बीते कल ने डुबो दी अम्मा की किस्मत

Last Updated 30 Sep 2014 12:30:55 AM IST

आय से अधिक संपत्ति के मामले में तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे. जयललिता को चार साल की सजा के साथ सौ करोड़ का जुर्माना एक अहम फैसला है.


बीते कल ने डुबो दी अम्मा की किस्मत

इस सजा के डर से राजनीति में शुचिता की दृष्टि से पवित्रता की शुरुआत के लिए राजनेताओं को बाध्य होना पड़ेगा. क्योंकि अब तक यह धारणा बनी हुई है कि भ्रष्टाचार से अर्जित संपत्ति से राजनीति भी चलती रहेगी और इसी धन से निकलने के उपाय भी तलाशे जाते रहेंगे. अवैध संपत्ति की जब्ती बच निकलने के रास्तों को बंद करने का काम करेगी. क्योंकि भ्रष्टाचारी के पास लालच देकर ईमान खरीदने के स्रेत ही बंद हो जाएंगे. इस मामले का 18 साल में मुकाम पर पहुंचने की पृष्ठभूमि में धन भी रहा है.

देश के सर्वोच्च न्यायालय ने यदि 10 जुलाई 2013 को दिए ऐतिहासिक फैसले में यह व्यवस्था न दी होती कि दागी व्यक्ति जनप्रतिनिधि नहीं हो सकता, तो शायद जयललिता सजा के बावजूद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन बनी रहतीं. न्यायालय के इस फैसले के मुताबिक यदि किसी जनप्रतिनिधि को आपराधिक मामले में दोषी करार देते हुए दो साल से अधिक की सजा सुनाई गई हो, वह व्यक्ति सांसद या विधायक बना नहीं रह सकता. वह मंत्री या मुख्यमंत्री भी बना नहीं रह सकता और आने वाले दस सालों तक चुनाव भी नहीं लड़ सकता. साफ है, जयललिता ने बेहिसाब भ्रष्टाचार करके अपने राजनेता बने रहने की सारी योग्यताएं दस साल के लिए खो दी हैं.

यूं जयललिता इस फैसले की पहली शिकार नहीं हैं. इसके पहले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव को चारा घोटाले में विषेश अदालत द्वारा पांच साल की सजा सुनाई गई थी. नतीजतन 2013 में वे सांसद बने रहने की योग्यता खो बैठे और 2014 के आम चुनाव में लोकसभा का चुनाव भी नहीं लड़ पाए. कांग्रेस के राशिद मसूद को स्वास्थ्य सेवाओं के भर्ती घोटाले में चार साल की सजा हुई और राज्यसभा सांसद का पद गंवाना पड़ा. राष्ट्रीय जनता दल के सांसद जगदीश शर्मा को भी चारा घोटाले में चार साल की सजा जैसे ही तय हुई, उन्हें संसद सदस्यता गंवानी पड़ी.

शिवसेना के विधायक बबनराव घोलप को भी आय से अधिक संपत्ति के मामले में तीन साल की सजा सुनाई गई है. हालांकि अभी विधानसभा की सदस्यता से अयोग्य ठहरने का उनका मामला अभी विचाराधीन है. द्रमुक के राज्यसभा सांसद टीएम सेलवे गनपति को जैसे ही दो साल की सजा हुई, उन्होंने अयोग्य ठहराने का फैसला आने से पहले ही इस्तीफा दे दिया था. मसलन महज जनप्रतिनिधित्व कानून की एक धारा 8;4द्ध का अस्तित्व अदालत द्वारा खारिज कर देने से लोकसभा और विधानसभाओं से दागियों के दूर होने का शुभ सिलसिला शुरू हो गया. लिहाजा अब राजनीति में डर व्याप्त होना शुरू हो गया है.

