धनबल और बाहुबल की राजनीति
भ्रष्टाचार के मामले में जेल में बंद जे जयललिता आखिर सुप्रीम कोर्ट से जमानत पाने में कामयाब हो गईं.
धनबल और बाहुबल की राजनीति |
अदालत ने सजा पर स्थगनादेश तो दे दिया लेकिन दो शर्त भी लगा दी. पहली यह कि उनकी पार्टी एआईडीएमके के समर्थक किसी भी तरह की हिंसा नहीं करेंगे और दूसरी सुनवाई लंबा खींचने के लिए कानूनी हथकंडों का सहारा नहीं लिया जायेगा. अदालत में इस मामले पर अगली सुनवाई 18 दिसम्बर को होगी और तब तक जयललिता के वकीलों को सारे कागजात जमा कराने होंगें. सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक उच्च न्यायालय को जयललिता की जमानत अपील पर तीन माह के भीतर फैसला सुनाने का निर्देश भी दिया है.
गौरतलब है कि कर्नाटक की अदालत ने जयललिता को जब सजा सुनाई तो पूरे तमिलनाडु में एआईडीएमके कार्यकर्ता अदालत के फैसले के खिलाफ हिंसक प्रदर्शन करते हुए सड़कों पर उतर आये. कर्नाटक उच्च न्यायालय में जयललिता की जमानत अर्जी खारिज होने पर भी पूरे तमिलनाडु में व्यापक हिंसा हुई. यह प्रवृत्ति खतरनाक है. तमिलनाडु पुलिस और प्रशासन ने प्रदर्शनकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने की बजाए उदासीन रवैया अपनाया. राज्य में एआईडीएमके की सरकार है और कानून-व्यवस्था बनाये रखना तथा अदालती आदेश पर अमल करना उसका दायित्व है. यदि राज्य सरकार इस जिम्मेवारी को निभाने में नाकाम रहती है तो उसे सत्ता में बने रहने का कोई अधिकार नहीं है.
सत्ता के शिखर पर बैठे लोग कितनी बेईमानी करते हैं इसका अन्दाजा जयललिता के मामले से लगाया जा सकता है. सन् 1991 में जब पहली बार वह तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनीं तो शपथ पत्र में उन्होंने अपनी सम्पति दो करोड़ रुपए दिखाई. मुख्यमंत्री रहते उन्होंने प्रतिमाह केवल एक रुपया वेतन लिया. इस हिसाब से पांच साल में उन्हें महज साठ रुपए वेतन मिला. लेकिन अगले चुनाव में जब जयललिता ने शपथ पत्र दाखिल किया तो अपनी सम्पति 66 करोड़ रुपए से अधिक दिखाई.
केवल पांच साल में 64 करोड़ से ज्यादा रुपए कहां से कमाए, इसका सन्तोषजनक उत्तर उनके पास नहीं था. 1996 में जब उनके घर पर छापा पड़ा तो वहां से 28 किलो सोना, 832 किलो चांदी, दस हजार से ज्यादा साड़ियां, लगभग एक हजार उम्दा सैंडिल, करीब सौ शानदार घड़ियां, 41 एयरकंडीशनर, हजार-हजार एकड़ के दो फार्म हाउस व जमीनों के दर्जनों कागजात और सौ से ज्यादा बैंक खाते मिले.
यह विडम्बना ही है कि हमारे यहां सामान्य आदमी मामूली अपराध में वर्षो जेल में सड़ता रहता है. हिन्दुस्तान के कारागारों में हजारों कैदी जिस आरोप में बंद है, उसमें मिलने वाली सजा से ज्यादा समय जेल में काट चुके हैं फिर भी उन्हें रिहा नही किया जाता. दूसरी तरफ रसूखदार नेता और प्रभावशाली लोग गंभीर से गंभीर आरोप में सजा मिलने के बाद भी जेल से बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ लेते हैं. जयललिता का केस ही लें. नामी वकीलों की फौज के बूते उन्होंने मुकदमे को लगभग दो दशक तक खींच दिया. सजा के बाद अब जयललिता ने जमानत के लिए जोर लगा दिया. उन्हें जमानत भी मिल गई है. छूटने के बाद वह भले ही वह दोबारा मुख्यमंत्री न बन पायें लेकिन तय है कि सत्ता और पार्टी की बागडोर उनके पास ही रहेगी.
