का धमाल भी खूब होता है. पटाखे भी खूब चलते हैं. बल्कि बमनुमा पटाखे फूटते हैं. बमों के चाहे हम वैसे कितने ही विरोधी हों, पर चुनावी जीत पर बमनुमा पटाखे फोड़ना चलता है. स्वच्छता अभियान तो बाद में आराम से चला लेंगे. झाड़ू लेकर फोटो भी खिंचवा लेंगे, पर पहले जीत की खुशी मना लें.

पर्यावरण की चिंता बाद में भी कर लेंगे, बल्कि ज्यादा बेहतर ढंग से करेंगे, पर अभी जीत की खुशी मना लें. असल बात यही है कि खुशी बाधित नहीं होनी चाहिए. यह कुछ-कुछ वैसा ही मामला है कि जुआ खेलना बुरी बात है, यह हम भी जानते हैं पर आज दिवाली पर तीन पत्ती खेल लेते हैं, दीवाली सेलिब्रेट कर लेते हैं. इसके बाद कान पकड़ लेंगे. तो साहबों, दीवाली का यह डबल धमाका मुबारक.

सहीराम
व्यंगकार


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