डायन के नाम पर कब तक मरेगी औरत

Last Updated 22 Oct 2014 04:07:04 AM IST

असम के कार्बी आंगलांग जिले की देबजानी बोरा के राष्ट्रीय स्तर की खेल प्रतियोगिताओं में मेडल जीतने के कारण उसका गांव चर्चा में आ गया.


डायन के नाम पर कब तक मरेगी औरत

इस उपलब्धि पर गर्व करने के बजाए गांव के अंधविश्वासी लोगों ने जब देबजानी के पास आधुनिक लोगों को गांव आते-जाते देखा तो उन्हें संदेह हुआ कि कहीं ये उनका गांव उजाड़ने तो नहीं आ रहे! राष्ट्रीय एथलीट देबजानी को इस समस्या की जड़ मानते हुए धार्मिंक सभागार में जमा भीड़ ने हाल में उसे डायन बता जमकर पिटाई कर दी. देश-दुनिया की जानकारी रखने वाली एथलीट को डायन कह प्रताड़ित करने का यह अपने में पहला मामला है. इससे पहले ज्यादातर मामलों में अनपढ़ और बेसहारा महिलाओं को ही इस कलंक से जोड़कर अत्याचार ढाए जाते रहे हैं.

इस घटना ने साबित कर दिया है कि जागरूकता और कानूनों की कड़ाई के बावजूद जादू-टोने और अंधविश्वास की रूढ़ियों के बीच डायन प्रथा जीवित है. हर साल सैकड़ों महिलाएं इसकी शिकार बन रही हैं. इस साल अगस्त में संसद में राष्ट्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने जो आंकड़े पेश किए थे, उनके मुताबिक पिछले साल देश के दूरदराज के इलाकों में जादू-टोने और अंध धार्मिंक विश्वासों से जकड़े समाज ने 160 महिलाओं को डायन कहकर मार डाला था. पिछले तीन सालों में डायन के नाम पर 519 महिलाओं की हत्या की गई है. वर्ष 2011 में 240, 2012 में 119 व 2013 में 160 महिलाओं की हत्या की गई. विडंबना यह है कि ऐसे मामलों की जानकारी सरकार को होती है, फिर भी इनकी रोकथाम नहीं हो पाती है. ऐसी कुप्रथाओं के खिलाफ आवाज उठाने वालों को सरकार की तरफ से कोई संरक्षण नहीं मिलता है, इसलिए अंधश्रद्धा के हिमायतियों के हौसले बुलंद रहते हैं. ठीक उसी तरह, जैसे अंधश्रद्धा के खिलाफ मुहिम चलाने वाले समाजसेवी और वैज्ञानिक डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की पिछले साल अगस्त में हत्या कर दी गई थी. डॉ. दाभोलकर उन ओझाओं, बाबाओं और तांत्रिकों के निशाने पर थे, जिनकी दुकानदारी अंधविश्वासों पर चलती आई है.

जहां तक डायन कहकर मार दी जाने वाली महिलाओं का प्रश्न है, उनकी सुरक्षा के संबंध में महिला-बाल विकास मंत्रालय की दलील है कि डायन के नाम पर प्रताड़ना और हत्या की घटनाएं भारतीय दंड संहिता के तहत दंडनीय अपराध हैं. यानी भले ही इस बारे में मंत्रालय के पास अपनी कोई योजना न हो, लेकिन मौजूद कानून कड़ाई से लागू किया जाए तो समस्या का समाधान हो सकता है. देश में 50-60 जिले ऐसे हैं, जहां इस कुप्रथा का ज्यादा जोर है. इन जिलों में कहीं महिला को डायन, कहीं डाकन, तेनी या टोनी, पनव्ती, मनहूस जैसे नामों से लांछित कर बहिष्कृत किया जाता है. गांव-देहात और छोटे कस्बों में अब भी ओझा, भोपा या तांत्रिक किसी सामान्य औरत को आसानी से डायन घोषित कर देता है और पूरा समाज उसकी जान लेने पर उतर आता है. विचित्र बात यह है कि कई बार ऐसे मामलों में उनके अपने परिवार वाले और रिश्तेदार भी शामिल हो जाते हैं.

