भारत-जापान रिश्तों का नया मुकाम

Last Updated 03 Sep 2014 12:36:31 AM IST

एक पुराने फिल्मी गीत के बोल हैं- ‘जाना था जापान पहुंच गए चीन समझ गए ना!’


भारत-जापान रिश्तों का नया मुकाम

पर जहां तक मोदी की जापान यात्रा का सवाल है तो किसी को भ्रम नहीं होना चाहिए कि उनकी मंजिल गीत के बोल की तर्ज कहीं और थी. उन्हें जापान ही जाना था और वह जापान ही पहुंचे. वह बहुत पहले ऐलान कर चुके थे कि पड़ोस के बाहर उनकी सबसे पहली विदेश यात्रा जापान की होगी. इस मित्र देश का चुनाव बहुत सोच-समझ कर किया गया था.

कभी आर्थिक महाशक्ति समझा जाने वाला जापान ऐतिहासिक दृष्टि से विश्व राजनीति में आज भी कम महत्वपूर्ण नहीं. उसकी अर्थव्यवस्था इस घड़ी भी संसार की सबसे बड़ी-समर्थ अर्थव्यवस्थाओं में गिनी जाती है. उसकी टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में क्षमता किसी भी विकसित देश से कम नहीं. परमाणविक ऊर्जा हो, रॉकेट विज्ञान या इलेक्ट्रोनिक उपकरण अथवा बुलेट ट्रेन और मोटरगाड़ियां, जापान कीर्तिमान स्थापित करता रहा है. इसी के साथ यह बात जोड़ी जानी चाहिए कि पारंपरिक रूप से भारत के संबंध जापान के साथ मधुर और तनाव रहित रहे हैं. दोनों देशों के बीच कोई विवाद नहीं- सिर्फ परमाणविक ऊर्जा के मुद्दे पर मतभेद हैं, परमाणविक अस्त्र अप्रसार को लेकर. इस संदर्भ में भी अमेरिका के साथ परमाणविक करार पर हस्ताक्षर होने के बाद से सहयोग की संभावना बढ़ती नजर आती रही है.

जापान में सदा से भारत के लिए स्नेह और सद्भाव रहा है. द्वितीय विश्वयुद्ध में पराजय के बाद जब उसे सर्वत्र तिरस्कार का सामना करना पड़ रहा था और युद्ध अपराधी के रूप में कटघरे में खड़ा किया जा रहा था, तब भारत के न्यायमूर्ति राधा बिनोद पाल ने टोक्यो ट्राइब्यूनल में बहुमत से असहमत होते हुए अपना फैसला उसके पक्ष में सुनाया था. पश्चिमी देश जापान को आक्रामक सैनिक-साम्राज्यवादी करार देने को उतावले थे, परंतु भारत के लिए वह देश नेताजी सुभाष चंद्र बोस को शरण-समर्थन देने वाला मित्र ही लगता रहा है. हमारी यादें ताजा हैं, ‘आजाद हिंद फौज’ के पराक्रम की जिसके गठन में जापान का सहयोग निर्णायक महत्व का रहा है.

शीत युद्ध के दौर में जापान अमेरिका की सैनिक छतछ्राया तले रहने को मजबूर हुआ और इसी कारण गुटनिरपेक्ष भारत के साथ उसका सहयोग सहज संभव नहीं था. इसके बावजूद बौद्ध धर्म की जन्मभूमि होने के कारण अधिसंख्य जापानियों के लिए भारत तीर्थ स्थान रहा है- ओडिशा, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश में स्थित बुद्ध से संबद्ध अनेक ऐतिहासिक स्थलों का जीर्णोद्धार या वहां नए शांति स्तूपों का निर्माण जापान ने ही किया है. मोदी के लिए इस पारंपरिक नाते को मजबूत कर 21वीं सदी की चुनौतियों का सामना करने के लिए उभयपक्षी साझेदारी की जमीन तैयार करना एक बेहतरीन राजनयिक विकल्प है.

इस वक्त यह बात सुझाई जा रही है कि असली निशाना चीन है. एशिया में उसके निरंतर बढ़ते आक्रामक विस्तारवादी तेवर देखते उसे संतुलित करने के लिए यह नई सामरिक रिश्तेदारी तराशी जा रही है. हमारी समझ में यह विश्लेषण पूरी तरह ठीक नहीं. यह सच है कि सेनकाकू द्वीप समूह को लेकर जापान और चीन के बीच काफी तनाव है और मुठभेड़ों तक की आशंका होती रहती है, पर भारत-जापान की दूरदर्शी ‘सामरिक नातेदारी’ को सैनिक गठबंधन का पर्याय समझना नादानी है. चीन के साथ भारत का सीमा विवाद पुराना नासूर है और हाल के दिनों में हिमालयी क्षेत्र में चीनी घुसपैठ चिंताजनक रूप से बढ़ी है, पर यह भी नहीं भुलाया जा सकता है कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में चीन ही हमारा अव्वल नंबर का साझीदार है. चीन को जापान की मदद से भी संतुलित करना घातक राजनयिक दुस्साहस ही समझा जा सकता है.

