अस्थिरता के भंवर में फंसा अफगानिस्तान

Last Updated 02 Sep 2014 12:30:19 AM IST

अफगानिस्तान में राष्ट्रपति के चुनाव में कथित धांधली से उपजे विवाद ने अफगानिस्तान को पूरी तरह असुरक्षित देश बना दिया है.


अस्थिरता के भंवर में फंसा अफगानिस्तान

इन दिनों अफगान सरकार राष्ट्रपति के चुनाव से जुड़े विवाद दूर करने में जुटी हुई है जबकि दूसरी तरफ तालिबान को सहज ही छूट मिल गई है. नतीजतन तालिबान आतंकियों ने अफगान सेना के लिए चुनौतियां बढ़ा दी हैं. अफगानिस्तान जहां 13 साल बाद सैन्य रूप से अपनी सेना पर निर्भर होने जा रहा है, वहीं तालिबान ने संगठित हमले शुरू करते हुए कई इलाकों पर कब्जा कर लिया है.

अफगानिस्तान में पहले दौर का चुनाव 5 अप्रैल को हुआ था. राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार अब्दुल्ला अब्दुल्ला को 45 प्रतिशत और दूसरे उम्मीदवार अशरफ गनी को 32 प्रतिशत मत मिले थे. दूसरे दौर के चुनाव की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि अफगान संविधान के अनुसार किसी भी उम्मीदवार को जीत जाने के लिए 50 प्रतिशत से अधिक वोट पाना जरूरी है, अन्यथा दूसरे दौर का चुनाव होता है. इसलिए 14 जून को दूसरे दौर का चुनाव संपन्न हुआ. मतदान में भारी वृद्धि हुई. अशरफ गनी को 56 प्रतिशत मत हासिल हुए जबकि अब्दुल्ला अब्दुल्ला को 43 प्रतिशत मत मिले. इस बार लगभग 10 लाख वोटों की वृद्धि हुई. नतीजों के आधार पर अशरफ गनी विजय हुए. लेकिन अब्दुल्ला-अब्दुल्ला ने पराजय स्वीकार नहीं की. उन्होंने आरोप लगाया कि राष्ट्रपति हामिद करजई और अशरफ गनी की मिलीभगत से उन्हें दूसरे नंबर पर दिखाया गया है. ऐसे में अमेरिकी विदेश मंत्री जान कैरी को काबुल पहुंचकर बीच-बचाव करना पड़ा. 80 लाख वोटों की जांच पड़ताल की शर्त पर दोनों में रजामंदी बन गई लेकिन गिनती के दौरान दोनों उम्मीदवारों के बीच फिर मतभेद पैदा हो गए और कई बार गिनती को बीच में रोकना पड़ा.
इस संकट के हल के लिए जान कैरी को सात अगस्त को एक बार फिर काबुल आना पड़ा और उन्होंने दोनों के बीच आठ अगस्त को सत्ता में साझेदारी का समझौता करा दिया. समझौता शतरे के तहत दूसरे नंबर पर आने वाले उम्मीदवार को नये पद चीफ एक्जीक्यूटीव के तौर पर तैनात किया जाएगा जिसके पास महत्वपूर्ण फैसलों जैसे- आर्मी और खुफिया एजेंसियों के मुखियाओं की नियुक्ति के मामले में राष्ट्रपति के बराबर अधिकार होंगे. लेकिन इस समझौते को अशरफ गनी ने यह कहते हुए खटाई में डाल दिया है कि इसकी शत्रें अस्पष्ट हैं जबकि अब्दुल्ला-अब्दुल्ला का कहना है कि इसमें सरकारी पदों के बटवारें का स्पष्ट तौर पर जिक्र है. बहरहाल, दोनों उम्मीदवारों ने गिनती की प्रक्रिया जल्दी खत्म करवाने के लिए आश्वासन दिया है. ताकि नया राष्ट्रपति नाटो सम्मेलन में शामिल हो सके जिसमें अफगानिस्तान के बारे में कुछ महत्वपूर्ण फैसले होने हैं. बहरहाल फिलहाल दोनों में से कोई उम्मीदवार पीछे हटने का इच्छुक प्रतीत नहीं होता है और लगता है आने वाले दिनों में यह विवाद और भड़क जाएगा.

