खूब मजाक करती है जनता

Last Updated 21 Sep 2014 01:13:26 AM IST

जनता का परिहास भाव यानी ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ अद्भुत है. जबरदस्त मजाक करती है यहां की जनता.


खूब मजाक करती है जनता

कब किसे आसमान पर चढ़ा दे और कब किसको जमीन सुंघा दे, कुछ पता नहीं लगने देती. बड़े-बड़े विशेषज्ञ, बड़े-बड़े पंडित पिटपिटा कर रह जाते हैं और जनता अपनी डुगडुगी बजाकर और बड़े-बड़े बयानवीरों का तमाशा बनाकर आगे बढ़ जाती है, या कहिए कि अपने घरों में वापस लौट जाती है. क्या जोरदार तमाशा किया जनता ने, क्यों तमाशा किया जनता ने, जनता के तमाशे ने क्या गुल खिलाए और आगे क्या होगा या क्या गुल खिलेगा; इस पर अब महान मंथन जारी है. जनता के तमाशे के तर्क तलाशे जा रहे हैं, उसके कारण खोजे जा रहे हैं. पिछली बार जो तमाशा बने थे वे अब जीत का जश्न मना रहे हैं और पिछली बार जो जीत का जश्न मना रहे थे वे अब मुंह छुपा रहे हैं.

जनता ने यह तमाशा क्यों किया या जनता से यह तमाशा किन तत्वों ने करवाया यह तो जनता ही जाने, लेकिन जनता के तमाशे के बीच से जो मूंछों पर ताव देते हुए निकले वे कहते हैं कि लोकसभा चुनाव में मोदी लहर ने जो भ्रमजाल रचा था, जो हवाई वादे-आश्वासन चुनावी वातावरण में उछाले थे, उनका मुलम्मा उतर गया. जनता सौ दिनों के भीतर ही असलियत समझ गई इसलिए उसका मोहभंग हो गया. यूपी में कहा गया कि जिन्होंने धर्म और जाति के आधार पर बिखराव पैदा करने की कोशिश की जनता ने उन्हें करारा जवाब दिया. सांप्रदायिक ताकतों की नफरत फैलाने की नीति को जनता ने नकार दिया. जनता ने समाजवादी विचारधारा और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की उपलब्धियों को समर्थन दिया. जनता ने सांप्रदायिकता को नहीं बल्कि सपा सरकार के विकास के एजेंडे को वोट दिया. उत्तर प्रदेश की जो जनता लोकसभा चुनावों के दौरान भटक गई थी वह वापस पटरी पर लौट आई... तो क्या यही सचाई है? जनता ने सचमुच यही किया है? यह आंशिक सत्य हो सकता है, पूर्ण सत्य नहीं.

इसी तरह जिन्हें अपेक्षा के धुर उलट धूल चाटनी पड़ी, उनका कहना था कि मोदी लहर खत्म नहीं हुई है. उपचुनावों के सरकारी दल के पक्ष में जाने का पुराना रिकार्ड है. भाजपा की नीति-रीतियों में कोई खामी नहीं है बल्कि कार्यकर्ता सौ दिनों की केंद्रीय उपलब्धि को राज्यों की जनता तक नहीं पहुंचा पाए. पार्टी के स्थानीय सांसदों और उनके समर्थकों ने पार्टी प्रत्याशियों का साथ नहीं दिया बल्कि कहीं-कहीं तो उन्होंने विरोध में प्रचार किया. भारी भितरघात हुआ. समर्थक वोट देने बाहर नहीं निकले. उनके विरोध में जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ. सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया गया. चुनावों में धांधली की गई... लेकिन क्या यही सचाई है? भाजपा प्रत्याशी अपेक्षा के विपरीत क्या इसीलिए हारे? यहां भी यह आंशिक सत्य हो सकता है, पूर्ण सत्य नहीं.

