बापू ने जो पाप बताए, उनकी सफाई कब!

Last Updated 02 Oct 2014 12:46:29 AM IST

ऐसा लगता है कि सात की संख्या में कोई जादू है. सप्ताह में सात दिन होते हैं, आसमानों की संख्या सात है और हिंदू विवाह में सात फेरे लिए जाते हैं.


बापू ने जो पाप बताए, उनकी सफाई कब!

ईसाई धर्म में सात घातक पापों की कल्पना की गई है. ये सात पाप हैं- लालच, पेटूपन, वासना, जलन, आलस्य, गुस्सा और घमंड. कहा जा सकता है कि इन पापों का संबंध किसी एक युग से नहीं है, बल्कि ये शात हैं. सभी धर्मों में इस तरह के सूत्र बनाए गए हैं ताकि हमें अच्छा जीवन जीने में सहायता मिले. हिंदू धर्म में मनु, याज्ञवल्क्य आदि ने अपनी स्मृतियों में धर्म के दस लक्षण बताए हैं, जैसे क्षमा, इंद्रिय निग्रह, अस्तेय, सत्य, अक्रोध आदि.

लेकिन जीने के लिए सिर्फ शात गुणों की जरूरत नहीं होती. हर काल का अपना सत्य होता है और उसके अनुसार या उसके संदर्भ में धर्म को नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत होती है. इससे धर्म बदलता नहीं, बल्कि और ज्यादा प्रासंगिक हो जाता है. बाइबिल में बताए गए उपर्युक्त सात पापों से बचना ईसाइयों का कर्त्तव्य रहा है. वेटिकन की चिंता रही है कि आधुनिक समय के पापों को कैसे चिह्नित और परिभाषित किया जाए. पुराने सात पाप बेकार नहीं हुए हैं, पर कुछ नए पाप भी पैदा हो गए हैं. 2008 में वेटिकन ने सात नए घातक पापों की सूची घोषित की. ये सात पाप इस प्रकार हैं: जैव-नैतिक नियमों को तोड़ना-जैसे गर्भपात, नैतिक रूप से संदिग्ध प्रयोग करना-जैसे स्टेम सेल रिसर्च, नशीली दवाओं का सेवन करना, वातावरण को प्रदूषित करना, अमीर-गरीब के बीच की खाई को बढ़ाने में योगदान करना, अत्यधिक दौलत जमा करना, और गरीबी पैदा करना. 

ध्यान देने की बात है कि पुराने पापों का संबंध निजी जीवन से था. यानी आदमी अपने आप को पाक-साफ रखे, इतना काफी है. उसमें इस बात की पहचान नहीं थी कि मनुष्य का एक सामाजिक जीवन भी होता है जहां उसके द्वारा किए गए काम समाज रचना को प्रभावित करते हैं. नए सात पापों की अवधारणा इसी सचाई पर आधारित है. जैसे अत्यधिक धन जमा करना. यह एक पागलपन है क्योंकि ज्यादा धन होने से सुख और आनंद बढ़ते हैं, इसका कोई प्रमाण नहीं है. साथ ही, ऐसा करने से समाज में अमीर-गरीब के बीच की खाई बढ़ती है जो आर्थिक प्रगति के लिए भी ठीक नहीं है. गरीबी पैदा करने और पर्यावरण को प्रदूषित करने के काम तो आदमी और प्रकृति के लिए, बिना कसूर के, फांसी की तरह हैं. ड्रग संस्कृति एक नासूर है जो युवा पीढ़ी का सर्वनाश कर रहा है.

इस विस्तृत परिप्रेक्ष्य में मैं महात्मा गांधी द्वारा बताए गए सात पापों को रखना चाहता हूं. गांधी जी मौलिक आदमी थे, वे किसी की नकल नहीं करते थे. वे यह भी नहीं चाहते थे कि भारत किसी और की नकल करे. फिर भी, प्रतीत होता है, सात घातक पापों के मामले में वे बाइबिल के प्रभाव में आ गए. उन्होंने बाइबिल को गौर से और कई बार पढ़ा था. ऐसे में अगर उन्होंने सात पापों को अपने ढंग से परिभाषित किया, तो इसमें कोई हैरत नहीं है. हैरत इस बात पर जरूर है कि गांधीवादियों ने इन सात पापों का प्रचार नहीं किया. क्या गांधी के मार्ग पर चलने का दावा करने वाले खुद इनमें से कुछ पापों के शिकार रहे हैं?

किन्हीं दो धर्मो, सभ्यताओं और महापुरुषों की तुलना करने में कुछ नहीं रखा है. न ही मैं ईसाइयत में बताए गए और गांधी द्वारा बताए गए सात पापों की तुलना करना चाहता हूं. परंतु इसे जरूर रेखांकित करना चाहता हूं कि गांधी की दृष्टि कितनी प्रखर और दूरगामी थी. गांधी द्वारा बताए गए इन सात पापों में मानो हमारा पूरा युग धर्म आ जाता है. वस्तुत: ये पाप मात्र धार्मिंक नहीं, वैचारिक भी हैं. ये एक तरह से आधुनिक सभ्यता की समीक्षा भी हैं.

