भेद को खोजिए, भेदी को नहीं

Last Updated 24 Sep 2014 12:31:27 AM IST

कोयला घोटाला और टू जी जांच संबंधी केस सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा और प्रसिद्ध वकील प्रशांत भूषण के अहम के टकराव का मामला भर नहीं है.


भेद को खोजिए, भेदी को नहीं

इससे भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लड़ने वाली जमात का भविष्य जुड़ा है. सीबीआई निदेशक पर उक्त घोटालों के अभियुक्तों से अपने सरकारी आवास पर मिलने का आरोप लगाने वाले वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण से सुप्रीम कोर्ट ने उस व्हिसिल ब्लोअर (जानकारी देने वाला व्यक्ति) का नाम बताने को कहा है जिसने रंजीत सिन्हा के यहां आने वाले आगंतुकों की सूची सौंपी थी. अदालत में यह मामला सेंटर फॉर पब्लिक इंटरस्ट लिटिगेशन (सीएफपीआईएल) नामक स्वयंसेवी संगठन ने उठाया है.

सीएफपीआईएल की कार्यकारिणी ने उच्चतम न्यायालय का यह आदेश मानने से इंकार कर दिया. संगठन की ओर से दाखिल शपथ पत्र में कहा गया है कि सिन्हा के घर आने वाले मेहमानों की सूची देने वाले व्यक्ति का नाम जाहिर करने से उसके प्राणों पर संकट आ सकता है. प्रशांत भूषण के इंकार के बाद रंजीत सिन्हा के वकील ने केस खारिज करने की अपील की जिसे सुप्रीम कोर्ट ने ठुकरा दिया. अदालत ने सीबीआई के विशेष वकील से पूरे प्रकरण का अध्ययन कर सलाह मांगी है. अगली सुनवाई की तिथि दस अक्टूबर तय की गई है.

सीएफपीआईएल का तर्क है कि अदालत को सीबीआई निदेशक पर लगाए आरोपों की गहराई में जाना चाहिए, जानकारी देने वाले का नाम जानकर क्या हासिल होगा? शपथ पत्र में कुछ पुराने उदाहरण देकर कहा गया है कि इन केसों में भी अदालत को अज्ञात सूत्रों से भ्रष्टाचार की शिकायत मिली थी और तब अदालत ने खबर देने वाले का नाम नहीं पूछा था. अनेक बार तो समाचार पत्रों में भ्रष्टाचार से जुड़ी खबरों का संज्ञान लेकर कोर्ट ने स्वयं जांच का आदेश दिया है. फिर इस बार व्हिसिल ब्लोअर का नाम क्यों पूछा जा रहा है?

बात आगे बढ़ाने से पहले दो तथ्यों का जिक्र करना जरूरी है. पहली बात यह है कि संसद द्वारा चार महीने पहले बनाए गए व्हिसिल ब्लोअर कानून में सार्वजनिक या अन्य उच्च सरकारी पद पर बैठे किसी व्यक्ति के भ्रष्टाचार की सूचना देने वाले व्यक्ति का नाम उजागर करने पर 50 हजार रुपए का जुर्माना और तीन वर्ष तक कारागार का प्रावधान है. यह कानून भ्रष्टाचार की जानकारी देने वाले व्यक्ति की जान-माल की सुरक्षा के लिए बनाया गया है.

दूसरी बात यह है कि वर्ष 2004 में व्हिसिल ब्लोअर को संरक्षण देने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार पर दबाव डाला था. इसके बाद ही पब्लिक इंटरस्ट डिसक्लोजर एडं प्रोटेक्शन ऑफ इनफोरमेशन रेगुलेशन बना. इसमें भ्रष्टाचार की शिकायत प्राप्त करने के लिए सीवीसी को अधिकृत किया गया. इसमें भी व्हिसिल ब्लोअर का नाम गुप्त रखने की हिदायत है.

संसद से पारित होने और राष्ट्रपति द्वारा मंजूरी दिए जाने के बावजूद व्हिसिल ब्लोअर एक्ट अब तक वजूद में नहीं आ पाया है. सरकार ने इस कानून को लागू करने के लिए जरूरी नियम नहीं बनाए हैं. जन लोकपाल विधेयक भी लंबे समय से अमली जामा पहनाए जाने का इंतजार कर रहा है. इस ढिलाई का दुष्परिणाम बेईमानी और भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लड़ने वाले ईमानदार लोगों को भुगतना पड़ रहा है. पिछले 12 सालों में भ्रष्टाचार और घोटालों का भंडाफोड़ करने वाले चालीस लोगों की हत्या हो चुकी है. जानलेवा हमलों में सैकड़ों घायल हुए हैं.