इसलिए यहां अहम सवाल यह है कि समाज में कायम कुरीतियों और अंधविश्वासों के खिलाफ आखिर कोई जंग कैसे छेड़ी जाए. इसका एक उपाय कानून बनाना हो सकता है जिसमें अंध श्रद्धा फैलाने वालों को दंडित करने का प्रावधान हो. ब्रिटिश राज में 1829 में लॉर्ड विलियम बेंटिक ने जब तक सती प्रथा के विरोध में कानून नहीं बनाया, तब तक कोई मानने को तैयार नहीं था कि पति के साथ चिता में उसकी विधवा को जला डालना अंधविश्वास या धार्मिक रूढ़ि है और कायदे से महिला को सती होने के लिए मजबूर करने वाले लोगों और समाज को दंडित किया जाना चाहिए. सती प्रथा का विरोध करने वालों को फटकारते हुए विलियम बेंटिक ने कहा था कि यदि शासक अपनी आंखों के सामने एक स्त्री को जिंदा जलते हुए देखने के बाद भी हस्तक्षेप न करे, तो वह शासन करने के लायक नहीं हैं. इसी तरह डॉ. दाभोलकर भी सवाल उठाते थे कि यदि हमारी सरकार किसी इंसान को बलि चढ़ते देख या उसे अघोरी प्रथा का शिकार होते देख चुप है, तो ऐसे शासक निकम्मे कहलाने चाहिए.

अफसोस कि देश में कानून और सामाजिक चेतना के बावजूद अंधविश्वास प्रेरित कुप्रथाओं का चलन कम होने के बजाय बढ़ रहा है. बाबाओं-तांत्रिकों की जहालत भरी सोच इन बुरे रिवाजों से जुड़ी है, लिहाजा उनके पीछे हटने का सवाल ही पैदा नहीं होता, पर सबसे ज्यादा हैरानी तब होती है, जब पढ़े-लिखे लोग भी ऐसे बाबाओं के झांसे में आ जाते हैं.  कुछ बुरी प्रथाएं सामाजिक जागरूकता पैदा कर रोकी जा सकती हैं लेकिन कुछ कड़े कानून से ही खत्म हो सकती हैं. आम तौर पर केंद्र सरकार इसे कानून व्यवस्था का मामला बता पल्ला झाड़ लेती है.  डायन के नाम पर वाली अमानवीय क्रूरता के ज्यादातर मामले पिछड़े राज्यों में होते हैं. पिछले साल इस नाम पर सबसे ज्यादा 54 हत्याएं झारखंड में और 24 ओडिशा में हुई. इस संदर्भ में हालांकि किसी केंद्रीय कानून का अभाव है, लेकिन भारतीय दंड संहिता में ऐसे पर्याप्त कानून हैं जो इस अपराध के दोषियों को सजा दे सकें. फिर भी असली मुजरिम बच जाते हैं. कई बार तो पंचायतें फैसला सुनाती हैं कि फलां औरत डायन है.

देखा गया है कि ऐसे मामलों में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी कड़े कानूनों के रास्ते में बाधा बन जाती है. ग्रामीण मतदाताओं, कुछ समुदायों, वर्ग विशेष और कबीलों की राजनीति करने वाले नेता अक्सर कुप्रथाएं रोकने वाले कानूनों को लेकर चिंता जताते दिखते हैं कि कहीं ऐसे कानूनों से देवी-देवता, धर्म, श्रद्धा, पुरातन परंपराओं पर तो कोई आंच नहीं आएगी. हमारे समाज के लिए यह वाकई शर्मनाक है कि डायन के नाम पर महिला को सार्वजनिक रूप से अपमानित किया जाए. कहीं उनके बाल काट दिए जाएं तो कहीं निर्वस्त्र किया जाए. यही नहीं, उनके बचाव में आने वाले परिजनों को भी तमाम तरह की यंत्रणाओं से गुजरना पड़ता है.

अक्सर समाज में विधवाओं को इसका शिकार बनाया जाता है. कई बार तो संपत्ति कब्जाने के षड्यंत्र में किसी बेसहारा विधवा को डायन घोषित करके मार डाला जाता है. किसी गांव में किसी बच्चे की बीमारी से मौत हो जाए, गाय दूध देना बंद कर दे, कुएं का पानी सूख जाए तो दोष डायन को दिया जाता है. ओझा बता देता है कि फलां दिशा में रहने वाली डायन के प्रकोप से ऐसा हुआ है. फिर किसी बलि के बकरे की तलाश शुरू हो जाती है. वास्तव में इस अज्ञानता के खिलाफ जागरूकता अभियान चलाने और सख्त कानून की दरकार है.

मनीषा सिंह
लेखिका


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