एशियाई खेलों में हमारी हैसियत

Last Updated 16 Sep 2014 01:34:21 AM IST

दक्षिण एशिया के इंचियोन में दो दिन बाद सत्रहवें एशियाई खेलों का शुभारंभ होने जा रहा है लेकिन हमारे मीडिया में चर्चा खेल और खिलाड़ियों पर नहीं, बल्कि खेल पदाधिकारियों पर केन्द्रित है.


एशियाई खेलों में हमारी हैसियत

यह नहीं बताया जा रहा है कि किस स्पर्धा में भारत कितने पदक जीत सकता है बल्कि बहस पदाधिकारियों के टिकट पर हो रही है. खेल और खिलाड़ी पृष्ठभूमि में धकेल दिये गये हैं. खेल प्रेमी दु:खी हैं, विवश हैं. ऐसे में हमारे खेल संगठनों की राजनीति का कुरूप चेहरा एक बार फिर जनता के सामने उघड़ गया है.

अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं के मामले में मोदी सरकार ने तय किया है कि उन्हीं खेल प्रतियोगिताओं में भारतीय दल भेजने की अनुमति दी जाएगी जिनमें पदक पाने की संभावना होगी. केवल अनुभव अर्जित करने या महज भाग लेने की आड़ में मौज-मस्ती  का माहौल अब नहीं चलेगा. यही नहीं, यदि कोई खेल संघ अपने खच्रे पर भी कमजोर खिलाड़ी या दल भेजना चाहेगा तो अनुमति नहीं दी जाएगी. बेशक यह फैसला कड़वा और कठोर है किन्तु उचित है.

ओलंपिक, एशियाड, राष्ट्रमंडल खेलों या किसी भी अन्य अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में एथलीट भेजने का रिश्ता सिर्फ खच्रे से नहीं जुड़ा होता. हर टीम व खिलाड़ी के साथ राष्ट्र की प्रतिष्ठा चस्पा होती है. जब कोई टीम विदेश जाती है और रीते हाथ लौटती है तो निश्चय ही देश के सम्मान को ठेस पहुंचती है. लेकिन हमारे खेल संगठनों की सूची में शायद मुल्क की इज्जत जैसा शब्द नहीं है. इसीलिए विदेश में होने वाली हर छोटी-बड़ी प्रतियोगिता के लिए वह टीम भेजने की अनुमति मांगते दिखते हैं और अनुमति के साथ-साथ खर्चा भी मांगते हैं. 19 सितम्बर से 4 अक्टूबर तक आयोजित होने वाले एशियाड के लिए भी भारतीय दल भेजने पर यही रवैया देखने को मिला है.

मौजूदा स्पोर्टस कोड की धारा 10.5 के अनुसार किसी भी अन्तरराष्ट्रीय खेल टूर्नामेंट में भाग लेने के लिए सरकारी इजाजत लेना जरूरी है. भारतीय ओलंपिक संघ (आईओए) का तर्क है कि अनुमति लेना आवश्यक तो है लेकिन कोड में यह कहीं नहीं लिखा है कि सरकार को  इजाजत से इंकार करने का हक है. यदि सरकार इंकार करती है तो इसे खेल संघों के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप माना जाएगा और सरकारी हस्तक्षेप ओलंपिक चार्टर की भावना का उल्लंघन होता है. मतलब आईओसी टीम की जो सूची सौंपे, सरकार का काम उस पर मोहर लगाने भर का है. कतर-ब्यौंत का उसे कोई हक नहीं होता.

गौरतलब है कि इंचियोन एशियाड की 36 में से 35 प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए आईओए ने 933 सदस्यीय दल की फेहरिस्त सरकार को सौंपी थी. इस सूची में 625 एथलीटों और 280 अधिकारियों के नाम शामिल थे. खेल मंत्रालय ने महज 403 एथलीटों के नाम पर मोहर लगाई लेकिन खेल संगठनों के प्रभावशाली पदाधिकारियों ने दबाव बना मंत्रालय की नाक में दम कर दिया. मजबूर हो खेल मंत्री सर्वानंद सोनोवाल को प्रधानमंत्री कार्यालय की शरण लेनी पड़ी. पीएओ ने ढिलाई बरतते हुए 516 एथलीट और 163 पदाधिकारियों को अनुमति दे दी. इस फैसले से फुटबॉल, वॉलीबाल, हैंडबाल टीमों की जैसे लॉटरी लग गई.

चीन में चार वर्ष पहले हुए एशियाई खेलों में भारत का 933 सदस्यीय दल गया था जिसमें 625 एथलीट थे. तब 14 स्वर्ण पदक सहित देश को कुल 65 मैडल मिले. पदक-तालिका में हमारे देश का स्थान छठा रहा. इस उपलब्धि पर आईओए ने जमकर अपनी पीठ ठोकी थी लेकिन गंभीरता से विश्लेषण करें तो नजारा दुखद दिखता है. चीन गए दल के कुल सदस्यों की संख्या की तुलना प्राप्त पदकों से की जाए तो पता चलता है कि 14.3 सदस्यों के पल्ले एक पदक आया. स्वर्ण पदक की बात करें तो 66.6 सदस्य भेज देश ने सोने का महज एक तमगा हासिल किया था. यह बहुत दयनीय उपलब्धि है. अन्य देशों के दलों की संख्या और अर्जित पदकों से तुलना से अपनी खामी का एहसास और गहरा हो जाता है.