वास्तव में यह सामरिक साझेदारी आर्थिक और तकनीकी संदर्भ में ही संवारी जा रही है और कम महत्वपूर्ण नहीं. एक जमाना था जब जापानी ट्रांजिस्टर रेडियो, कैसट प्लेयर, टेलीविजन, कैमरे, कंप्यूटर, कारें आदि सवरेत्कृष्ट समझे जाते थे. आज भारत में ही नहीं दुनिया भर में कोरियाई और चीनी उत्पाद इन्हें पछाड़ते दिखाई दे रहे हैं. गुणवत्ता में 19-20 का फर्क भले हो, पर महंगे श्रम और पुरातनपंथी अर्थव्यवस्था के कारण यह प्रतियोगी नहीं रह गए. जापान की मौजूदा सरकार को इस बात की फिक्र है कि कैसे वह अपना गंवाया पहला स्थान फिर से हासिल करे. भारत इस संदर्भ में निर्णायक भूमिका निभा सकता है. मारुति-सुजुकी हो या हीरो-होंडा, संयुक्त उपक्रम के परे यह दोनों कंपनियां आज सक्रिय हैं.

भारतीय संयंत्रों में निर्मिंत उत्पाद दक्षिण पूर्व एशिया, पश्चिम एशिया, अफ्रीका, यूरोप तथा दक्षिणी अमेरिकी महाद्वीप तक में जापानी पहुंच बढ़ा सकते हैं. कुछ ही वर्ष पहले एक जापानी कंपनी ने रैनबेक्सी नामक औषधि उत्पादक कंपनी को खरीदा था. बाद में यह सौदा कुछ कारणों से विवादास्पद बना. पर महत्वपूर्ण बात यह समझना है कि भारत तथा जापान के बीच सहकार का क्षेत्र बहुत व्यापक है- खनिज अयस्क से लेकर गैर पारंपरिक ऊर्जा तक, आधुनिकतम टेक्नोलॉजी- आईटी-बीटी, परमाणु ऊर्जा से लेकर कंप्यूटरों और उपभोक्ता घरेलू उपकरणों तक. आधारभूत ढांचे के निर्माण और चकित कर देने वाले चतुर नगरों को बसाने और पर्यावरण संरक्षण के संदर्भ में भी जापानी मौलिक सोच और उपलब्धियां उल्लेखनीय हैं. सरकारों के बीच ही नहीं, निजी क्षेत्र के उद्यमियों के बीच भी परस्पर सार्थक सहकार की बहुत गुंजाइश है.

काफी अरसे से भारत में ‘पूरब की ओर देखने’ वाली विदेश नीति की चर्चा होती रही है, पर इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया. इस वक्त नरेंद्र मोदी ने अपनी जापान वाली विदेश यात्रा से यह पहल की है. इस बात की अनदेखी करना कठिन है कि जापान ने भारत को अगले पांच वर्ष में दी जानी वाली आर्थिक सहायता को लगभग पांच गुना बढ़ाने का ऐलान किया है. इसके बाद भारत द्वारा प्राप्त कुल ऐसी विदेशी सहायता का तकरीबन एक चौथाई हिस्सा जापान से प्राप्त होगा. जाहिर है कि जिन क्षेत्रों में इस पूंजी का निवेश होगा, वह रफ्तार पकड़ेंगे और जापानी तकनीक तथा प्रबंध कौशल का लाभ भी भारत उठा सकेगा. इसके मात्र एक उदाहरण का जिक्र यहां काफी रहेगा.

दिल्ली-मुंबई गलियारे की महत्वाकांक्षी परियोजना कई साल से चर्चित है. एक बार इसके गतिशील होते ही उन सभी राज्यों का कायाकल्प नाटकीय तरीके से होगा जहां से यह गलियारा गुजरता है. पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने ‘पूर्वा’ नामक जिस विकल्प को सुझाया है  (जिसके तहत ऐसे शहरी सुविधासंपन्न गांवों-कस्बों को प्राथमिकता देने की बात है जहां बेहतर जिंदगी की सुविधाएं सुलभ होने के साथ स्थानीय रोजगार पनप सकेगा और खाद्य-ऊर्जा सुरक्षा निरापद रह सकेगी) उसका अद्भुत संगम इस परियोजना के साथ हो सकता है. कुल मिला कर मोदी की जापान यात्रा को एक बड़ी सफलता का श्रेय मिलना चाहिए.

(लेखक अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं)

पुष्पेश पंत
लेखक


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