महिलाएं मजबूरी में ही क्यों करें काम!
शिक्षा का स्तर सुधरने और अपनी रोटी खुद कमाने की इच्छा ने बेशक बीते कुछ दशकों में महिलाओं को घर से बाहर पांव रखने की हिम्मत दी.
महिलाएं मजबूरी में ही क्यों करें काम! |
इसका नतीजा यह निकला कि कम से कम शहरों में तो महिलाएं नौकरी और कामकाज के सिलसिले में बाहर आने-जाने लगीं. धीरे-धीरे यह बदलाव छोटे शहरों और कस्बों में हुआ, लेकिन वहां यह मिथक काम कर रहा था कि ऐसी महिलाएं किसी मजबूरी में ही घर से बाहर आ रही हैं. गरीबी, पति की अकाल मृत्यु या घर में कोई कमाऊ पुरुष सदस्य न होने की स्थिति में ही महिलाओं ने घर चलाने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली और नौकरी या बिजनेस का बीड़ा उठाया.
इस मजबूरी का अभिप्राय यह था कि जैसे ही आर्थिक स्थितियां थोड़ी बेहतर होती हैं, महिलाएं बाहरी कामकाज छोड़ देती हैं. महिलाएं खुद को अचानक कामकाजी दायरों से अलग कर लें, तो किसी भी बढ़ते हुए देश और समाज के लिए यह एक नकारात्मक स्थिति है और अफसोस कि पिछले दस सालों में ऐसे हालात अपने देश में भी पैदा हुए हैं जब विभिन्न कारणों से भारी संख्या में कामकाजी महिलाएं परिदृश्य से ओझल हुई हैं.
इस बारे में चेतावनी देते हुए पिछले साल में रजिस्ट्रार जनरल और सेंसस कमिश्नर ऑफ इंडिया ने पढ़ी-लिखी और कामकाजी महिलाओं की संख्या में गिरावट के कुछ आकलन और संकेत जारी किए थे. वे सभी आज सच साबित हो रहे हैं. साफ हुआ है कि बीते दस सालों में देश में लगभग चार करोड़ कामकाजी महिलाओं ने काम छोड़ दिया है. महिलाओं ने ऐसा क्यों किया, इसके कई कारण हैं पर उनके इस निर्णय के कुछ चौंकाने वाले नतीजे भी निकले हैं. जैसे सबसे उल्लेखनीय यह है कि महिलाओं के कामकाजी परिदृश्य से गायब होने का फायदा पुरु ष कर्मचारियों को हुआ है और इससे देश में गरीबी में कमी आई है.
पिछले कुछ वर्षो में गांव और शहरों में मजदूरी की बढ़ती दरों के अध्ययन में पाया गया कि पुरुषों के मुकाबले कम वेतन पर काम करने वाली महिलाओं ने नौकरी छोड़ दी है. महिलाओं की ओर से जब कोई प्रतिस्पर्धा नहीं रही तो इसका पूरा लाभ पुरु ष श्रमिकों ने उठाया. उन्होंने अपनी मजदूरी की दरें बढ़ा दीं. पुरुष श्रमिकों की बढ़ी हुई मजदूरी दरों का उद्घाटन हाल में भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन के एक बयान से हुआ है जो उन्होंने गरीबी की रेखा का आकलन करने वाली तेंडुलकर समिति और दूसरे सर्वेक्षणों का हवाला देते हुए दिया था.
उन्होंने कहा कि 2007 के बाद ग्रामीण क्षेत्रों में मजदूरी की दरें सौ से दो सौ फीसद बढ़ी हैं. उत्तर भारत के गरीब राज्यों- उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान में भी बीते सात-आठ सालों में मजदूरी की दरें 50 से 100 प्रतिशत तक बढ़ी हैं. दरें बढ़ने के कारणों की खोजबीन से पता चला कि इसकी एक बड़ी वजह मनरेगा जैसी रोजगार योजनाएं हैं जिसमें निश्चित राशि अवश्य मिल जाती है. मनरेगा का यह विरोधाभासी पहलू है क्योंकि इसके जैसी सरकारी योजनाओं का असल उद्देश्य महिला श्रमिकों को पुरु षों के बराबर मजदूरी दिलाना था, लेकिन इस मामले में उनका उल्टा ही असर हुआ.
