बरकरार है मोदी का करिश्मा

Last Updated 20 Oct 2014 04:26:08 AM IST

विधानसभा चुनाव के नतीजों का असर देश की राजनीति पर हो, ऐसे अवसर कम ही आते हैं. महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा के चुनाव के नतीजे के कई निहितार्थ हैं.


मोदी का करिश्मा बरकरार.

इन नतीजों से एक बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि देश में एक दल के प्रभुत्व का दौर लौट रहा है. भाजपा अब कांग्रेस की जगह देश की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में राज्यों में भी स्थापित होने की राह पर है. इन चुनावों ने एक बात और स्थापित की है कि इंदिरा गांधी के बाद नरेंद्र मोदी वोट दिलाने वाले देश के सबसे बड़े नेता हैं. लेकिन चिंता की बात यह है कि विपक्ष का दायरा घटता जा रहा है. भाजपा जिस अनुपात में बढ़ रही है, उसी अनुपात में कांग्रेस घट रही है.

नरेंद्र मोदी और भाजपा ने इन दोनों राज्यों के चुनावों में अकेले लड़ने का फैसला करके एक जोखिम उठाया था. दोनों राज्यों में पार्टी की हार की आंच सीधे प्रधानमंत्री तक पहुंचती. खासतौर से ऐसी परिस्थिति में जब गठबंधन के साथ चुनाव लड़ने पर जीत तय मानी जा रही हो. इसके बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी. महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना गठबंधन टूटने का फायदा एनसीपी और कांग्रेस को हुआ है. दोनों दल पूरी तरह साफ होने की शर्मिंदगी से बच गए. बल्कि कह सकते हैं कि एनसीपी ने अपनी इज्जत बचा ली है. उसका वोट बढ़ा है. सीटें कम भले हुई हैं, पर इससे भी कम की उम्मीद थी. शरद पवार ने अपने किले को पूरी तरह ढहने से बचा लिया है. राज्य में भाजपा की संभावित सरकार को बाहर से समर्थन देने की घोषणा करके शरद पवार अब भ्रष्टाचार में फंसे अपने लोगों को बचाने का उपाय कर रहे हैं.

लेकिन कांग्रेस को क्या कहें. राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी जो पंद्रह साल से सरकार में थी, पहले नंबर से चौथे नंबर पर पहुंच गई. फिर भी कह रही है कि उतना नहीं हारे जितना हार सकते थे. इस मासूमियत पर कौन न कुर्बान हो जाए. पैर के नीचे से जमीन लगातार खिसकती जा रही है लेकिन कांग्रेस और उसके नेताओं को यकीन ही नहीं हो रहा. यह मासूमियत ओढ़ी हुई है या वास्तविक, कहना कठिन है. लेकिन नुक्सान दोनों ही हालत में है. क्योंकि जब तक आपको वास्तविकता का एहसास नहीं होगा तब तक सुधार के कदम नहीं उठा सकते.

शिवसेना तय नहीं कर पा रही है कि वह इन नतीजों से खुश हो या दुखी. क्योंकि मतदाता ने उसे पूरा दिया नहीं. आधे के लिए वह भाजपा पर निर्भर हो गई है. लेकिन उसे इस बात की ज्यादा खुशी है कि भाजपा को उसकी जरूरत है. जरूरत है यानी सौदेबाजी के लिए मैदान खुला है. उसने शुरु आत कर दी है. उसके नेता कह रहे हैं कि मुख्यमंत्री पद से कम पर बात नहीं बनेगी. मुख्यमंत्री पद भी चाहिए और कह रहे हैं कि नरेंद्र मोदी की महाराष्ट्र में कोई लहर नहीं है. मतलब कि हम तुम्हें गाली देंगे और तुम हमें मुख्यमंत्री पद दो. राजनीति में ऐसा व्यवहार शिवसेना ही कर सकती है. शिवसेना के नेता हकीकत जानने के बाद भी उसे मानने को तैयार नहीं हैं. शिवसेना की राजनीति से भाजपा पीछा छुड़ाना चाहती है. इसलिए वह शिवसेना की मांग एक हद के बाद नहीं मानेगी यह तय है. ऐसे में शिवसेना में टूट की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता. इस मामले में एनसीपी ने भाजपा की सरकार को बाहर से समर्थन देने की घोषणा करके भाजपा को शिवसेना से बचा लिया है. लेकिन सवाल है कि अब शिवसेना को कौन बचाएगा!