आज अन्तरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में छोटे-छोटे देश भारत से मीलों आगे दिखते हैं. ताजा उदाहरण ग्लास्गो राष्ट्रमंडल खेलों का है. पिछले माह संपन्न इन खेलों में कुल 64 पदकों के साथ भारत ने पांचवां स्थान पाया. हमसे ऊपर ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, कनाडा व स्काटलैंड थे. इन चारों देशों की संयुक्त आबादी भारत का दसवां हिस्सा भी नहीं है. फिर भी वे पदक के मामले में हमसे कहीं बेहतर रहे. दरअसल वहां खेल संगठन पेशेवर हैं. यदि टीम अच्छा प्रदर्शन नहीं करती तो खिलाड़ियों के साथ ही खेल संगठनों के पदाधिकारियों के खिलाफ भी कार्रवाई होती है. दूसरी तरफ हिन्दुस्तान में बार-बार नाकामयाबी के बावजूद खेल संगठनों के आकाओं का बाल-बांका नहीं होता.

जवाबदेही के बिना उम्दा प्रदर्शन की उम्मीद कैसे की जा सकती है ?
भारत में अधिसंख्य खेल संगठनों के शीर्ष पदों पर ताकतवर नेताओं और नौकरशाहों का कब्जा है. वे सरकार के फैसले पलटने की ताकत रखते हैं. खेल मंत्रालय के मौजूदा मापदंड के अनुसार एशिया की किसी प्रतियोगिता में यदि भारतीय टीम का स्थान प्रथम आठ में तथा व्यक्तिगत स्पर्धा में पहले छह में है, तभी उन्हें एशियाड में भाग लेने की अनुमति दी जानी चाहिए. हमेशा की तरह इस बार भी इस मापदंड की अनदेखी की गई. आज फुटबॉल में दुनिया तो क्या एशिया में भी हमारी कोई पूछ नहीं है.

फिर भी इंचियोन के लिए फुटबॉल टीमें भेजने की अनुमति दे दी गई. भारतीय फुटबॉल महासंघ के अध्यक्ष प्रफुल्ल पटेल की लॉबिंग की बदौलत पुरुष ही नहीं, महिला टीम को भी हरी झंडी मिल गई. भारत ने 1962 के एशियाई खेलों में अन्तिम बार फुटबॉल का स्वर्ण पदक जीता था. फिलहाल दोनों टीमों से कोई उम्मीद बेमानी है. इसके बावजूद उन्हें भेजा जा रहा है. देश के सम्मान से जुड़ा मोदी सरकार का फरमान शायद फुटबॉल पर लागू नहीं होता है. ऐसे ही कुछ अन्य खेलों को भी यह रियायत दी गई है.

खेलों की दुनिया में तमाम देशों का साल दर साल प्रदर्शन बेहतर हो रहा है. निश्चय ही भारतीय खिलाड़ियों का हुनर भी निखरा है. 1990 के बीजिंग एशियाड में हम 11 वें स्थान पर थे. उसके बाद पिछले पांच खेलों में भारत प्रथम दस देशों में रहा. पिछली बार हम छठे नम्बर पर पहुंच गये किन्तु इस उपलब्धि पर ताली बजाने से पहले चीन का जलवा जान लेना जरूरी है. भारत व चीन को लगभग एक साथ आजादी मिली थी और उस वक्त दोनों देशों की माली हालत खस्ता थी.

आबादी के लिहाज से चीन और भारत दुनिया के क्रमश: नम्बर एक और दो देश हैं. दोनों आज दुनिया की उभरती आर्थिक शक्ति हैं, इसके बावजूद खेल जगत में हम कंगाली के कगार पर हैं. इसी कारण ओलंपिक में चंद पदक मिलने पर ताली पीटने लगते हैं. एशियाड में छठा स्थान पाने पर पीठ ठोकते हैं. दूसरी तरफ चीन एशिया ही नहीं, विश्व की खेल महाशक्ति है. वह ओलंपिक की पदक तालिका में अव्वल आने की होड़ के साथ अमेरिका को कड़ी चुनौती देता है. एशियाई खेलों में तो कोई देश उसके आसपास भी नहीं ठहर पाता है. भारत व चीन के बीच की खाई को एक आंकड़े से बेहतर समझा जा सकता है. पिछले एशियाड में चीन ने 199 स्वर्ण पदक जीते थे जबकि हमें मिले थे महज चौदह.

अन्तरराष्ट्रीय खेलों में टीम उतारने के मामले में हमें चीन से सीखना चाहिए. कुछ दशक पहले तक इसकी टीम या खिलाड़ी किसी विश्व खेल प्रतियोगिता में भाग  नहीं लेते थे. चीन ने पूरी तैयारी के बाद ही अपने एथलीट बाहर भेजने शुरू किये, खेल संगठन मजबूत बनाये, देश में खेल सुविधाओं का विकास किया. इसके बाद देखते-देखते चीन के खिलाड़ी विश्व मंच पर छा गए. आज चीन दुनिया की बड़ी खेल ताकतों में एक है. खेल उसके सम्मान का प्रतीक हैं. काश हम भी चीन का मॉडल अपना पाते. उनका मॉडल अपना लें तो अयोग्य टीम बाहर भेजने को लेकर होने वाली बहस सदा के लिए समाप्त हो जाएगी.

धर्मेन्द्रपाल सिंह
लेखक


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment