चीन पर यकीन करना थोड़ा मुश्किल

Last Updated 18 Sep 2014 12:45:34 AM IST

चीनी राष्ट्पति शी जिनपिंग की भारत यात्रा से बहुत उम्मीदें हैं.


चीन पर यकीन करना थोड़ा मुश्किल

इस यात्रा से राजनीतिक और सीमा विवाद की बर्फ कितनी पिघलेगी यह तो भविष्य के गर्भ में है, लेकिन चीन भारत में भारी पूंजी निवेश करने के लिए तैयार है. दरअसल, चीन वह सब करने को तैयार है जिसमें उसका फायदा दिखता हो. रही बात सीमा विवाद की तो वह अपनी पुरानी नीति से टस से मस होने को तैयार नहीं है. अन्यथा यह संभव नहीं था कि एक तरह जिनपिंग के आगमन को लेकर पलक पांवड़े बिछाए जाएं और दूसरी तरफ सीमा पर चीनी सैनिकों की घुसपैठ जारी रहे. उसे लद्दाख में नहर तक बनना नहीं सुहा रहा है जबकि वह खुद ब्रह्मपुत्र पर कुंडली मार कर बैठा हुआ है.

यकीनन नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद विदेश मोच्रे पर अब तक जो भी चुनौती झेली है, उनमें जिनपिंग की यात्रा सबसे अहम है. कारण, एक ओर जहां हमें आर्थिक गतिशीलता के लिए चीन का साथ चाहिए, वहीं दूसरी ओर यह तथ्य भी सामने है कि सीमा पर चीन दिनोंदिन मुखर होता जा रहा है. अपने चुनाव अभियान के दौरान मोदी ने चीन को अपनी विस्तारवादी नीति त्यागने को कहा था. भारत-चीन संबंधों के नए आयामों की शुरुआत करने की बात करने वाले शी जिनपिंग ऐसा करेंगे, इसमें संदेह है. हम तो इधर जैसा देख रहे हैं उससे यही लगता है कि भारत के प्रति चीन का रुख निरंतर कड़ा होता जा रहा है. ऐसा लगने के पीछे हिमालयी रीजन में चीनी सेना ‘पीपुल्स लिबरेशन आर्मी’ द्वारा नियमित रूप से आक्रामक गश्त लगाना, दोनों विशाल देशों को अलग करने वाली नियंत्रण रेखा का उल्लंघन करने की बढ़ती घटनाएं, हमारे पूर्वोत्तर राज्य अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा जताना और सरकारी नियंत्रण वाले चीनी मीडिया में भारत के खिलाफ हमलावर रुख अपनाना शामिल है.

हालांकि भारत-चीन को जो मुद्दा बांटता है वह सीमा विवाद से आगे का है. हमारे बीच पानी मुख्य सुरक्षा मुद्दे के तौर पर उभर रहा है. यह दोनों देशों के बीच विवाद का एक बड़ा कारण बना हुआ है. ऐसा इसलिए हो रहा है कि गंगा को छोड़कर एशिया की तमाम बड़ी नदियों का उद्गम चीनी नियंत्रण वाले तिब्बती क्षेत्र में है. यहां तक कि गंगा की दो प्रमुख सहायक नदियां भी यहीं से होकर आती हैं. खतरनाक बात यह है कि चीन तिब्बत क्षेत्र से अन्य नदियों कोजोड़ने की बड़ी परियोजनाओं पर काम कर रहा है. इससे इस क्षेत्र से निकलने वाली नदियों का पानी भारत नहीं पहुंच पाएगा. हमें चाहिए कि जिनपिंग की यात्रा के दौरान इन मुद्दों पर ज्यादा फोकस करें, बजाय आर्थिक मुद्दों के. आर्थिक मुद्दों पर कभी भी समझौता हो सकता है. असल बात तो उन मामलों की है जो काफी पहले से चले आ रहे हैं.

फिर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अगर विदेशी निवेश हमारी जरूरत है तो इसके कई विकल्प मौजूद हैं. एशिया में जापान इसका सबसे बेहतर विकल्प है. वह समान विचारधारा वाली विश्व की एक बड़ी आर्थिक शक्ति है. भारत-चीन-जापान एशिया के सामरिक त्रिकोण का निर्माण करते हैं. त्रिकोण की एक भुजा भारत है, दूसरी चीन और तीसरी जापान. देखा जाए तो त्रिकोण की दो भुजाएं भारत और जापान मिलकर हमेशा चीन पर भारी पड़ती हैं, फिर चाहे बात सैन्य संबंधी हो या आर्थिक संबंधी. यही तर्क और संभावना भारत-जापान को जहां एक-दूसरे से करीब ला रही है, वहीं चीन की पेशानी पर चिंता की लकीरें बढ़ा रही है.

चीनी मीडिया और वहां के कूटनीतिक जानकारों ने जिनपिंग की यात्रा के पहले हुई नरेंद्र मोदी की जापान यात्रा को काफी तवज्जो दी और यह संबंध किसी तरह चीन पर भारी न पड़े इसके लिए अंदरखाने खास रणनीति तैयार की गई. गौर करने वाली बात है कि चीन और जापान के रिश्ते भी उतने ही तल्ख हैं जितने भारत-चीन के. चीन जानता है कि भारत-जापान की साझेदारी ज्यादा स्वाभाविक है. चीन यह भी जान रहा है कि इसी महीने के अंत तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका की यात्रा पर जाने वाले हैं. यकीनन वहां भी कई अहम समझौते होंगे. समझौतों की दुनिया में चीन कहीं न छूट जाए, यह उसकी सबसे बड़ी चिंता है. चीन यह भी जानता है कि भारत पर अमेरिकी प्रभाव लगातार बढ़ा है. जापान पर तो अमेरिका का प्रभाव है ही. ऐसे में अमेरिका के साथ मुकाबला करने में बगैर भारत के साथ अच्छे संबंध बनाए वह पीछे छूट जाएगा. चीन आज तक अमेरिका के पड़ोसी देशों में घुसपैठ नहीं कर पाया है.

संबंधों को लेकर एक और पहलू है. रूस इधर लगातार चीन के करीब आ रहा है. वह चाहता है कि भारत-चीन संबंध बेहतर रहें तभी उसकी वैश्विक धाक बन सकती है. खैर मोदी जी इन चीजों से गहराई से वाकिफ हैं. विदेश नीति के मोच्रे पर वे शुरुआती महीनों में ही अपनी विशिष्ट छाप छोड़ चुके हैं. एक ओर उन्होंने अपने शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को न्यौता दिया, तो दूसरी ओर अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए एक छोटे से पड़ोसी देश भूटान को चुन कर यह दिखाया कि वे सभी को साथ लेकरचलना चाहते हैं. लेकिन साथ-साथ कश्मीर के अलगाववादी नेताओं के साथ पाकिस्तान उच्चायुक्त की बातचीत के बाद भारत-पाक वार्ता को स्थगित कर यह कड़ा संदेश भी दिया कि हमारी सदाशयता को कमजोरी न समझा जाए.

अब तक मोदी की विदेश नीति को देखकर यही लगता है कि पहले शी जिनपिंग और फिर बराक ओबामा के साथ होने वाली वार्ता में वे ढीले साबित नहीं होंगे. रही बात चीन की तो वार्ताओं के लंबे दौर के बाद भी ‘हिंदी चीनी भाई-भाई’ की भावना को आधार बनाकर आगे बढ़ना मुश्किल है. हां, हमें सकारात्मक होकर कदम बढ़ाते रहना चाहिए, यह याद रख कर कि चीन की बातों पर यकीन न करने की नीति कई देशों की विदेश नीति का आधार-सा बन गई है. हालांकि दोनों देशों में पूरा माद्दा है कि वे कल के दो ध्रुवीय विश्व के दो केंद्र बन जाएं. लेकिन ऐसा होने पर भी दोनों के बीच वैसे संबंध नहीं हो सकते जैसे अमेरिका और कनाडा के बीच हैं या जैसे अमेरिका और मेक्सिको के बीच हैं. बल्कि दोनों के बीच टकराहट में और बढ़ोत्तरी होने की आशंका है.

दरअसल, चीन विश्व के सबसे अधिक आक्रामक देशों में है. लगभग सारे पड़ोसी देशों के साथ उसके सीमा विवाद रहे हैं. आर्थिक संबंधों की बात करें तो भारत और चीन, दोनों देशों का द्विपक्षीय व्यापार 75 अरब डॉलर के करीब है. यहां समस्या यह है कि चीन हमारे लिए तो नंबर वन का साझीदार है, लेकिन हमारी अहमियत उसके लिए नंबर दस तक की भी नहीं है. जब से भारत ने अमेरिका को अपना सामरिक साझीदार घोषित किया है, चीन को यह चिंता सताने लगी है कि भारत उसकी घेराबंदी में अमेरिका का साथ देने को लालायित है. जाहिर है कि भारत को अपनी स्थिति साफ कर देनी चाहिए कि ऐसा नहीं है. वह ऐसा तभी करेगा जब चीन अपनी हरकतों से उसे बाध्य कर दे और जब तक वह अपनी विश्वसनीयता पूरी तरह खो न दे. ऐसे में हम भी चीन की घेराबंदी में कोई कसर नहीं छोड़ने वाले हैं.

(लेखक सामरिक और विदेशी मामलों के जानकार हैं)

ब्रह्म चेलानी
लेखक


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