भाजपा के लिए महाराष्ट्र अवसर और चुनौती एक साथ लेकर आया है. चुनाव नतीजे एक तरह से मुनाफे में घाटे वाली स्थिति हैं. उसे उम्मीद से कम सीटें मिली हैं. उम्मीद क्या करती है, इसका उदाहरण भाजपा है. महाराष्ट्र के प्रदेश बनने के बाद से इस राज्य में भाजपा तीसरे-चौथे नंबर की पार्टी रही है. अब वह एकदम से पहले नंबर की पार्टी बन गई है. इसके बावजूद उसके विरोधी ऐसी तस्वीर पेश कर रहे हैं मानो वह हार गई हो. चौथे नंबर की पार्टी छह महीने से भी कम समय में पहले नंबर पर आ जाए तो यह कोई सामान्य बात नहीं है. लेकिन पहले नंबर पर आना जितना मुश्किल था उससे भी ज्यादा मुश्किल मतदाताओं की अपेक्षा पर खरा उतरना है.

हरियाणा एक ऐसा राज्य है जो और चाहे जिस बात के लिए जाना जाता हो, पर विचारधारा की राजनीति के लिए तो नहीं ही जाना जाता. वहां एक विचारधारा पर आधारित पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिलना आश्चर्य से कम नहीं है. हरियाणा में आज तक भाजपा को जो भी मिला है गठबंधन के जरिए ही. वह हरियाणा में हाशिए की पार्टी थी. विधानसभा का पिछला चुनाव अकेले लड़कर उसे चार सीटें मिली थीं. राज्य में पार्टी का कोई संगठन भी नहीं है. जिस राज्य में जाट मतदाता राजनीति को संचालित करते हों वहां जाटों में उसका कोई जनाधार नहीं है. ऐसे में भाजपा को अकेले दम पर सत्ता में लाने का श्रेय सिर्फ मोदी को जाता है. इस जनादेश से हरियाणा की जनता ने कांग्रेस के भ्रष्ट शासन से राज्य को मुक्ति तो दिलाई ही है, साथ ही यह भी बता दिया कि वह तिहाड़ से किसी को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाने के लिए तैयार नहीं है. हरियाणा की राजनीति अब एक नए रास्ते पर जा रही है. इस राजनीति ने कांग्रेस को हाशिए पर धकेल दिया है. सत्ता से बाहर हुई कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल भी नहीं बन पाई.

राजनीति का यह नया स्वरूप इन प्रदेशों में ही नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर भी दिखेगा. भाजपा की ताकत इस नतीजे से बढ़ेगी. केवल इसलिए नहीं कि दो और राज्यों में उसकी सरकार बन गई. इसलिए भी कि उसे केंद्रीय योजनाओं को लागू कराने के लिए दो और सरकारें मिल गई. इससे राज्यसभा में भी उसकी संख्या बढ़ेगी. उप चुनावों में भाजपा की हार के बाद मोदी का प्रभाव खत्म होने की बात करने वालों का मुंह महाराष्ट्र और हरियाणा की जनता ने फिलहाल बंद करा दिया है. नतीजे प्रमाण हैं कि लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में मतदाता ने जो विास जाहिर किया था, वह अभी क्षीण नहीं हुआ है. बिना प्रादेशिक नेतृत्व और कमजोर संगठन के होने के बावजूद इन दोनों राज्यों में पार्टी को सत्ता में लाकर मोदी ने साबित किया है कि लोगों का उन पर भरोसा अभी कायम है.

 लेकिन इस नतीजे से कांग्रेस में बहुत से मुंह खुल जाएंगे. सोनिया गांधी पार्टी में बढ़ रहे असंतोष के पतीले पर जो ढक्कन लगाकर बैठी थीं, उसमें उबाल से ढक्कन अब खुल जाएगा. कांग्रेस को अपने भावी नेतृत्व के बारे में कोई फैसला करना ही पड़ेगा. फैसला गांधी परिवार को करना है. फैसले को टालने का विकल्प अब सोनिया गांधी के पास नहीं रह गया है. कांग्रेस मुख्यालय के बाहर ‘प्रियंका लाओ देश बचाओ’ के लगने वाले नारे में दरअसल किसी को हटाने की मांग भी छिपी है.  कांग्रेस के लिए बेहद विकट स्थिति बन गई है. वह भीतर के संघर्ष से उबरे तो बाहर के संघर्ष के बारे में सोचे. 

(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)

प्रदीप सिंह
लेखक


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