पिछले कुछ सालों में भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरुपयोग के आरोप में देश के कई बड़े नेताओं को जेल की हवा खानी पड़ी है.
यदि कानून का डर होता और भ्रष्ट नेताओं को शीघ्र सजा मिल जाती तो आज हमारी संसद और विधानसभाओं में दागी नेताओं की संख्या बढ़ने के बजाए घटती और देश से भ्रष्टाचार कम होता. 16वीं लोकसभा में दागी और करोड़पति सांसदों की संख्या में खासी वृद्धि हुई है. देश की सबसे बड़ी पंचायत में स्थान पाने वाले जन प्रतिनिधियों में 82 प्रतिशत करोड़पति और 34 फीसद दागी हैं. इसकी तुलना में 2004 की लोकसभा में महज 30 फीसद सांसद करोड़पति और 24 प्रतिशत आपराधिक मामलों के आरोपी थे.
मतलब दस सालों में करोड़पति सांसदों की संख्या में 52 प्रतिशत तथा दागियों की जमात में 10 फीसद का इजाफा हो गया है. आम चुनाव में धनबल और बाहुबल के बढ़ते प्रभाव को मापने के लिए कुछ और बातें बतानी जरूरी हैं. इस बार चुनाव में प्रत्याशियों की संख्या में अप्रत्याशित 50 फीसद की वृद्धि हुई. 2009 में जहां 5435 उम्मीदवार खड़े हुए, 2014 में उनकी संख्या बढ़कर 8163 हो गई. 8163 में से 2208 (27 फीसद) करोड़पति थे जबकि जीतने वाले करोड़पतियों की संख्या 82 प्रतिशत है. इसी प्रकार कुल 1398 (17 प्रतिशत) दागियों ने चुनावी दंगल में भाग्य आजमाया किन्तु विजयी दागियों का आंकड़ा 34 फीसद रहा.
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म (एडीआर) के अनुसार चुनाव में साफ-सुथरी छवि के प्रत्याशियों के मुकाबले दागियों की विजय की संभावना दुगुनी होती है. इसी प्रकार धनपतियों की अपेक्षा मामूली हैसियत वाले उम्मीदवार के हारने का आंकड़ा काफी ऊंचा है. टिकट बांटते समय अब जीत के लिए जाति और धर्म के साथ-साथ धनबल और बाहुबल भी तोला जाता है इसलिए ईमानदार और कर्मठ कार्यकर्ता अक्सर टिकट पाने की दौड़ में पिछड़ जाते हैं.
साफ-सुथरी राजनीति का दावा करने वाली देश की दोनों बड़ी पार्टियां भी दागियों और धनपतियों के मोह में बुरी तरह जकड़ी हैं. हालिया आम चुनाव जीतने वाले भाजपा के एक तिहाई से ज्यादा सांसद दागी हैं और उनमें से 20 फीसद के खिलाफ गंभीर आरोप हैं. कांग्रेस के 18 प्रतिशत विजयी प्रत्याशी दागी हैं और उनमें से सात फीसद के खिलाफ थानों में गंभीर अपराध से जुड़े मामले दर्ज हैं. क्षेत्रीय दलों की स्थिति तो और भी बुरी है. आरजेडी के सभी सांसद दागी हैं जबकि शिवसेना के 18 में से 15 तथा एनसीपी के पांच में से चार सांसद दागी हैं. आपराधिक पृष्ठभूमि के सांसद चुनने में उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र अव्वल हैं.
सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि जिन नेताओं पर अदालत में चार्जशीट फेम हो गई है, उनका मुकदमा एक साल में निबट जाना चाहिए. समस्या यह भी है कि नेताओं से जुड़ी जांच को दबाव में आकर पुलिस अक्सर लंबा खींचती है. ऐसे में निर्णय आने में वर्षो लग जाते हैं. देश में भ्रष्टाचार की जड़ मौजूदा चुनाव प्रणाली है जिसे पैसे, जाति, धर्म और बाहुबल की घुन लग गई है. जब तक चुनाव व्यवस्था में सुधार नहीं होगा, तब तक जयललिता जैसे नेताओं का सफाया असंभव है.
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)
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