दरअसल जनप्रतिनिधत्व कानून के तहत सांसद और विधायकों को यह छूट मिली हुई थी कि यदि माननीयों ने सजा पाए किसी निचली अदालत के फैसले के विरुद्ध ऊपरी अदालत में अपील दायर कर दी है तो वे उसका फैसला आने तक अपने पद पर बने रह सकते हैं. इसी परिप्रेक्ष्य में 10 जुलाई 2013 को सर्वोच्च न्यायालय ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 ;4द्ध को संविधान में दर्ज समानता के अधिकार और जनप्रतिनिधित्व विधेयक की मूल भावना के विरूद्ध मानते हुए रद्द कर दिया था. इस ऐतिहासिक फैसले पर उस समय भाजपा समेत लगभग सभी दलों ने नाराजगी जताई थी. नतीजतन तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार ने एक अघ्यादेश लाकर शीर्ष अदालत के फैसले को निष्क्रिय करने की पूरी तैयारी कर ली थी. किंतु राहुल गांधी ने नाटकीय अंदाज में इस अघ्यादेश को फाड़कर इसे कानूनी दर्जा हासिल नहीं होने दिया.

जयललिता की सजा से जुड़े इस मामले के परिप्रेक्ष्य में भाजपा के सुब्रमण्यम स्वामी की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है. भारतीय राजनीति में वे शायद इकलौते नेता हैं, जो अकेले अपने दम पर भ्रष्टाचारियों से चुनौती के साथ लड़ते रहे हैं. जयललिता के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति के इस मामले को 1996 में स्वामी ही अदालत में ले गए थे. दरअसल जयललिता ने जब 1991 में विधानसभा का चुनाव लड़ा था, तब एक जुलाई 1991 को नामांकन पर्चे के साथ नत्थी शपथ-पत्र में अपनी कुल चल-अंचल संपत्ति 2.01 करोड़ रुपए घोषित थी. लेकिन पांच साल मुख्यमंत्री रहने के बाद जयललिता ने 1996 का चुनाव लड़ा तो हलफनामे के जरिए अपनी संपत्ति 66.65 करोड़ बताई. यानी खुद जयललिता अपने ही हस्ताक्षरित दस्तावेजों के जरिए अनुपातहीन संपत्ति के कठघरे में फंस गईं. स्वामी ने आय की इस विसंगति के मद्देनजर चेन्नई हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर कर दी.

हाईकोर्ट ने इसे गंभीरता से लिया और सीबीआई को मामले की जांच सौंप दी. सीबीआई ने जब उनके ठिकानों पर छापे डाले तो उनके पास से अकूत संपत्ति और सामंती वैभव प्रगट करने वाली वस्तुएं बड़ी मात्रा में बरामद हुईं. चेन्नई में अनेक मकान, हैदराबाद में कृषि फॉर्म, नीलगिरी में चाय  बागान, 28 किलो सोना, 800 किलो चांदी, हजारों कीमती सांड़ियां, 91 घड़ियां और 750 जोड़ी जूतियां व चप्पले मिले थे. छापे उनकी करीबी रही शशिकला नटराजन, उनकी भतीजी इलावरासी और जयललिता के दत्तक पुत्र रहे सुधाकरण के यहां भी डाले गए थे. इन लोगों के पास से भी बड़ी मात्रा में बेगामी संपत्ति बरामद हुई थीं. इन्हें भी अदालत ने चार साल की सजा और दस-दस करोड़ के जुर्माने की सजा सुनाई है. 

जयललिता का यही वह बुरा दौर था, जब वह 1996 में भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते विधानसभा का चुनाव हार गईं थीं. उनके राजनीतिक दल अन्नाद्रमुक को भी जबरदस्त मुंह की खानी पड़ी थी. 1996 में जब द्रमुक सत्ता में लौटी और एम करुणानिधि मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने जयललिता और उनके करीबियों को गिरफ्तार करके सलाखों के पीछे करवा दिया था. अब एक बार फिर जयललिता विपरीत हालात के शिकंजे में हैं. हालांकि अब करुणानिधि और उनके दल की शक्ति के केंद्र में नहीं है, लेकिन कानून अपना काम कर रहा है.

खुद मुख्यमंत्री रहते हुए जयललिता को न केवल सत्ता गंवाना पड़ रही है, बल्कि बतौर जुर्माना संपत्ति भी गंवानी पड़ रही है. भ्रष्टाचार से मुक्ति के उपाय की दिशा में यह एक अहम फैसला है. यदि राजनीति और प्रशासन से जुड़े भ्रष्टाचारियों की संपत्ति इसी तरह बतौर जुर्माना वसूलने की शुरुआत देश में हो जाएगी तो जनता को भ्रष्टाचार मुक्त शासन-प्रशासन की खुली हवा में सांस लेने का अवसर उपलब्ध हो जाएगा.

प्रमोद भार्गव
लेखक


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