हिंदी-चीनी साझेदारी की असलियत
अपने शपथ ग्रहण समारोह के दिन से ही नरेंद्र मोदी यह दर्शाते रहे हैं कि भारत की यूपीए के कार्यकाल में उपेक्षित विदेश नीति को नई दिशा और गति देने को वह प्राथमिकता देते हैं.
हिंदी-चीनी साझेदारी की असलियत |
सलिए यह अचरज की बात नहीं कि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के दौरे का भरपूर उपयोग हमारी नई सरकार द्वारा राजनयिक जमीन पर अरसे से जमी बर्फ को पिघलाने के लिए किया गया. पहले दिन यह लग रहा था कि वास्तव में सार्थक नई पहल हो रही है. दूसरे ही दिन तक आशा कुसुम कुछ-कुछ कुम्हलाने लगे. लद्दाख की सीमा पर ‘अचानक’ बढ़ते तनाव ने जोशीली मेहमाननवाजी के खुमार को उतार दिया और अंतत: संयुक्त विज्ञप्ति में जो ऐलान किए गए, वह ऐसे ही थे जैसे अतीत में कई बार ऐसे मौकों पर किए जाते रहे हैं.
यह सच है कि चीन ने अगले पांच बरस में हमारे यहां 100 अरब अमेरिकी डॉलर के पूंजी निवेश की बात पक्की की है- हर साल बीस अरब डॉलर के हिसाब से. यह पूंजी आधारभूत ढांचे तथा उत्पादन क्षेत्र में लगाई जाएगी. जाहिर है, यदि इस योजना में कोई रु कावट नहीं आती तो बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर पैदा होंगे और यातायात-संचार सेवाओं का कायाकल्प हो जाएगा. इसी के साथ भारत-चीन व्यापार में मौजूद कोई तीस अरब डॉलर का असंतुलन भी धीरे-धीरे कम होने लगेगा. अगर भारत की इच्छा-अपेक्षा के अनुसार चीन तीसरे देशों में निर्यात के लिए उत्पादों का निर्माण भारत में करने लगता है तो यह साझेदारी अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक अनूठा सामरिक आयाम भी ले सकती है.
आखिर चीन तथा भारत दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाले दो देश हैं. प्राचीन सभ्यताओं के वारिस और इनकी जुगलबंदी के सामने कम से कम एशिया में कोई भी बाहरी ताकत टिक नहीं सकती. जापान हो या कोरिया, इंडोनेशिया हा या वियतनाम या फिर मध्य एशियाई गणराज्य; ये पारंपरिक रूप से भारत या चीन के ही सांस्कृतिक-भूराजनीतिक प्रभामंडल के आलोक में देखे-परखे जाते रहे हैं. यह जोड़ने की जरूरत है कि प्रभामंडल का अर्थ प्रभुत्व का क्षेत्र नहीं निकाला जाना चाहिए.
प्राणरक्षक औषधि उत्पादन, अंतरिक्ष अन्वेषण, परमाणविक ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग तथा ऐतिहासिक रेशम व मसाला राजपथों को पुनर्जीवित करने की बातें भी इस घड़ी हो रही हैं. नदियों को जोड़ने वाले भगीरथ प्रयत्न की चर्चा फिर से गर्म हो रही है. भारतीय शहर चीनी शहरों की जुड़वा बहिनें बनने को सज-धज रहे हैं, तो विशेष तकनीकी क्षेत्रों की स्थापना के लिए निजी क्षेत्र को न्यौता जा रहा है. जिन समझौतों पर दस्तखत किए गए हैं, उनकी संख्या कम नहीं.
परंतु इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि सीमा विवाद विषयक कोई ठोस आासन चीन की तरफ से नहीं मिल पाया. शी ने सिर्फ यह बात दोहराई कि यह ऐतिहासिक समस्या है और दोनों देश इसे यथाशीघ्र निबटा कर आगे बढ़ना चाहते हैं. यह समाधान शांतिपूर्ण परामर्श से ही निकल सकता है आदि... याद रहे कि यह सब पंचशील समझौते के युग से कहा जाता रहा है. हां, इस बार इतना फर्क जरूर देखने को मिला कि प्रधानमंत्री मोदी ने जल्दी से जल्दी सरहद पर वास्तविक नियंत्रण रेखा को मानचित्र पर स्पष्ट रूप से दर्शाने की जरूरत को रेखांकित किया. हाल के वर्षो में सीमा विवाद निबटाने के लिए विशेष प्रतिनिधियों के बीच वार्ताओं के 17 दौर संपन्न हो चुके हैं.