गांधी जी के सात पाप हैं : सिद्धांत के बिना राजनीति, श्रम के बिना धन, विवेक के बिना सुख, चरित्र के बिना ज्ञान, नैतिकता के बिना व्यापार, मानवीयता के बिना विज्ञान तथा त्याग के बिना पूजा. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्र के नाम अपने पहले संदेश में इनका जिक्र भी किया था: ‘लोकतंत्र, एक जीवंत संसद, एक स्वतंत्र न्यायपालिका, एक जिम्मेदार मीडिया, जागरूक नागरिक समाज तथा सत्यनिष्ठा और कठोर परिश्रम के प्रति समर्पित नौकरशाही के माध्यम से ही सांस लेता है. इसका अस्तित्व जवाबदेही के माध्यम से ही बना रह सकता है, न कि मनमानी से. इसके बावजूद हम बेलगाम व्यक्तिगत संपन्नता, विषयासक्ति, असहिष्णुता, व्यवहार में उच्छृंखलता तथा प्राधिकारियों के प्रति असम्मान के द्वारा अपनी कार्य संस्कृति को नष्ट होने दे रहे हैं.

हमारे समाज के नैतिक ताने-बाने के कमजोर होने का सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव युवाओं और निर्धनों की उम्मीदों पर तथा उनकी आकांक्षाओं पर पड़ता है. महात्मा गांधी ने सलाह दी थी कि हमें ‘सिद्धांत के बिना राजनीति, श्रम के बिना धन, विवेक के बिना सुख, चरित्र के बिना ज्ञान, नैतिकता के बिना व्यापार, मानवीयता के बिना विज्ञान तथा त्याग के बिना पूजा से बचना चाहिए. जैसे-जैसे हम आधुनिक लोकतंत्र का निर्माण करने की ओर अग्रसर हो रहे हैं, हमें उनकी सलाह पर ध्यान देना होगा. हमें देशभक्ति, दयालुता, सहिष्णुता, आत्म-संयम, ईमानदारी, अनुशासन तथा महिलाओं के प्रति सम्मान जैसे आदशरे को एक जीती-जागती ताकत में बदलना होगा.

हमारे जीवन में इन सातों तत्वों का केंद्रीय और निर्णायक महत्व है- राजनीति, धन, सुख, ज्ञान, व्यापार, विज्ञान तथा पूजा. लोकतंत्र है, तो हमें राजनीति में भाग लेना ही होगा. जीवन के सुचारु संचालन के लिए धन चाहिए. सुख के बिना जीने का कोई आनंद नहीं है. ज्ञान जीवन की मूलभूत आवश्यकता है. व्यापार भी जरूरी है क्योंकि यह उत्पादन को समाज के विभिन्न वर्गों तक पहुंचाता है. विज्ञान के बिना तकनीकी विकास नहीं हो सकता. और पूजा-पाठ, यह अधिकांश भारतीयों की जीवनचर्या का एक अनिवार्य अंग है.

असली सवाल यह है कि जीवन के इन लक्ष्यों को प्राप्त कैसे किया जाए. क्या किसी भी तरीके से धन प्राप्त करना अच्छा है? क्या इससे हम लुटेरों के समाज में परिवर्तित नहीं हो जाएंगे? सिद्धांतविहीन राजनीति हमें जहां ले आई है, वह सबके सामने है. ऐसा लगता है कि देश जितना आगे जा रहा है, उतना ही पीछे भी जा रहा है? क्या हमारे सांसद, विधायक, मंत्री बीते जमाने के  पिंडारियों की याद नहीं दिलाते? और सुख? क्या विवेक के अभाव में वह दलदल नहीं हो जाता, जिसमें हम धंसते ही जाते हैं?

विज्ञान हमारी सहायता कर रहा है या हमारी वासनाओं की पूर्ति कर हमें काहिल बना रहा है? और धार्मिंक लोग! वे घर में ठाकुर जी बैठा कर और रोज उनकी पूजा कर मान लेते हैं कि धर्म का पालन हो गया. लेकिन उनके इस धर्म में त्याग का तत्व कहां है? गांधी जी के लिए धर्म का सिर्फ एक रूप था- वैष्णव जन तो ताहे कहिए पीर पराई जाणो रे. अगर अपने को धार्मिंक मानने वाला व्यक्ति भी पराई पीर का अनुभव नहीं करेगा और उसकी पीड़ा को कम करने के लिए त्याग नहीं करेगा, तो क्या हम कौवों और गिद्धों से उम्मीद करेंगे कि वे हमारी व्यथा दूर करने के लिए धरती पर पधारेंगे?

जो लोग गांधी के नाम पर सिर्फ खादी की, सादगी की, सत्य की, अहिंसा की, विकेंद्रीकरण की बात करते हैं, वे गलत नहीं हैं. पर वे अगर गांधी के बताए सात पापों से बचने की कोशिश नहीं करते, तो गांधी के साथ ही नहीं, अपने साथ भी और हमारे साथ भी दगा करते हैं.

(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)

राजकिशोर
लेखक


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