शहरों और गांवों के कामकाजी माहौल में महिलाओं की बढ़ती अनुपस्थिति की वजहें अलग-अलग हैं. गांव-कस्बों में मजदूर वर्ग की महिलाओं ने जिन दो सकारात्मक वजहों से काम करना छोड़ा है, उनमें पहली तो यही है कि मनरेगा की बदौलत उनके घर के पुरु ष सदस्यों की कमाई में बढ़ोत्तरी हुई जिससे महिलाओं को घर छोड़कर काम पर जाने की मजबूरी नहीं रही. पर इससे ज्यादा उल्लेखनीय यह है कि गांव-कस्बों में 15 से 25 आयु वर्ग की महिलाएं अब काम पर जाने की बजाय शिक्षा हासिल करने और अच्छा करियर बनाने पर ज्यादा जोर देने लगी हैं. इसका कारण भी परिवार के पुरुष सदस्यों की मजदूरी या कमाई बढ़ना ही है, पर महिलाओं के नजरिये से यह सार्थक बात है. एक अन्य कारण निश्चित तौर पर महिलाओं के खिलाफ हिंसा और यौन शोषण जैसी घटनाओं का बढ़ना है जिसने चाहते हुए भी महिलाओं को कामकाजी क्षेत्रों से वापस खींचा है.
मौजूदा हालात में हमारे शहरी इलाकों में पुरु षों के मुकाबले महिला श्रमिकों का प्रतिशत केवल 13 है. यह औसत भारत को दुनिया में सबसे कम औसत वाले देश में शामिल कराता है. पर देश में सिर्फ 30 फीसद आबादी ही शहरों में रहती है, इसलिए इस औसत का मतलब यह है कि महिलाएं असल में गांव-कस्बों के कामकाजी माहौल से गायब हो रही हैं.
आज के समय में जैसे-जैसे गरीबों के हाथ में पैसे आ रहे हैं, वे अपनी जीवनशैली में परिवर्तन करते हुए मध्यवर्गीय परिवारों में शामिल होने की कोशिश करते दिख रहे हैं लेकिन साथ ही उन पर ऐसी सामाजिक प्रतिष्ठाओं का दबाव भी बन रहा है जिसमें महिलाओं का बाहर निकलकर काम करना अच्छा नहीं माना जाता. ये बदलाव भविष्य में भारतीय समाज और कामकाजी माहौल पर बड़ा असर डाल सकते हैं, खास तौर से शहरी समाज के संदर्भ में, क्योंकि देश तेजी से शहरीकरण की तरफ बढ़ रहा है. ऐसे में शहरों में कामकाजी महिलाओं की संख्या में तेज गिरावट के नतीजे गंभीर हो सकते हैं. शहरों में इसकी शुरुआत हो चुकी है, वहां अब महिलाएं नौकरीपेशा होने की बजाय घर बैठने को ज्यादा अहमियत देने लगी हैं.
कहने को तो शहरों में पढ़ी-लिखी और प्रशिक्षित महिलाओं की संख्या काफी ज्यादा होती है. वहां उनके लिए अवसरों की भी कमी नहीं है, लेकिन जनगणना के पिछले आंकड़े बताते हैं कि जिन बड़े शहरों में सबसे ज्यादा महिलाएं काम कर रही हैं, वहां का उनका प्रतिशत भी खास आकर्षक नहीं है. जैसे राजधानी दिल्ली में कामकाजी महिलाएं दूसरे बड़े भारतीय शहरों के मुकाबले बहुत कम हैं. इस मामले में बेंगलुरू सबसे आगे बताया जाता है जहां फिलहाल 24.3 फीसद महिलाएं कामकाजी हैं.
19.4 प्रतिशत के साथ चेन्नई दूसरे नंबर पर है. फिर 18.8 फीसद के साथ मुंबई का नंबर आता है. कोलकाता में 17.9 फीसद महिलाएं कामकाजी हैं जबकि दिल्ली में 53.1 फीसद पुरुषों के मुकाबले कामकाजी महिलाएं केवल 10.6 फीसद हैं. अफसोस की बात है कि दिल्ली में पिछले कुछ समय से जो स्त्री विरोधी माहौल बना है, उसने उनकी काम करने की इच्छा खत्म कर दी है. अनेक पढ़ी-लिखी महिलाएं बड़ी कंपनियों में काम के मौके मिलने पर भी काम पर नहीं जाना चाहती हैं.
रोजगार क्षेत्र में महिलाओं की अनुपस्थिति के इस नजारे पर हमारे समाजशास्त्रियों और योजनाकारों की नजर अवश्य जानी चाहिए. क्योंकि कुछ वाणिज्यिक संस्थाओं जैसे क्रिसिल का आकलन है कि अगले पांच-छह वर्षो में देश के एक करोड़ 20 लाख लोग नौकरी छोड़कर जीवन-यापन के लिए खेती की तरफ लौट सकते हैं. इस स्थिति से देश की कृषि व्यवस्था को कोई लाभ होगा- यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता क्योंकि ऐसे लाखों-करोड़ों लोग पारिवारिक बंटवारे के चलते पहले से आकार में छोटे हो गए खेतों पर और दबाव बनाएंगे. इसलिए महिलाओं को रोजगार से जोड़े रखने वाले प्रयास जरूरी हैं.
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