जाहिर है कि अब तक गतिरोध तोड़ने वाली प्रगति नहीं दर्ज हो सकी है. अरसे से यह सुनने को मिलता रहा है कि यदि भारत लद्दाख में चीन को उसकी मनचाही रियायत दे दे तो वह अरु णाचल और सिक्किम में हमारी संप्रभुता को स्वीकार करने को राजी हो सकता है. पर चीन ने कभी कोई ऐसा औपचारिक प्रस्ताव पटल पर नहीं रखा है. वह सामरिक संवेदनशीलता वाली जमीन पर कब्जा बनाए रखने के साथ तमाम विकल्प खुले रखना चाहता है.
‘उदीयमान भारत’ का कद बौना रख उसे दक्षिण एशिया की प्रमुख शक्ति के पद पर बैठाने में ही चीन को अपना राष्ट्रहित निरापद लगता है. पाकिस्तान की सामरिक सहायता, नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका तथा मालदीव में उसकी असाधारण सक्रियता यही दर्शाती है. ऊर्जा सुरक्षा हो अथवा खाद्य सुरक्षा, विश्व भर में चीन और भारत एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी हैं. यह कल्पना कठिन है कि पलक झपकते दोनों सहयोगी बन जाएंगे.
हमारी राय में दो-चार बातों को जोर देकर कहने की जरूरत बची हुई है. पहले तो इस घड़ी यह पूछना बेहद जरूरी है कि क्या कारण है कि चीन हमारी तरफ देख रहा है? क्या वास्तव में उसे हमारी जरूरत है या यह सब हमें एक खतरनाक मरीचिका में फंसाने की रणनीति है? जरूरत है तो क्यों? क्या मोदी सरकार के गठन की वजह से दूसरे कई देशों की तरह चीन को लगने लगा है कि अब बदलाव संभव है? या अंतरराष्ट्रीय आर्थिक मंदी ने बुढ़ाती आबादी वाले चीन को युवा भारत के बाजार और श्रम शक्ति के प्रति आकर्षित करना आरंभ कर दिया है?
इसके बाद दूसरे इतने ही महत्वपूर्ण सवाल उठ खड़े होने लगते हैं. क्या आज अचानक विचारधारा या राजनीतिक प्रणाली की कोई अहमियत नहीं रह गई है? क्या चीन और भारत के दूसरी बड़ी ताकतों के साथ नाते-रिश्ते, खासकर अमेरिका और रूस के साथ, इतने बदल चुके हैं कि भारतीय-चीनी साझेदारी को हम अपनी विदेश नीति में सर्वोच्च प्राथमिकता देने को आतुर हों?
भारत की विदेश नीति के संदर्भ में जिन चुनौतियों को सबसे जटिल माना समझा जाता है वे पाकिस्तान और चीन के साथ हमारे संबंधों के निर्वाह से जुड़ी हैं. एक सहोदर-शत्रु है, तो दूसरा पारंपरिक मित्र से बैरी बना पड़ोसी.
कम से कम 1960 के दशक से, यानी आधा सदी से भी अधिक समय से, इन दो देशों की सामरिक धुरी भारत की घेराबंदी करने में कामयाब रही है. दोनों के ही साथ हमारे ऐसे भूमि से जुड़े विवाद चले आ रहे हैं जिनका समाधान आसान नहीं. दोनों के साथ विचारधारा और राजनीतिक व्यवस्था-प्रणाली का अंतर भी सामान्यीकरण के प्रयासों को कठिन बनाता रहा है. सबसे अहम बात यह है कि इन दोनों के ही साथ उभयपक्षी रिश्तों की छाया हमारे अन्य बड़ी शक्तियों के साथ संबंधों पर पड़ती रही है.
यह न भूलें कि अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद और इस्लामी कट्टरपंथ का कोई उल्लेख इस मुलाकात में नहीं सुनाई दिया. सो, यह अपेक्षा निर्मूल है कि पाकिस्तान की प्रायोजित दहशतगर्दी पर चीन हमारे कहे से जरा भी अंकुश लगाएगा. बाकी समझौतों में किसी ठोस प्रगति के पहले सीमा विवाद का गतिरोध परमावश्यक है. इस सिलसिले में आने वाले आठ-दस महीने देखने लायक रहेंगे.
(लेखक विदेशी मामलों के जानकार हैं)
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