जीतने और हारने वाले इन दो पक्षों के अलावा तीसरा पक्ष उन चुनाव विशेषज्ञों, पत्रकारों और राजनीतिक विश्लेषकों का है जो चुनाव से पहले और बाद में क्रमश: संभावनाओं तथा परिणामों पर जोर-शोर से चर्चा करते हैं और गिनाते हैं कि कोई हारा तो क्यों हारा और कोई जीता तो क्यों जीता. इन्होंने जीतने वालों के पक्ष में निष्कर्ष निकाला कि समाजवादी पार्टी ने सही प्रत्याशियों का चुनाव सही समय पर किया, जातीय तथा धार्मिक समीकरण का ध्यान रखा, लोकसभा चुनाव की तुलना में उपचुनाव अधिक संगठित होकर लड़ा, अपने मंत्रियों को उनकी पूरी ताकत के साथ चुनावों की व्यवस्था में लगा दिया, जिनसे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का खतरा था ऐसे नेताओं को चुनाव से दूर रखा और सवरेपरि यह कि समूचे चुनाव पर मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव ने लगाम कसे रखी जिससे पार्टी का कोई असंतुष्ट गुट कहीं भी पार्टी की संभावनाओं को क्षीण नहीं कर पाया.

इनके साथ ही सपा प्रत्याशियों की जीत के कारणों में वे कारण भी गिनाए गए जो भाजपा प्रत्याशियों की हार के कारण थे- यथा, भाजपा ने विकास का मुद्दा छोड़कर ‘लव जिहाद’ जैसे मुद्दे के सहारे हिंदू वोट के ध्रुवीकरण की जो कोशिश की वह उल्टी पड़ गई, बसपा प्रत्याशियों की अनुपस्थिति में मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण सपा प्रत्याशियों के पक्ष में हुआ, भाजपा की सांगठनिक कमजोरियों और आपसी फूट का लाभ सपा को मिला और यह कि भाजपा ने उपचुनावों की कमान जिन नेताओं को सौंपी वे लोकसभा चुनावों की विरासत को संभाल नहीं सके. भाजपा की हार के कारणों में यह भी गिनाया गया कि भाजपा नेता लोकसभा चुनावों में जिस मोदी लहर पर सवार हुए थे वे उसी पर सवारी करते रहे, अति आत्मविश्वास में मानते रहे कि पिछले चुनाव की तरह इस चुनाव में भी जनता उन्हीं की झोली में जीत का प्रसाद डालेगी. वे लहर से उतर कर जमीन पर नहीं आ सके और औंधे मुंह गिर पड़े. हार की तकनीकी खामियों में गिनाया गया कि प्रत्याशियों की घोषणा ऐन वक्त पर की गई, जातीय समीकरणों का ध्यान नहीं रखा गया, चयन प्रक्रिया में स्थानीय नेताओं की राय की उपेक्षा की गई जिससे भितरघात हुआ, आदि.

ये सारे के सारे आकलन जनता के उस कारनामे के हैं जो उसने हाल ही के उपचुनावों में किया है. ऐसे कारनामे करने वाली यह जनता आखिर है क्या? आज जिसके साथ खड़ी होती है, कल उसे ही धता बता देती है. जिस लहर पर सवारी गांठती है, उसी लहर को धराशायी कर देती है. जिस पर मुग्ध होती है, उसी पर गुस्सा उतार देती है. जिसे माला पहनाती है, उसी के गले में फंदा डाल देती है. जिसे खुश करने के लिए नाचती-गाती है, उसी के आगे मातम परोस देती है. आज जिसे हंसाती है, कल उसे ही रुला देती है. आज जिस पर मेहरबान होती है, कल उसी पर कुपित हो जाती है. जिसे पंख देती है, उसी के पर कतर देती है. जो सांप्रदायिकता फैलाते हैं उनका भी साथ देती है और जो सांप्रदायिकता का विरोध करते हैं उनका भी साथ देती है.  जो हवाई वादे करते हैं उनका भी साथ देती है और जो कुछ नहीं करते उनका भी साथ देती है. आज जिन्हें भरोसा देती है, कल उन्हें दगा दे देती है. कभी भ्रष्टाचार के विरोध में खड़ी होती है, तो कभी महाभ्रष्टों को सदन में भेज देती है. क्या खूब है यह जनता. खूब मजाक करती है यह जनता, और खूब मजाक भी बनती है यह जनता!

विभांशु दिव्याल
लेखक


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