प्रताड़ित किए जाने वाले ईमानदार लोगों की तो कोई गिनती ही नहीं है. लगता है मौजूदा व्यवस्था भ्रष्टाचार के विरुद्ध कदम उठाने के बजाए ऐसे मामलों को उठाने वालों के खिलाफ है.
कई प्रतिष्ठित संगठन और व्यक्ति रंजीत सिन्हा केस में प्रशांत भूषण को व्हिसिल ब्लोअर का नाम बताने संबंधी अदालती आदेश का विरोध कर रहे हैं. प्रशांत भूषण ने कहा था कि जानकारी देने वाले अपने सूत्र की सहमति के बाद ही वह अदालत को उसका नाम बताएंगे. लगता है उनके सूत्र ने अपना नाम उजागर करने से इंकार कर दिया. भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाना वाकई जोखिम भरा काम है. यह साहस करने वाले लोगों को सुरक्षा प्रदान करना सरकार और अदालतों का दायित्व है.

अरबों-खरबों रुपए का घोटाला करने वाले लोग और उनके सरपरस्त बहुत ताकतवर होते हैं. उनकी पहुंच और क्रूरता का प्रमाण कई बार मिल चुका है. सन 2003 में नेशनल हाईवे अथॉरिटी के ईमानदार इंजीनियर सत्येंद्र दुबे ने प्रधानमंत्री को अपने विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार की जानकारी दी थी. दुबे ने अपना नाम गुप्त रखने का आग्रह भी किया था लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय ने उनका पत्र ज्यों का त्यों संबंधित विभागों को भेज दिया. इसके कुछ दिन बाद दुबे की हत्या हो गई थी. इसी प्रकार वर्ष 2005 में इंडियन ऑयल के मार्केटिंग मैनेजर मंजूनाथ को पेट्रोल डीलरों के भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी. ऐसे और भी दर्जनों नाम गिनवाए जा सकते हैं जिन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई और सुरक्षा न मिलने के कारण उनकी जान चली गई.

रंजीत सिन्हा मान चुके हैं कि प्रशांत भूषण ने अदालत को जो सूची सौंपी थी, उसमें से कई लोगों से वह मिल चुके हैं. मिलने वालों में वे लोग या उनके प्रतिनिधि हैं जिनके खिलाफ सीबीआई जांच कर रही है. प्रशांत भूषण का तर्क है कि क्योंकि सीबीआई निदेशक संदेह के घेरे में हैं, इसलिए उन्हें संवेदनशील मामलों की जांच से दूर रखा जाए. दूसरी ओर सिन्हा कहते हैं कि उन्हें बदनाम करने की साजिश रची जा रही है, इसलिए सूचना देने वाले का नाम बताया जाना जरूरी है. 

वर्ष 1997 में हवाला कांड पर फैसला देते हुए उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा ने स्पष्ट आदेश दिया था कि भ्रष्टाचार के मामलों में सीबीआई और वित्त मंत्रालय के एंफोर्समेंट डायरेक्टर को अपनी जांच रिपोर्ट सरकार को दिखाने की जरूरत नहीं है. ऐसे मामलों में दोनों विभागों को सरकार से निर्देश लेने की भी कोई जरूरत नहीं है. सरकारी दबाव से बचाने के  लिए ही अदालत में इन दोनों विभागों को केंद्रीय सर्तकता आयोग (सीवीसी) की निगरानी में सौंपा गया था. फिर भी सीबीआई बार-बार इस आदेश का उल्लंघन करती है जो सीधे-सीधे देश की सबसे बड़ी अदालत की अवमानना है. कोल ब्लॉक आवंटन घोटाले में सरकारी दबाव भांपकर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को दो माह के भीतर सीबीआई को स्वायत्तता  देने का कानून बनाने का निर्देश दिया था. खानापूर्ति के लिए कुछ नियम जरूर बनाए गए हैं, इससे अधिक कुछ भी नहीं.

पत्रकारिता के पेशे में खबर का सूत्र गुप्त रखने की परंपरा पुरानी है. इसका उद्देश्य षड्यंत्र रचना नहीं, अपने सूत्र के हित की रक्षा करना होता है. इस मुद्दे पर देश की अदालतों में जो बहस हुई और फैसले आए वे अलग-अलग हैं. लेकिन सामान्य समझ की बात है कि  भ्रष्टाचार का कोई मामला प्रकाश में आने पर यदि सरकार या अदालत आरोप की जांच कर दोषियों को सजा देने के बजाए, सूचना देने वाले के पीछे पड़ जाएगी तो इससे देश का भारी अहित होगा. बेईमानी और भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रही लड़ाई को धक्का पहुंचेगा.

(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)

धर्मेन्द्रपाल सिंह
लेखक


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment