अशक्तों के सशक्तिकरण का दायित्व

Last Updated 17 Sep 2014 01:10:09 AM IST

सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में केन्द्र सरकार को आदेश दिया है कि भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) समेत सरकारी नौकरियों में शारीरिक रूप से अशक्त लोगों को तीन फीसद आरक्षण दिया जाए.


अशक्तों के सशक्तिकरण का दायित्व

अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि यह व्यवस्था नियुक्ति और प्रोन्नति दोनों में लागू होगी.  ‘अशक्त जन (समान अवसर, अधिकारों के संरक्षण और पूर्ण भागीदारी) अधिनियम-1995’ में साफ-साफ प्रावधान है कि शारीरिक रूप से अक्षमों को समान अवसर, अधिकारों की रक्षा और समाज में पूरी भागीदारी के लिए सरकार अतिरिक्त मौके प्रदान करेगी. लेकिन हकीकत इसके उलट है.

यही वजह है कि अदालत को एक बार फिर सरकार को यह बात याद दिलाना पड़ी कि वह अपने दायित्वों का ठीक से निर्वहन करे. सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद अब अशक्तों को सरकारी नौकरियों में ‘ए’, ‘बी’, ‘सी’ और ‘डी’ ग्रुपों में नियुक्ति-प्रोन्नति में तीन फीसद आरक्षण का फायदा मिलेगा. फैसले से उनका सशक्तिकरण मुमकिन होगा जो शारीरिक रूप से पूरी तरह सक्षम नहीं हैं और विकास की दौड़ में पीछे रह गए हैं.

मुंबई हाईकोर्ट ने बीते साल दिसम्बर में ‘नेशनल कंफेडरेशन फॉर डेवलपमेंट ऑफ डिसेबल्ड’ नामक संस्था की याचिका पर केंद्र सरकार को ‘ए’ ‘बी’ ग्रुप के कर्मचारियों को प्रत्यक्ष भर्तियों तथा प्रोन्नति में विकलांग कोटे का तीन फीसद आरक्षण देने का आदेश दिया था.

केंद्र ने इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में यह दलील देकर चुनौती दी कि सरकार सीधी भर्ती में विकलांग कोटे का आरक्षण देती है लेकिन हाईकोर्ट का प्रोन्नति में भी आरक्षण देने का आदेश ठीक नहीं है. ऐसा करने से लाभार्थी वरिष्ठता क्रम में आगे आ जाएंगे और बाकियों के हित प्रभावित होंगे. बहरहाल इस मामले में पूरी सुनवाई के बाद अदालत ने केंद्र सरकार की याचिका खारिज कर दी.

मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा की अध्यक्षता वाली पीठ ने प्रोन्नति में आरक्षण का विरोध कर रही सरकार पर नाराजगी जताते हुए कहा कि नियुक्ति व्यापक सिद्धांत है और केंद्र इसकी संकीर्ण व्याख्या कर रहा है. पीठ ने आगे कहा कि आप आरक्षण की नीति और उस वर्ग के मकसद को ही निष्फल बना रहे हैं, जिसके लिए संसद ने कानून बनाया था. पिछले 19 वषों से यह प्रभावी ढंग से लागू नहीं हुआ है. जिन्हें इसका लाभ मिलना चाहिए उन्हें नहीं मिला. संसद ने कहा है कि आरक्षण दो, तो उसे संपूर्णता के साथ लागू करो. सीधी भर्ती में भी और प्रोन्नति में भी.

संविधान में कहने को सभी नागरिकों को समानता की गारंटी दी गई है लेकिन हकीकत इसके उलट है. विकलांगों को सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक वजह से समाज में भेदभाव और उपेक्षा का सामना करना पड़ता है. यही वजह है कि शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों को समान अवसर, अधिकारों की रक्षा और समाज में पूरी भागीदारी प्रदान करने के लिए सरकार ने 1995 में ‘अशक्त जन (समान अवसर, अधिकारों के संरक्षण और पूर्ण भागीदारी) अधिनियम’ बनाया. लेकिन यह कानून भी उनकी भागीदारी बढ़ाने में मददगार साबित नहीं हुआ. सरकार और आम लोगों का विकलांगजनों के प्रति जारी रवैये में कोई बदलाव नहीं आया. संबंधित कानून के अमल में काफी कोताही बरती जाती रही है.

ज्यादातर जगहों पर विकलांगजनों को आरक्षण की सुविधा मिली ही नहीं. मॉनीटरिंग के अभाव में उन्हें जो फायदा मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला. कानूनी प्रावधान के बाद भी केंद्र और राज्य सरकारें, शारीरिक रूप से अक्षमों को पूरी तरह आरक्षण प्रदान करने में नाकाम रही हैं. उन्हें सरकारी पदों पर भर्ती प्रक्रिया से ही बाहर रखा गया है. कुछ लाख विकलांग ही सरकारी नौकरी पा सके हैं.

विकलांगजन जब सब तरफ से हार गए, तो अपने अधिकारों की रक्षा के लिए उन्होंने न्यायपालिका में गुहार लगाई. एक सामाजिक संगठन ‘नेशनल फेडरेशन ऑफ द ब्लाइंड’ ने पिछले साल मुंबई हाईकोर्ट में याचिका पेश करते हुए केंद्र और राज्य सरकारों पर आरोप लगाया कि सरकारें, अक्षमों को आरक्षण प्रदान करने में नाकाम रही हैं और फैसला उनके हक में हुआ.

अदालत ने अपने इस फैसले में उस वक्त केंद्र और सभी राज्य सरकारों को निर्देश दिया कि अपने-अपने यहां सरकारी विभागों, कंपनियों-संस्थानों में अशक्तजनों को नौकरियों में तीन फीसद आरक्षण मुहैया कराने का बंदोबस्त करें. अदालत ने अपने फैसले में एक और महत्वपूर्ण बात कही कि अशक्तजनों को आरक्षण देते वक्त 50 फीसद से अधिक आरक्षण न दिए जाने का सिद्धांत लागू न किया जाए.

अदालत का इस बारे में कहना था कि अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्ग का आरक्षण सामाजिक आधार पर दिया गया हैं, जबकि विकलांग कोटे में सभी जातियों के लोग आते हैं. लिहाजा विकलांग कोटे को सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर दिए जाने वाले आरक्षण से अलग रखा जाना चाहिए. जाहिर है, विकलांगों को मुख्य धारा में लाने के लिए अदालत का यह ऐतिहासिक फैसला था, पर सरकार को रास नहीं आया. वह फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई, जहां उसे हार का मुंह देखना पड़ा.

अशक्तजनों के सशक्तिकरण और उनके समाज में समावेश के लिए रोजगार महत्वपूर्ण कारक है. जो उनके और उनके परिवार के जीवनयापन के लिए जरूरी है. यही नहीं, एक बड़ी आबादी जो अपनी विकलांगता की वजह से देश के आर्थिक विकास में कोई योगदान नहीं दे पा रही थी, उसकी भी इसमें भागीदारी बढ़ेगी. पर विकलांगजन रोजगार, नौकरियों से ही दूर हैं.

हमारे कथित सभ्य समाज की खतरनाक हकीकत यह है कि अशक्त लोग नौकरियों से दूर हैं, इसलिए नहीं कि उनकी विकलांगता उनके कामकाज में आड़े आती है, बल्कि सामाजिक और व्यावहारिक बाधाएं उन्हें कार्यशक्ति में शामिल करने से रोकती हैं. अपने समाज में हम आए दिन अनुभव करते रहते हैं कि समाज के गलत और अमानवीय रवैए की वजह से अनेक अशक्त लोग गरीबी और दयनीय स्थिति में रहते हैं.

उन्हें उनके अपने जीवन, परिवार और समुदाय के जीवन में उपयोगी योगदान के अधिकार से वंचित किया जाता है. विकलांगता शारीरिक रूप से लोगों से उतना नहीं छीनती, जितना सामाजिक और मनोवैज्ञानिक रूप से वह उन्हें प्रभावित करती है. जाहिर है, समाज में इस तरह की परिस्थितियां बदलनी चाहिए. बहरहाल, सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फैसले से देश के चार करोड़ विकलांगों को फायदा पहुंचेगा, जो आबादी का एक बड़ा हिस्सा है.

जाहिद खान
लेखक


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