तस्वीर का चिंतनीय पक्ष यह है कि तालिबान राष्ट्रपति चुनाव में उक्त धांधली से उपजे विवाद के हल में देरी होने का फायदा उठा रहा है. वैसे भी पिछले बारह सालों में तालिबान कमजोर नहीं हुए हैं. आम धारणा यही है उन्हें पाक का परोक्ष समर्थन प्राप्त है. राष्ट्रपति हामिद करजई ने हाल के बयान में पाक को आतंकी तालिबान को मदद देने का जिम्मेदार ठहराया है. उन्होंने कहा है कि पाक ऐसे लोगों को तीस हजार मासिक रुपया देकर अफगानिस्तान में लड़ने का प्रशिक्षण दे रहा है. एक अमेरिकी अखबार का कहना है कि अफगानिस्तान में तालिबान तेजी से आगे बढ़ते हुए काबुल के करीब आ पहुंचे हैं और तालिबान के हमलों में हर सप्ताह सौ के लगभग अफगान सुरक्षाकर्मी मारे जा रहे हैं. काबुल के निकट एक घंटे की दूरी पर स्थित प्रांत लोगार और वरदाक में तालिबान ने खुद को काफी मजबूत कर लिया है. वे इन प्रांतों को काबुल के खिलाफ हमलों के लिए लांचपैड के तौर पर इस्तेमाल करते रहते हैं. विदेशी सेनाओं के यहां अपनी सैन्य गतिविधि हटा ली है इसलिए तालिबान के बढ़ते हमलों ने स्थानीय सुरक्षा बलों के लिए गंभीर चुनौती पैदा कर दी है और अफगान सुरक्षा बल की क्षमता पर फिर सवाल उठ रहा है. यह सवाल फिर पूछा जा रहा है कि जब अमेरिकी-नाटो फौज अफगानिस्तान से चली जाएंगी तो क्या अफगान फौज देश की सुरक्षा कर पायेगी?

अमेरिका ने हालांकि अफगानिस्तान से दिसम्बर 2014 के अंत तक अपनी फौज हटाने का फैसला कर लिया है, इसके बाद भी वहा वहां 15000 के करीब फौज प्रशिक्षण और आतंकवादी विरोधी अभियान के लिए छोड़ना चाहता है. कारण, अफगानिस्तान अभी पूरी तरह सुरक्षित नहीं है. लेकिन इसके लिए अफगान राष्ट्रपति के सुरक्षा समझौते पर हस्ताक्षर जरूरी हैं. हामिद करजई इसके लिए अमेरिकी दबाव के बावजूद राजी नहीं हुए जबकि राष्ट्रपति पद के चुनाव लड़ने वाले दोनों उम्मीदवारों ने फिलहाल विजयी होने पर हस्ताक्षर का वायदा किया है. लेकिन इस बारे में आशंका बनी है. चुनाव जीतने के बाद उनमें से कोई नहीं चाहेगा कि उन पर अमेरिकी मोहर लगे. वैसे भी तालिबान नेता मुल्ला उमर ने दोनों उम्मीदवारों को चेतावनी दी है कि वे किसी समझौते पर हस्ताक्षर न करें क्योंकि अमेरिकी फौज यदि अफगानिस्तान में ठहर गई तो लड़ाई और तेज होगी.

पाक की फौज और आईएसआई पहले से ही यहां अपनी कठपुतली सरकार कायम करने की कोशिश कर रहे हैं. भारत का जहां तक सवाल है तो तालिबान भी चाहते हैं कि भारत यहां से बाहर निकले जबकि भारत ने वहां कई बड़ी परियोजनाओं में निवेश किया है. इनमें हैरात में 20 करोड़ डॉलर की लागत की सलमा पनबिजली एवं सिंचाई बांध परियोजना और काबुल में अफगान संसद की इमारत शामिल है. फिलहाल भारत की तरफ से अफगानिस्तान को दी जा रही सहायता 2 अरब डॉलर की है. ऐसे में भारत को फूंक-फूंक कर कदम रखना होगा. भारत के प्रधानमंत्री ने हाल में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति को स्वतंत्रता दिवस पर बधाई देते हुए वायदा किया है कि भारत मजबूत, शांति पूर्ण लोकतांत्रिक और खुशहाल अफगानिस्तान बनाने के प्रयासों को समर्थन देता रहेगा.

माना यह भी जा रहा है कि सत्ता संभालने से पहले नरेन्द्र मोदी ने पड़ोसी देशों खासतौर से अफगानिस्तान को लेकर अपनी जिस उदार नीति का परिचय दिया है, वह भी तालिबान को हजम नहीं हो रहा है. एक अहम पहलू यह है कि अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा नाटो सैनिकों के हटने के बाद अफगानिस्तान में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका चाहते हैं. आशंका जताई जा रही है कि तालिबान भारतीयों को भी अपना निशाना बनाना और तेज कर देंगे और ऐसे हालात में आर्थिक रूप से पस्त अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण और अन्य विकास कायरें पर भारत की सहभागिता प्रभावित होने का खतरा पैदा होगा. इसलिए भारत की मोदी सरकार को अफगानिस्तान को लेकर सरकार की नीतियों की समीक्षा करनी होगी. इसके लिए मोदी सरकार पड़ोसी देश में लोकतांत्रिक शक्तियों को समर्थन देकर तथा रूस एवं चीन के साथ साझा आतंकवादी विरोधी रणनीति बनाकर इस खतरे से निपट सकते हैं.

कुलदीप तलवार
लेखक


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